यही आज की दिव्यतम साधना है-
स्वयं जाग जाओ, जगत को जगाओ?
हृदय में प्रबल भावनाएँ उगाओ,
निराशा का आलस्य तन से भगाओ।
बहुत देर अज्ञान की नींद सोये-
न अब व्यर्थ अपना समय तुम गँवाओ।
उठो, चल पड़ो, मत रुको एक क्षण भी,
बढ़ो, लक्ष्य की ओर सबको बढ़ाओ? यही0-
बढ़े राम भी थे स्वयं आत्म-बल से,
मिटाये थे संसार के ताप सारे।
करें अनुकरण हम न क्यों आज उनका,
बनें क्यों न आदर्श उनसे हमारे॥
हो तुम भी उन्हीं की सु-सन्तान, देखो,
सम्हालो, सुदृढ़-तत्त्व जीवन में लाओ? यही0-
तुम्हें प्रण न प्रह्लाद का याद है क्या,
सुनी क्या न तुमने है ध्रुव की कहानी?
अमित कष्ट झेले, अंगारों से खेले,
न विचलित हुए ध्येय से दिव्य-ज्ञानी॥
उसी भाँति कटिबद्ध होकर बढ़ो तुम,
स्वयं आज कर्तव्य अपना दिखाओ? यही.-
बनो पार्थ से कर्मयोगी, सुपथ में-
कभी मत डिगो भीम की शक्ति धारो।
बताये गये जो महावाक्य रण में-
वही दिव्य-सन्देश मन में उतारो॥
न अटको, न भटको, स्वपथ में निरन्तर-
बढ़े ही चलो पग न पीछे हटाओ? यही.-
*समाप्त*
(श्री रामभिलाष त्रिपाठी “चन्द्र” नवागंज, बरेली)