दिव्य-प्रेरणा (Kavita)

March 1957

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यही आज की दिव्यतम साधना है-

स्वयं जाग जाओ, जगत को जगाओ?

हृदय में प्रबल भावनाएँ उगाओ,

निराशा का आलस्य तन से भगाओ।

बहुत देर अज्ञान की नींद सोये-

न अब व्यर्थ अपना समय तुम गँवाओ।

उठो, चल पड़ो, मत रुको एक क्षण भी,

बढ़ो, लक्ष्य की ओर सबको बढ़ाओ? यही0-

बढ़े राम भी थे स्वयं आत्म-बल से,

मिटाये थे संसार के ताप सारे।

करें अनुकरण हम न क्यों आज उनका,

बनें क्यों न आदर्श उनसे हमारे॥

हो तुम भी उन्हीं की सु-सन्तान, देखो,

सम्हालो, सुदृढ़-तत्त्व जीवन में लाओ? यही0-

तुम्हें प्रण न प्रह्लाद का याद है क्या,

सुनी क्या न तुमने है ध्रुव की कहानी?

अमित कष्ट झेले, अंगारों से खेले,

न विचलित हुए ध्येय से दिव्य-ज्ञानी॥

उसी भाँति कटिबद्ध होकर बढ़ो तुम,

स्वयं आज कर्तव्य अपना दिखाओ? यही.-

बनो पार्थ से कर्मयोगी, सुपथ में-

कभी मत डिगो भीम की शक्ति धारो।

बताये गये जो महावाक्य रण में-

वही दिव्य-सन्देश मन में उतारो॥

न अटको, न भटको, स्वपथ में निरन्तर-

बढ़े ही चलो पग न पीछे हटाओ? यही.-

*समाप्त*

(श्री रामभिलाष त्रिपाठी “चन्द्र” नवागंज, बरेली)


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