महामानवों की महानता

March 1957

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(सर आर्थर हेल्पस्)

जब भी आप महापुरुषों के विषय में सोच रहे हों “महा” के स्थान पर दूसरा शब्द नहीं लगा सकते हैं। मानव प्रयत्नों की किसी भी दिशा में प्रवीण कार्य-कुशलता का नाम भी महानता नहीं है। संसार के महान् ज्योतिषी, महान विद्वान, महान चित्रकार और यहाँ तक कि महान कवि भी होते हैं किंतु ये सब महापुरुषों की श्रेणी में नहीं आते। क्योंकि महानता का मापदण्ड सफलता नहीं है। सफल और असफल दोनों ही व्यक्ति महान हो सकते हैं। ब्रिटेन के विजयी सेनापति मालबरोकी की अपेक्षा पीछे हटता हुआ सम्राट विलियम अधिक महान है और दूसरी ओर सीजर को निरंतर मिलने वाली सफलताएँ उसकी महानता को कम नहीं करतीं। सच बात तो यह है कि परिस्थितियाँ किसी को महान नहीं बनाती अपितु स्वयं व्यक्ति महान् होता है।

प्रश्न यह उपस्थित होता है कि तब इस महानता के दर्शन कहाँ हो सकते हैं? गुण, उद्देश्य और शक्ति के उचित संतुलन में यह सुलभ नहीं है। माना कि इस संतुलन से मनुष्य सुखी और सफल मनुष्य होगा और उसमें जीवन की गहराई होगी। न ही यह महानता दोष हीन जीवन में है। महापुरुषों की किसी भी लिस्ट को देख जाइये और यह बात स्पष्ट हो जायेगी, और न ही यह महानता जीवन शक्ति में है। यद्यपि जीवन शक्ति के साथ इसके दर्शन हो सकते हैं। यथार्थ में महानता का आभास पाने के लिए हमें तेज धारा की शक्ति की अपेक्षा सागर के गाँभीर्य की कल्पना करनी होगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि जब जीवन-शक्ति उन गुणों को जिन्हें हम एक शब्द में कार्य कुशलता कह सकते हैं, प्रभावित करते हुए किन्हीं स्पष्ट उद्देश्यों की पूर्ति में लगी होती है और इस प्रकार कोई बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध होता है तब हम कभी-कभी इस जीवन शक्ति को ‘महानता’ का पर्यायवाची मानने की भूल कर सकते हैं। यदि एक मनुष्य स्वयं की उन्नति के लिए जूझ रहा हो तो उसकी बहुत सी मुश्किलें आसान हो जाती हैं। उसे एक शक्ति प्राप्त हो जाती है और उसकी चाल में सुँदरता दिखायी देने लगती है। यही दशा उस समय भी होती है जब मनुष्य किसी एक प्रमुख विचारधारा का पीछा कर रहा हो फिर चाहे वह विचारधारा कितनी भी संकुचित क्यों न हो। सच पूछो तो जीवन की सफलता तो बहुधा उद्देश्य की एकता में ही निहित है। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि बहुधा उद्देश्य की एकरूपता में महानता को सफलता नहीं मिलती। किंतु केवल इस कारण से महानता नष्ट भी नहीं हो सकती है।

यदि महानता को किन्हीं गुणों की सीमा में बाँध सकते हैं तो वे गुण हैं- साहस और आत्मिक सहानुभूति एवं मानसिक शक्ति। आरंभ में ये गुण इतने प्रभावशाली नहीं प्रतीत होते किंतु जरा देखिए तो प्रगति की इनमें कितनी सम्भावना है। ग्रहण शील मस्तिष्क वाले व्यक्ति की शिक्षा कभी भी समाप्त नहीं होती है और आत्मिक सहानुभूति वाला मनुष्य उसके संपर्क में आने वाले सब मनुष्यों की आत्मा में प्रवेश कर जाता है, उनकी भावना को पकड़ लेता है, उनके अनुभवों को ग्रहण कर लेता है और इस प्रकार वह स्वयं में ही एक समाज बन जाता है। सहानुभूति तो सम्पूर्ण विश्व को एक सूत्र में जोड़ने वाली औषधि है। इसके बिना कुछ भी नहीं समझा जा सकता इसलिए यह कहना अनुचित नहीं है कि मनुष्य के समझने की शक्ति उसकी सहानुभूति की मात्रा के अनुसार कम या अधिक हो सकती है।

