वेदों के मूलभूत तथ्य

March 1957

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(श्री सूरजचन्द जी सत्यप्रेमी डाँगी)

प्रातः स्मरणीय गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के निर्माण द्वारा मानव-समाज पर अनुपम उपकार किये हैं। यों तो उनका कहना है कि मैंने यह रघुनाथ-गाथा ‘स्वान्तः-सुखाय’ प्रकट की है। परन्तु उनके ‘स्वान्तः’ को सम्पूर्ण भारतवर्ष का हृदय समझना चाहिए। जब हमारे देश के निवासी वेद के तत्वों को भूल गये थे और घोर कलिकाल के वश में होकर दुराचार परायण हो रहे थे, तब उन्होंने हमको राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का मूर्तिमान् स्वरूप बतलाकर वेदों के चारों तत्वों का संरक्षण किया।

बालकाण्ड में ज्ञानी मुनियों के द्वारा दशरथ जी के प्रति जो वचन कहे गये हैं वे हमारे कथन को प्रमाणित करते हैं।

धरे नाम गुरु हृदय विचारी। वेद-तत्व नृप तव सुत चारी॥

अर्थात् गुरु महाराज वशिष्ठ जी ने मन में अच्छी तरह से विचार करके ही चारों नाम रखे हैं। हे राजन! तुम्हारे चारों ही पुत्र वेदों के चार तत्व मूर्तिमान् स्वरूप धारण करके आये हैं। अब हमें विचार करना है कि ज्ञानी मुनियों के इन वचनों में किस प्रकार परम सत्य भरा हुआ है। ज्ञान, भक्ति, वैराग्य और कर्म- ये चारों ही वेद तत्व हैं। भगवान् श्रीराम चंद्र ज्ञानस्वरूप हैं, जिनके दिव्य प्रकाश में सब तत्व अपना-अपना कार्य ठीक तरह से कर सकते हैं। क्योंकि वे परमकुशला कौशल्या के सुपुत्र हैं। परम श्रेष्ठ मैत्री की आदर्श रूपिणी नारी महारानी सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न के रूप में भक्तित्व और कर्मतत्व को उत्पन्न किया है। भरत जी वैराग्य के जाज्वल्यमान प्रतीक हैं। आलस्य ही हमारा शत्रु है। जिसका नाश करने वाले कर्मतत्वरूप शत्रुघ्न इन वैराग्य-स्वरूप भरतजी के अनुशासन में ही रहते हैं तथा हमारा भरण-पोषण और संरक्षण होता है। अगर हमारा कर्म वैराग्य के साथ न रहे तो वह शैतान का कर्म है। और वैराग्य में कर्म को अपने साथ नहीं रखा तो वह हैवानों का वैराग्य है। परन्तु भरत-शत्रुघ्न निरंतर साथ हैं। इसलिए वे मानवता स्थापना में सफल हो सके।

लक्ष्मणजी उपासना-भक्ति के आदर्श प्रतीक हैं। यह उपासना-भक्ति ज्ञानस्वरूप भगवान का क्षण भर भी साथ नहीं छोड़ती। इसलिए मानवता का संरक्षण हो सका। ज्ञानहीन भक्ति हैवानियत है और भक्तिहीन ज्ञान शैतानियत है। हमारे राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न इस विश्व के विचित्र चित्रकूट पर जब एक साथ मिलते हैं, तब मानवता अपने सम्पूर्ण रूप में प्रस्फुटित होती है। और वहीं ज्ञान भक्तिरूप राम-लक्ष्मण को अपने हृदय में बसाकर जब भरत जी वैराग्य पूर्ण कर्म की घोषणा करते हैं तभी अयोध्या के राज्य चलाने में समर्थ होते हैं। उसी प्रकार ज्ञान भक्ति स्वरूप राम-लक्ष्मण वैराग्य-कर्मरूप भरत-शत्रुघ्न को अपने दिल में मजबूत कर लेते हैं। तभी वे सफलता पूर्वक राक्षसों का संहार कर सकते हैं। अगर ज्ञान और भक्ति में वैराग्य पूर्ण कर्म का मिश्रण नहीं हो तो मंगल कार्य अधूरा ही रहेगा।

यों तो इन चारों तत्वों को हम अलग-अलग कह सकते हैं, पर सचमुच इन्हें हम अलग-अलग कर नहीं सकते। क्योंकि वे अलग-अलग रह नहीं सकते। मिठाई खायी तो उसके रंग रूप, उसके वजन, उसकी लम्बाई, चौड़ाई और उसकी सुगंध-मधुरता ये सब अलग-अलग कहे जाने पर भी पेट में एक साथ पहुँच जाते हैं। यह कैसे हो सकता है कि मिठाई का रंग−रूप तो खा लिया जाय और उसका वजन अलग रहने दें। उसके सुगंध माधुर्य का तो उपभोग ले लिया जाय और उसकी लम्बाई, चौड़ाई छोड़ दें। इसलिए भगवान ने कहा है कि मैं सूर्यवंश में अपने सम्पूर्ण अंशों के साथ मनुष्यावतार धारण करूंगा। हमने देखा कि ज्ञान, भक्ति, वैराग्य और कर्म ये वेदों के चारों तत्व ही भारतवर्ष को सगुण साकार रूप में प्राप्त हो गये। जहाँ निर्मल ज्ञान होगा, शुद्ध भक्ति वहाँ अवश्यम्भावी है और उसी प्रकार जहाँ शुद्ध वैराग्य होगा वहाँ शुद्ध कर्म जरूर ही होगा। वैराग्य में कर्म नहीं छूटता। कर्म का राग छूटता है। उसी प्रकार ज्ञान में भक्ति नहीं छूटती, भक्ति का दम्भ छूटता है।

आइये, हम सब वेदों के इन चारों तत्वों को एक साथ जीवन में उतार कर दशरथ जी के चारों पुत्रों की सच्ची आराधना-साधना करें, जिससे कि हमारे देश में सच्चा राम राज्य आ जाये। हम आज नाम तो राम का लेते हैं और काम हराम का करते हैं। आज हमारा शत्रुघ्न, भरत के अनुशासन में नहीं चलता। आज हमारा लक्ष्मण, राम को भूल गया है। इसलिए कहीं पर भी सीता के दर्शन नहीं होते। सीता के समान शाँति हमें तभी मिलेगी जब हमारी भक्ति और कर्म ज्ञान-वैराग्य के अनुशासन में रहेंगे और हमारे ज्ञान-वैराग्य भक्ति-कर्म को अपने साथ बनाये रखेंगे। ईश्वर करे-हम अपने अन्तःकरण चतुष्टय के वेदों के इन चारों तत्वों से परिपूर्ण बना लें, जिससे कि हमारा मन राम की ओर लक्ष्य करके सच्चा लक्ष्मण बने और हमारी बुद्धि तरह-तरह के विकृति प्रलोभनों में न फँसकर भरत के समान वैराग्य की ओर बढ़े। हमारा चित्त राम के प्रकाश से प्रकाशित होकर सच्चा ज्ञान प्राप्त करे और हमारा अहंकार शत्रुघ्न बन कर अपनी सेवाओं को सबके लिए समाज के लिए समर्पित करे। तभी हम सब तरह से स्वस्थ, सुखी और शाँत बन सकेंगे। दुनिया में शाँति स्थापना का सामर्थ्य वेदों के इन चार तत्वों की प्रतिष्ठ में ही सन्निहित है। जिसको हमें प्रयत्न पूर्वक जाग्रत करना पड़ेगा।


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