भोग और त्याग का समन्वय

March 1957

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(श्री स्वामी अलोकानन्द, जी कलकत्ता)

त्याग और भोग का समन्वय ही वर्तमान युग की घोषणा है। यही इस युग की समस्या है। जगत में कितने ही व्यक्ति भोग करते-करते ही, भोग के भीतर ही जीवन की समाप्ति कर देते हैं। पार्थिव भोग को छोड़कर वे और कुछ नहीं जानते। भोग की लालसा में ही वे रात दिन व्यस्त रहते हैं, अपने भोग के लिए वे दूसरों को हानि करने में भी संकोच नहीं करते। यह भोग-स्पृह उनके मन को, उनके विचारों को उनकी बुद्धि को भौतिक, वस्तुओं से ऊपर उठने ही नहीं देती। छोटी चीज का स्वाद चखते-चखते मनुष्य बड़ी चीज का, उत्तम चीज का स्वाद ही भूल जाता है। उनकी बड़ी चीज का स्वाद ग्रहण करने की आकाँक्षा ही लोप हो जाती है। छोटी चीज के भोग में जो सुख मिलता है वह क्षणस्थायी होता है और बड़ी चीज से प्राप्त होने वाला सुख दीर्घस्थायी होता है। भौतिक पदार्थ के भोग से जो सुख प्राप्त होता है वह मनुष्य की पंचेन्द्रियों का सुख है। किन्तु मनुष्य तो केवल इन्द्रियों का समूह नहीं है, यद्यपि पंचेन्द्रियों द्वारा वह भौतिक जगत से संपर्क स्थापित किये रहता है। किन्तु मनुष्य तो इन्द्रिय युक्त होते हुये भी वास्तव में इन्द्रियातीत होता है। इसी कारण पंचेन्द्रियों द्वारा जगत के भोगों का निरन्तर उपभोग करते रहने पर भी इन्द्रियातीत आत्मा तृप्त नहीं हो पाती। भौतिक पदार्थों के भोग से स्वभावतः ही एक प्रकार की थकावट आती है, इससे मनुष्य एक वस्तु को छोड़कर दूसरी का भोग आरम्भ करता जाता है। इस प्रकार वह भोग के निमित्त आत्मा को बेच डालता है।

यह भोग की स्पृहा मनुष्य के हाड़माँस में समाई हुई है। एक तरफ तो वह भोग-स्पृहा के द्वारा संचालित होकर इन्द्रियों से प्राप्त भौतिक जगत से अपना संबंध कायम रखता है और उसमें विचरण करता है। इस प्रकार जगत रूपी नाट्य शाला में भगवान की लीला चलती रहती है। दूसरी तरफ इस भोग-स्पृहा के मध्य में होकर ही छोटी चीज की तरफ और फिर उससे भी बड़ी चीज की तरफ मनुष्य अग्रसर होता जाता है। इस प्रकार भगवान स्वयं ही भोग में रत रहते हैं। वे स्वयं अपने को ही भोग करते हैं। वे अपनी सृष्टि का आनन्द, अपनी लीला का आनन्द भोग करते हैं। इस कारण भोग की स्पृहा को अस्वीकार करना या उसे नष्ट करने की चेष्टा एक बड़ी भूल है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मनुष्य एक मात्र भोग में ही निमग्न हो जाए। इसलिये भोग भी ज्ञानपूर्वक करना चाहिये और उसके साथ ऐसी चीज भी रखनी चाहिए जिससे भोग में डूबा न जा सके। वही चीज त्याग है।

मनुष्य भोग करेगा और फिर त्याग भी करेगा। जिस प्रकार बिना भोग किये त्याग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार त्याग के बिना भी भोग संभव नहीं है। त्याग से ही भोग का स्वाद बढ़ जाता है। मनुष्य उसी चीज का वास्तव में भोग कर सकता है जिसका वह त्याग कर सकने को समर्थ हो। जाड़े की ऋतु में अपने शरीर पर से जब एक ऊनी वस्त्र उतार रास्ते में पड़े किसी कंगाल को दे दिया जाता है तभी वह पूर्ण रूप से उसका भोग करता है। इसलिये भोग में संग त्याग का करना आवश्यक है।