एक प्रश्न और भी कि सहानुभूति के अतिरिक्त और क्या हो सकता है जो स्वार्थ को कुँठित कर दे। स्वार्थ को गहरी सावधानी और आत्म परित्याग द्वारा रोका तो जा सकता है किंतु वह कुँठित केवल उसी परिस्थिति में होगा जब मानव प्रकृति को चारों ओर बढ़ने और दूर-दूर के पेड़ों पर अपने तंतु फेंकने का अवसर दिया जाय।

सहानुभूति से हीन होने में क्या-क्या दोष हैं इसका स्पष्ट भान हमें उन प्रयत्नों की सफलता से मिलता है जो सभी युगों में धार्मिक चरित्र निर्माण के लिए सहानुभूति से दूर रहकर किये गये हैं। प्रयत्नों के परिणामस्वरूप केवल ऐसे पात्रों का निर्माण हो सका है जो आत्म परित्याग के तंग मार्ग पर इधर-उधर घूमते हैं, स्वयं के गुण-दोषों पर विचार करते रहते हैं, अपने मन को सही अर्थ में संसार से नहीं किंतु अपने बंधुओं से अलग रखते हैं और उनको केवल यही चिंता रहती है कि क्या वे अपने पड़ोसी को अपने ही उस तंग मार्ग पर चलने को बाधित करें या फिर उसे सिर के बल धक्का दें। इस प्रकार अनेक सद्गुणों और चरित्र निर्माण के लिए कठिन परिश्रम के बावजूद भी हमें महान हठधर्मी अथवा दूसरों की आलोचना करने वाले हीन व्यक्ति ही निर्मित होते दिखायी देते हैं।

किंतु सहानुभूति में तो उत्साह के साथ-साथ प्रकाश भी है। यह तो सारी सजीव प्रकृति को जोड़ने वाली नैतिक कड़ी है। मानव समुदाय के विचार, भाषा और शिक्षा इत्यादि के अंतर पर से क्षण भर के लिए दृष्टि हटाकर चरित्र की आँतरिक विषमता की ओर हम देखें। जब कभी भी वैज्ञानिक ने प्राणि जगत् में एक नई जाति की खोज की, वे आश्चर्य चकित होकर रह गये, किंतु क्या हरेक मनुष्य प्राणी नहीं है जिसे कि संसार में पहले कभी भी नहीं देखा गया था और तब जरा ध्यान कीजिए कि राजकुमारों से लेकर झाड़-झंखाड़ों और अंधेरी कोठरियों में जन्म लेने वाले बालक तक का कितनी बड़ी संख्या में मानव-समुदाय इस संसार में आता-जाता है। इन मनुष्यों को किस प्रकार समझा जा सकता है, किस प्रकार एक-दूसरे को समझना सिखाया जा सकता है? यह कार्य तो केवल वे ही कर सकते हैं जिनमें सबके प्रति गहरी सहानुभूति है। गहरी सहानुभूति के बिना मनुष्य महान हो ही नहीं सकता है। ऐसे मनुष्य भी हो सकते हैं जो जीवन में सहानुभूति के बिना भी बड़े-बड़े पार्ट अदा करते हैं। जैसे कि स्टेज पर राजा और महापुरुष कभी-कभी प्रवेश करते हैं किंतु वे तो दूसरी श्रेणी के चरित्र होते हैं-दूसरों के जीवन का खेल खेलने वाले महापुरुष। किंतु कल्याण-भावना तो उन्हीं में हो सकती है जो दूसरों के लिए सोचते और कष्ट भोगते हैं और सच्ची शिक्षा भी उन्हीं में है जिनमें गहरी सहानुभूति है।

इस सहानुभूति के साथ साहस और जोड़ दीजिए और तब हमें ऐसा व्यक्ति प्राप्त हो जायेगा जो बुराई के विरोध में स्थिर रह सके और क्षमा, विश्वास और पराक्रम कर सके। संक्षेप में वह ऐसे सब कार्य कर सकता है जो सहानुभूति और पैनी दृष्टि के सहारे उसमें जाग उठते हैं।

