मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ

March 1957

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(श्री भागीरथी गुप्त बहेडी)

विश्व में मनुष्य ही एक ऐसा मननशील प्राणी है जो सोच विचार कर आचरण करता है। यदि वह ऐसा न करे तो उसमें और पशु में कोई अन्तर नहीं समझा जा सकता। बहुधा देखने में आया है कि जिन बच्चों को भेड़िये आदि उठाले जाते हैं और अपनी माँद में पाल लेते हैं वे बड़े होने पर भेड़िये की सी आदतें सीख लेते हैं।

विश्व में सभी आवश्यक वस्तुओं के निर्माण हो जाने के पश्चात् मनुष्य योनि का आविर्भाव हुआ और साथ ही मंगलमय प्रभु ने उन्हें वेदज्ञान रूपी अमूल्य रत्न भी प्रदान किया उसी वेदरूपी ज्ञान के सहारे मानव प्राणी आज तक उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होता हुआ प्रकृति का स्वामी बन बैठा है।

इस संसार में मनुष्य को जो कुछ करना है उसे चार भागों में विभाजित किया जा सकता है- धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष।

‘धर्म’

‘धर्म’ का तात्पर्य है धारण करना। मनुष्य मनन एवं विचार पूर्वक जिन सत्कर्मों का करना अपना कर्तव्य समझता है उनकी पूर्ति के लिये जीवन पर्यन्त प्रयत्नशील रहना धर्म कहलाता है। मनुष्य जिस समाज, देश एवं राष्ट्र में जन्म लेता है उस समाज, अथवा देश की सेवा करना, उसकी सर्वांगीण उन्नति में योग देना, उसकी मान-मर्यादा के लिये जीवन को बलिवेदी पर चढ़ा देना भी मनुष्य का सच्चा धर्म है।

समाज एवं राष्ट्र की सामयिक मनोदशा का अध्ययन करके तद्नुकूल आचरण करना युग-धर्म कहलाता है। पर ऐसा आचरण स्थाई नहीं होता, कुछ काल के लिये होता है। जिन परिस्थितियों को देखकर युग धर्म अपनाया जाता है, वह परिस्थितियाँ जब टल जायं तो उसमें परिवर्तन कर लेना उचित है।

अर्थ

आज सम्पूर्ण विश्व अर्थ के पीछे बुरी तरह पागल हो रहा है। साधारण मनुष्य ही नहीं बल्कि अपने को पूर्ण त्यागी अथवा जनता के सेवक कहने वाले भी अर्थ के दास देखने में आते हैं। वर्तमान युग में अर्थ की ऐसी मान्यता देखने में आ रही है कि किसी कवि का यह कहना सत्य ही जान पड़ता है- “संपूर्ण गुण धन में ही समाये हुए है।” आज समस्त संसार में जो अशान्ति का वातावरण फैला हुआ है और मनुष्य भले-बुरे का विचार त्यागकर स्वार्थ-साधन में लिप्त है उसका कारण यही धन की लालसा है।

हिन्दू संस्कृति के अनुसार ब्रह्मचर्य आश्रम को समाप्त कर जब मनुष्य गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है तो उसे सुखमय बनाने के लिये अर्थ की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि शेष तीन आश्रम इसी गृहस्थ आश्रम के भरोसे रहते हैं और नित्यप्रति पंचयज्ञों का करना भी गृहस्थ का कर्तव्य माना जाता है, इसलिये गृहस्थ को आवश्यक अर्थ की अभिलाषा करना और उसका संग्रह करना बुरा नहीं कहा जा सकता। पर यह धन भी अन्याय अथवा अत्याचार द्वारा उपार्जित न हो, तभी वह समाज के लिये कल्याणकारी होता है।

काम

‘काम’ का अर्थ है कामना युक्त। काम का उदय मन में होता है। इसीलिये काम को ‘मनसिज’ भी कहते हैं। ‘काम’ के मुख्यतः दो भेद हैं। एक वासनाजन्य काम और दूसरा भगवत् प्रेम। वासना-जन्य काम की पूर्ति विवाहित जीवन में होती है और भगवत् प्रेम की पूर्ति ईश्वरोपासना में। पुरुष में पुरुषत्व होता है और नारी में नारीत्व। इन्हीं के द्वारा सृष्टि को स्थिर रखने के कार्य में वे योग दे सकते हैं। पर उनका यह कार्य तभी तक धर्मानुकूल मनाया जायगा जब तक वह मर्यादा के भीतर हो। असंयमित ‘काम’ को व्यभिचार की संज्ञा दी जाती है। इस बात का ध्यान पुरुष और स्त्री दोनों को ही रखना आवश्यक है। वे जितने ही संयम और आत्मिक सहयोग की भावना में गृहस्थ-जीवन का निर्वाह करेंगे उतने ही अनुपात में दाम्पत्य-प्रेम का आनन्द प्राप्त कर सकेंगे। गृहस्थ-जीवन का सुचारु रूप से निर्वाह करने से ही मनुष्य भगवद् भक्ति की ओर अग्रसर हो सकता है और एक समय ऐसा आता है कि वह घर के बन्धन को त्यागकर ईश्वर प्राप्ति में ही संलग्न हो जाता है।

मोक्ष

सभी प्राणी दुख को दूर करने और सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहते हैं। और सुख भी ऐसा जिसका कभी नाश न हो। किन्तु दुख का अत्यन्त अभाव किस प्रकार हो यह एक बड़ी जटिल समस्या है। कारण दुख का अत्यन्ताभाव किसी साँसारिक वस्तु या सफलता से नहीं हो सकता। संसार के बड़े से बड़े धनी और चक्रवर्ती सम्राट को भी अनेक प्रकार की चिंताएं देखने में आती हैं और तरह-तरह के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कष्ट भी सहन करने पड़ते हैं। तब शाश्वत सुख कैसे प्राप्त किया जा सकता है? इसके लिये त्याग और तपस्या की आवश्यकता होती है। यम-नियम का पालन, सत्यानुमोदित कर्मों का आचरण, प्राणिमात्र को आत्मवत् मानना, सेवा-व्रत का धारण करना, सब प्रकार के दुर्व्यसनों का त्याग आदि ऐसे दैवी गुण हैं जिन पर चलकर मनुष्य मोक्ष-मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं।

हमारे पूर्वज ऋषि महर्षियों ने विशेष मननपूर्वक इन चार सूत्रों का आविष्कार किया था। किसी भी मनुष्य के भीतर जितनी भी अभिलाषायें या मनोभावनायें हो सकती हैं उन्हें इन्हीं चार विभागों में बाँटा जा सकता है। इन्हीं चारों तत्वों को अपनाकर मनुष्य अपने जीवन को पूर्ण सफल बना सकता है। खेद है कि आजकल के मनुष्य केवल दो तत्वों अर्थ और काम को अपना कर वह भी बड़े गलत तरीके से सम्पूर्ण मनोरथों के सिद्ध होने की आशा किया करते हैं। धर्म एवं मोक्ष के प्रति अब किसी में आस्था नहीं रह गई है। अर्थ को प्रथम स्थान मिलने से ही मनुष्य, मनुष्य का शोषण करने लग गया है। और काम की दृष्टि से उसका आचरण पशुओं से घोर निकृष्ट समझा जाने लायक बन गया है। इसलिए जब हमारे बन्धुगण धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों पर उनके सच्चे रूप से आचरण करेंगे तभी वे कल्याण की आशा कर सकते हैं।


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