इसी प्रकार त्याग के संग भोग न रहने से भी काम नहीं चल सकता। केवल त्याग का आदर्श अर्थहीन है। त्याग के साथ भोग को न रखने से त्याग संभव ही नहीं है। भोग के बन्धन से बचने के लिये जो व्यक्ति कोपीन लगाकर बैठा है, वह कोपीन का ही भोग करता है। जो कोपीन को भी त्याग कर दिगम्बर बन जाता है वह भी शरीर-रक्षा के लिये आहार ग्रहण करता है। कुछ न कुछ उसे भोग करना ही होगा, बिना भोग किये शरीर का अस्तित्व रहना ही असंभव नहीं। वर्षा के समय उसे किसी वृक्ष के नीचे आश्रय लेना पड़ेगा, जाड़े के समय उसे आग जलाकर उष्णता प्राप्त करनी होगी। सब भोग के ही रूप हैं। ऐसे समय अगर दूसरा मनुष्य एक अच्छे कम्बल द्वारा शीत निवारण करता है तो वह भी भोग है। अब यह कहना कि एक मनुष्य ने बहुत छोटी चीज का भोग किया और दूसरे ने उससे उत्कृष्ट वस्तु का तो दोनों में विशेष अन्तर नहीं है। एक को यदि केवल प्राप्त करने का प्रयत्न करना पड़ता तो दूसरे को भी लकड़ी इकट्ठी करके उससे आग जलाने में परिश्रम करना पड़ता है बंधन दोनों में ही है।

इसलिये धर्म तत्व को जानने वाले महापुरुषों का कहना है कि वास्तव में अनासक्ति ही त्याग है और आसक्ति ही भोग है। मनुष्य सब छोड़ देने पर एक मात्र कोपीन में भी आसक्त होकर रह सकता है, या उसके मन में आसक्ति की भावना दमन नहीं हुई है उत्तम वस्त्र धारण करने पर भी मनुष्य अनासक्त रह सकता है यदि भगवान की कृपा से उसे अनासक्ति की भावना प्राप्त हो गई है। बंगाल के श्री चैतन्य महाप्रभु ने सर्वत्यागी संन्यासी छोटा हरिदास को भोगासक्त मानकर अस्वीकार किया था और परम योगी राय रामानन्द को अनासक्त बतलाकर बहुत आदर किया था। गीता में भी भगवान ने “युक्ताहारविहार” की बात ही कही है। इसका आशय योग और भोग का समन्वय ही है।

हमारे देश में कितने ही आध्यात्मवादी सम्प्रदाय प्राचीनकाल से त्याग की ही प्रशंसा करते आये हैं। अधिकाँश साधू भोग को पतन का मार्ग बतलाकर उससे बचने की शिक्षा देते आये हैं। पर वास्तव में ऐसा त्याग समाज के अधिकाँश मनुष्यों के लिये व्यवहारिक नहीं हो सकता। यह मानव प्रकृति के विरुद्ध है। इस प्रकार एकमात्र त्याग का आदर्श जन समाज को देने से वह केवल मात्र आदर्श ही रह जाता है उस पर लोग आचरण नहीं करते। उदाहरण के लिये भारतवर्ष के हिन्दू समाज में 50-60 लाख साधू संन्यासी हैं। यद्यपि ये सब चिमटा और कमण्डल धारी ही नहीं हैं-और बहुत से तो भोग विलास करने वाले भी हैं-तो भी वे सब जनता को त्याग का ही उपदेश देते रहते हैं। पर इसका परिणाम क्या निकला? आदर्श एक तरफ जा रहा है और समाज की जीवनधारा दूसरी तरफ बह रही है। करोड़ों हिन्दू इन साधू-संन्यासियों को दो-चार पैसे देते हैं, हाथ भी जोड़ते हैं, पर कोई उनके उपदेशानुसार त्यागमय जीवन व्यतीत नहीं करता। इस प्रकार का आदर्श जनता के सम्मुख उपस्थित करने का परिणाम यह होता कि उसके आदर्श और आचरण ठीक न होने और आदर्श के अनुकूल आचरण न होने से, समाज का आचरण दूषित माना जाता है।

इसलिये वर्तमान युग का आदर्श त्याग और भोग का समन्वय है। यह ऐसा आदर्श है कि जिस पर चलने से हिन्दू-समाज ही नहीं, संसार भर का कल्याण हो सकता है। न तो मनुष्य भोग में डूब जायेगा, न त्याग का आडम्बर करेगा, वरन् वह त्याग और भोग दोनों के ऊपर स्थित रहेगा। पर मनुष्य वस्तु को भोग नहीं करेगा। वह बड़ी चीज को भोग करेगा, मनुष्य ऐसी सारी वस्तु का भोग करेगा, जिससे थकावट नहीं आती, जो दो दिन में समाप्त नहीं हो जाती। पर वह उपभोग करेगा श्री भगवान की अनन्त लीला में एक सहचर की हैसियत से। यही पूर्ण मानवता का, पूर्ण सामंजस्य का जीवन है। इसी में पूर्व के त्यागमय आदर्श तथा परिश्रम के भोगमय आदर्श का समन्वय है।


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