(श्री विश्वनाथ कुलश्रेष्ठ)
झाँसी के लक्ष्मी व्यायाम मंदिर के संस्थापक श्री अन्नाजी एक स्वयं-निर्मित व्यक्ति हैं जिन्होंने अनुकूल परिस्थितियाँ न होते हुए भी जन सेवा के लिए विशेष महत्व का रचनात्मक कार्य कर दिखाया है। उनका जन्म अब से 48 वर्ष पहले मंदसौर (ग्वालियर) में हुआ था और बाल्यकाल से ही उनमें निर्माण शक्ति के लक्षण दिखलाई पड़ते थे। उनमें एक ऐसी प्रकृतिदत्त योग्यता थी कि जिस किसी कार्य को दूसरों को करते देखते थे उसे थोड़े से प्रयत्न से ही वे स्वयं करके दिखा देते थे। वे प्रायः कागज के फूल, पत्ती, मोम तथा मिट्टी के खिलौने, काटे हुए चित्र, सिनेमा के चित्र आदि बनाकर अपने साथियों तथा घर वालों का भी मनोरंजन किया करते थे। पढ़ने में भी वे कमजोर नहीं थे और अध्ययन काल में सदैव छात्रवृत्ति पाते रहे।
स्कूल में लड़कों को जिमनास्टिक करते देख उनकी भी हार्दिक इच्छा उसे करने की होती थी। उनकी विशेष रुचि देखकर उम्र में छोटा होने पर भी अध्यापक जी ने उन्हें कुछ सिखाया। एक बार एक साथी ने मलखम्भ पर व्यायाम करने की विधि उनको बतलाई। इन सबको उन्होंने केवल 11-12 वर्ष की अवस्था होते हुए भी शीघ्र समझ लिया और अध्यापक के सामने पहली बार में करके दिखा दिया।
उनकी रचनात्मक प्रवृत्ति और संगठन शक्ति का प्रथम नमूना उस समय मिला जब एक बार की गर्मी की छुट्टियों में वे अपने पिताजी के पास सीहोर गये और उसी दरम्यान कुछ लड़कों को इकट्ठा करके एक अखाड़े और हनुमान मंदिर की स्थापना कर दी। इसका अधिकाँश कार्य उन्होंने अपने ही हाथ से किया था।
इसी समय एक घटना ने इनका ध्यान व्यायाम की तरफ और अधिक आकर्षित किया। इनके भाई ने इनके लिए एक कोट सिलवाया जो बिलकुल फिट था। साथियों में से किसी ने कहा कि लड़कों का कोट कुछ ढीला होना चाहिए। भाई साहब ने उत्तर दिया कि वह तो टी.बी. का मरीज है वह क्या मोटा होगा। वास्तव में अन्ना जी काफी दुबले-पतले थे, इससे भाई के शब्दों ने उनके हृदय पर विशेष चोट पहुँचाई। उन्होंने निश्चय किया कि मैं अवश्य ही अपना स्वास्थ्य सुधारुंगा और भाई की बात का उत्तर शब्दों द्वारा नहीं वरन् कार्य रूप में कुछ करके दूँगा।
इसके बाद वे नौकरी की खोज में झाँसी आ गये और शारीरिक अवस्था सुधारने के लिए एक व्यक्ति से मित्रता कर उसके साथ महाराष्ट्र व्यायाम शाला जाने लगे। इस समय उनकी आयु 18-19 वर्ष की हो चुकी थी और वे हाई स्कूल की परीक्षा पास कर चुके थे। इस व्यायाम शाला में उन्होंने लक्ष्य किया कि सब अपने-अपने काम से मतलब रखते हैं और छोटे बच्चों तथा नये लड़कों की तरफ कोई ध्यान नहीं देता। खासकर बच्चों की दशा पर उनको बहुत तरस आया कि घर में माता-पिता उनके विकास पर उचित ध्यान नहीं देते तथा बाहरी संस्थाओं में भी कार्यकर्ता उनकी उपेक्षा करते हैं। इस पर उनके भीतर से एक आवाज उठी कि मेरा जीवन बिगड़ा सो बिगड़ा अब मैं इन बच्चों की अवस्था सुधारने का प्रयत्न अवश्य करूंगा।