मैं नहीं मानता कि राष्ट्र की महानता में व्यक्ति की महानता के इन गुणों के अतिरिक्त और अन्य कोई गुण भी होते हैं। बाहरी परिस्थितियां राष्ट्रों पर भी उतना ही प्रभाव डालती हैं जितना व्यक्तियों पर और व्यक्ति की अपेक्षा राष्ट्र के रूप-निर्माण में इनका अधिक हाथ रहा है। हम स्वभावतः ही ऐसे किसी भी राष्ट्र को जो सीमा, साधन और चरित्र की दृष्टि से उन्नत न हो, महान नहीं मान सकते हैं। किंतु ऐसे दो राष्ट्रों की जिनमें अन्य सब पहलू समान हैं, तुलना करने पर श्रेष्ठता उसी के पल्ले पड़ेगी जो साहस और मानसिक एवं आत्मिक सहानुभूति की दृष्टि से श्रेष्ठ हो।

इसी प्रकार संसार के भिन्न-भिन्न युगों की तुलना करते समय भी हम उन्हीं गुणों का निरीक्षण करेंगे जो कि एक व्यक्ति को तौलने के लिए उपयोग में लाते हैं। उदाहरणार्थ वर्तमान और भूतकाल की तुलना। भूतकाल के विषय में सोचने पर उस समय की आश्चर्यजनक असहिष्णुता और निर्दयता का ज्ञान प्राप्त कर दाँतों-तले अंगुली दबा लेनी पड़ती है। ऐसी निर्दयता जो बार-बार उलटकर निर्दयी पर भी चोट करती और ऐसी असहिष्णुता जो उन्हीं चीजों को बर्बाद करने पर तुली रहती जिन्हें कि उसे पाल-पोसकर बड़ा करना चाहिए। मानव कार्य की इस भट्ठी में समय-समय पर नीति उपदेश डाले गये हैं किंतु ऐसा लगता है कि इससे आँच अधिक ही बढ़ती रही है। मनुष्य अपनी बुद्धि का श्रेष्ठ रूप शायद अपने साथियों को अप्रसन्न करने और दुःख देने में ही बिगाड़ता आया है। भूतकाल में पृथ्वी की उत्पादन शक्ति भी अधिक थी तभी तो मनुष्य निर्दयता के लिए समय बचा सका फिर भी उस समय कठोरतम अकाल भी हुए। ऐसे अकाल जिनका सानी वर्तमान में नहीं मिलता। यही दशा न्यायपद्धति की रही हैं। चाहे आप मुझे वर्तमान का अनुचित प्रशंसक ही मानें, मैं यह कहने के लिए तैयार हूँ कि वर्तमान में हम अधिक महान् हैं। हमारे मस्तिष्क और आत्मा अधिक सहानुभूतिमय है। हमारा दिल और दिमाग खुला हुआ है। हम या हममें से कुछ तो अवश्य ही इस निर्णय पर पहुँच गये हैं कि यदि मनुष्यों के विरोधी मतों में सच्चाई है तो वहाँ कटुता का कोई प्रयोजन नहीं होगा। हमने तो एक दूसरे के प्रति दयावान होना अधिकाधिक सीख लिया है। आज की सहिष्णुता की महानता हमारे पूर्वजों में नहीं थी।

अब हम महानता के दूसरे गुण साहस पर विचार करें। क्या हमारे युग ने इस दिशा में कुछ प्रगति की है? यह प्रश्न भी शंका से पूर्ण है। भय के भूत के रूप युग-युग में इतने बदलते रहते हैं कि उसके सामना करने की भिन्न अवस्थाओं की तुलना कर साहस के अधिक या कम होने का निर्णय देना कठिन है। आज मनुष्य लोकमत से उसी प्रकार से भयभीत रहता है। जिस प्रकार कि भूतकाल में निर्दयी राजाओं से। और हमारी सामाजिक स्थिति और चेहरे ग्रीसवासियों की भाग्यदेवियों के समान हैं, जो पल में बना दे और पल में मिटा दे। वर्तमान और भूतकाल में कितना साहस मौजूद है या था, यह तुलना संभव नहीं है; किंतु मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूँ कि नव जागरण के साथ-साथ साहस नहीं बढ़ेगा।

इन तथ्यों को भिन्न-भिन्न स्थितियों में कसौटी पर कसने का कोई अंत नहीं है और इससे क्या परिणाम होंगे इस पर भी मनुष्य के भिन्न मत होंगे। किंतु तथ्य शाश्वत है कि हम सहानुभूति और सहिष्णुता के प्रकाश के प्रति ग्रहणशील रहें और साहस से निरंतर बढ़ते ही जायें।


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