दुःख मिलना भी आवश्यक है।

March 1957

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(राय साहब शिवशंकर जी पण्ड्या)

इस संसार में ऐसा कोई बिरला ही मनुष्य होगा कि जो किसी न किसी प्रकार के दुःख से दुःखी न हो। कोई शारीरिक कष्ट से छटपटाता है तो कोई मानसिक वेदना से व्याकुल होकर लम्बी-लम्बी सांसें भरता है। क्या ज्ञानी क्या अज्ञानी दुःख सभी पर आते हैं, परन्तु दोनों के दुःख सहने के प्रकार भिन्न हुआ करते हैं। कहा है कि- “ज्ञानी भुगते ज्ञान सों, मूरख भुगते रोय!” इसका एकमात्र कारण यह है कि दोनों प्रकार के मनुष्य दुःख को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं अज्ञानी मनुष्य दैवी प्रकोप को अपने दुःख का कारण समझते हैं और इसलिए यह कहा करता है कि भाई ईश्वर जो दिखाता है वह देखना पड़ता है, मनुष्य का इसमें कोई वश नहीं। परंतु इसके विपरीत मनुष्य समझता है कि इसमें ईश्वर का कोई दोष नहीं; मनुष्य को अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। महात्मा तुलसीदास जी ने रामायण में कहा है कि “कर्म प्रधान विश्व करि रखा। जो जस करहि सो तस फल चाखा।” जिस मनुष्य का इस सिद्धाँत पर अटल विश्वास है वह अच्छी तरह समझता है कि मेरे दुःख के द्वारा मेरे पिछले पाप कर्मों का क्षय हो रहा है और इस प्रकार दुख के भीतर छिपे हुए अपने कल्याण की झलक देखता है और इसलिए वह अपने दुःख को धैर्य एवं साहस के साथ सहन करता है। इसके सम्बंध में एक अपराधी का दृष्टांत लीजिए कि जिसको किसी अपराध के कारण कारागार वास का दुःख उठाना पड़ रहा है, उसको कष्ट तो होता है। पर उसके साथ-साथ उसके अपराध का भी क्षय होता जाता है। जो अपराधी इस बात को समझता है वह धैर्यपूर्वक अपने दण्ड की अवधि समाप्त करता है और आगे के लिए सतर्क रहता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सोना तपाने से शुद्ध होता है उसी प्रकार मनुष्य भी दुःखों के ताप से तप कर पापों से मुक्त होता है।

विचारपूर्वक देखा जाय तो सुख इस संसार की एक बड़ी संचालन शक्ति है, उसी की लालसा से मनुष्य क्रियावान् होता है। सुख और दुःख का जोड़ा है। दुःख के कारण ही सुख का महत्व है। यदि दुःख न होता तो सुख का कोई भी मूल्य न रह जाता और न उसमें संचालन शक्ति ही रहती। परिणाम यह होता कि मनुष्य की सारी क्रियाएं बंद हो जातीं और वह एक जड़ पदार्थ की नाई उद्यमहीन और निःचेष्ट बन जाता और इस प्रकार उसके विकास का मार्ग बिल्कुल बंद हो जाता। इस दृष्टि से भी दुःख की बड़ी उपयोगिता सिद्ध होती है।

मनुष्य का विकास एक दैवी विधान है। जीवात्मा का परमात्म स्वरूप होकर उसमें लीन हो जाना ही विकास का अंतिम लक्ष्य है। वास्तव में जीवात्मा परमात्मा से पृथक नहीं है, वरन् उसी परम ज्योति की एक चिंगारी है। अज्ञान का आवरण पड़ जाने से उसमें पृथकता आ गयी है और वह अपना असली रूप भूलकर अल्प यज्ञ बन गया है। इस सम्बंध में बर्फ और पानी का एक प्राकृतिक दृष्टांत लीजिए। वास्तव में ये दोनों कोई भिन्न पदार्थ नहीं है, केवल रूपांतर के कारण उनमें पृथकता आ गयी है। ज्यों ही बर्फ गलकर पानी का रूप धारण कर लेती है त्यों ही उसकी पृथकता नष्ट हो जाती है। इस प्रकार जीवात्मा अपनी अल्पज्ञता के कारण ज्ञान रूप परमात्मा से पृथक मालूम पड़ता है, परंतु जिस समय वह सर्वज्ञता प्राप्त कर लेगा उस समय उसकी ये पृथकता नष्ट हो जायेगी और वह परमात्मा स्वरूप हो जायेगा। विकास और ज्ञान का घनिष्ठ सम्बंध है, जैसे-जैसे मनुष्य का ज्ञान बढ़ता है वैसे-वैसे वह विकास की सीढ़ी पर ऊपर उठता जाता है। तात्पर्य ये है कि दुःख ज्ञान संपादन करने में भी सहायक होता है।

दुःख आत्मबल संपादन करने का एक साधन रूप है। ये तो सभी जानते हैं कि दुःख सहने के लिए आत्मबल की आवश्यकता होती है और शारीरिक बल के अनुसार वह बल भी अभ्यास से ही बढ़ता है। जिस मनुष्य में आत्मबल नहीं होता वह मनुष्य दुःख से इतना व्याकुल हो जाता है कि आत्मघात तक कर बैठता है। वह समझता है कि जीवन के अंत के साथ-साथ मेरे दुःखों का अंत भी हो जायेगा। ये उसकी बड़ी भारी भूल है। मनुष्य अपने शरीर को भले ही त्याग दे परंतु उससे वह अपने कर्म के बंधनों से कदापि मुक्त नहीं हो सकता। कहावत है कि “कटे न पाप भुगते बिना।” जो लोग जीवन के इस रहस्य को समझते हैं वे दुःख पड़ने से कभी विचलित नहीं होते। वे जानते हैं कि दुःख से केवल पापों का ही क्षय नहीं होता बल्कि उनका आत्मबल भी बढ़ता है। जो उनको जीवन संग्राम में सहायक होगा और नये-नये पाप करने से बचायेगा। मन की दुर्बलता ही मनुष्य को पाप कर्मों की ओर खींच ले जाती है।

ऊपर जो कहा गया है उसका साराँश यह है कि-

1. दुःख से पाप कर्म का क्षय होता है।

2. दुःख संसार के संचालन में सहायक होता है।

3. दुःख ज्ञान संपादन करने का एक आधार है।

4. दुःख आत्म बल प्राप्त करने के लिए एक साधन है।

वास्तव में दुःख एक सर्जन के चाकू की नाई देखने में कठोर पर परिणाम में हितकर होता है। तब ही तो आशावादी लोग कहा करते हैं कि “जो कुछ होता है वह भले के लिए ही होता है” ये ऐसा जगत व्यापी सिद्धाँत है कि जिससे कठिन से कठिन प्रसंग पड़ने पर भी मनुष्य को बड़ा आश्वासन मिलता है।


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