इसी बीच सन् 1929 श्रीगणेश शंकर जी विद्यार्थी के सभापतित्व में झाँसी में एक कमेटी बनाई गयी जिसका उद्देश्य महारानी लक्ष्मीबाई के स्मारक के रूप में उनकी एक वीरवेश की प्रतिमा स्थापित करना तथा व्यायाम और अस्त्र शस्त्र की शिक्षा के लिए एक व्यायामशाला की स्थापना करना था। अन्नाजी के मन में उस समय यह भाव आया कि मैं अपने को पूर्ण रूप से इस कार्य में लगा दूँ। पर यह सोचकर चुप रहे कि इतने बड़े-बड़े सज्जनों के सामने हमारी क्या पूछ होगी। पर जब उन्होंने देखा कि वह कमेटी बिना कुछ ठोस कार्य किये ही समाप्त हो गई तो उन्होंने उक्त योजना को स्वयं अपने हाथ में लिया और अथक परिश्रम करके ‘लक्ष्मी व्यायाम मंदिर’ की स्थापना कर दी। लक्ष्मीबाई की एक भव्य प्रतिमा स्थापित हो गई, बहुत सी जमीन मिल गयी और व्यायाम मंदिर भी अच्छे पैमाने पर चलने लगा। श्री अन्नाजी का ध्यान संस्था में पाई जाने वाली प्रत्येक त्रुटि पर रहता है और वे उसे दूर करने का निरंतर उद्योग करते रहते हैं। उन्होंने बड़ौदा, अमरावती, पूना, जबलपुर, बम्बई, नागपुर, कलकत्ता, बनारस आदि दूर और पास के सभी प्रसिद्ध व्यायाम मंदिरों का ध्यानपूर्वक निरीक्षण किया है और जहाँ जो भी विशेषता पाई है उसे अपने यहाँ नये रूप में प्रारम्भ किया है।
आपने व्यायाम संबंधी सब विषयों को एकत्रित करके उन्हें क्रम से चुनकर एक नियमित पाठ्यक्रम बना दिया है जो तीन भागों में विभाजित है। जो विद्यार्थी इन तीनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो जाते हैं वे वास्तव में व्यायाम कला में निष्णात कहे जा सकते हैं और अन्नाजी ने इन व्यक्तियों को सभी श्रेणी के स्कूलों में व्यायाम शिक्षक के पद पर नियुक्त किये जाने की सरकार से मंजूरी करा ली। इसमें संदेह नहीं कि अन्ना जी के परिश्रम और निस्वार्थ सेवा के बल से यह संस्था देश की चोटी की व्यायाम संस्थाओं में गिनी जाने लगी है और भविष्य में यह और भी ठोस कार्य कर सकेगी ऐसी आशा है।
यों लोक सेवा भी आज एक फैशन बन गया है। लोग किसी सभा सोसाइटी के पदाधिकारी बन कर अपना नाम छपवा कर, लीडरी का शौक पूरा करते रहते हैं। काम करने, समय देने, त्याग करने से कोसों दूर-पर लीडरी के वक्त बातूनी छप्पर बाँधने के लिए सब से आगे दीखते हैं। नकली घी की तरह नकली नेता भी आज सर्वत्र दिख पड़ते हैं। पर ऐसे लोग जो जन हित के लिए अपने आप को खपा दें, धुला दें, कोई बिरले ही होते हैं। जिनके भीतर लोक सेवा की सच्ची लगन होती है, मानव जाति की श्रेष्ठताओं को बढ़ाने के लिए तड़पन होती है वे अपने आपको तिलतिल जलाकर प्रकाश देने वाले दीपक की भाँति कठिन परिस्थितियों में भी बहुत कुछ कर डालते हैं, जबकि उनकी अपेक्षा अनेक गुनी अच्छी परिस्थितियों के व्यक्ति भी समाज सेवा के मार्ग में अमुक-अमुक कठिनाइयों के कारण रुकावट होने की बात ही सोचते रहते हैं।
अन्नाजी एक आदर्श जन नायक हैं। उनके भाषण नहीं उनकी प्रत्येक क्रिया है। उनके जीवन का प्रत्येक दिन सेवा संहिता का एक पृष्ठ कहा जा सकता है। शारीरिक, आर्थिक, पारिवारिक अनेक कठिनाइयों के बीच गुजरते हुए भी वे जितना महान कार्य कर सके हैं इसे लोक सेवकों के लिए एक प्रत्यक्ष पथ-प्रदर्शन ही कहना चाहिए।