कर्मयोग की उपासना

March 1957

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(श्री आचार्य विनोबा भावे)

आम जनता तो निरंतर कर्म करती ही है। उसके सिवा उत्पादन नहीं होता और जीवन भी नहीं चलता, यह सभी जानते हैं। फिर भी प्रयत्न यह रहा है कि जहाँ तक हो सके, वहाँ तक उस परिश्रम को टालें, फिर या तो किसी दूसरे मार्ग से अधिक संग्रह करके परिश्रम से मुक्त हो जायं या उत्पादन के ऐसे साधन ढूँढ़ निकालें कि जिससे कम से कम परिश्रम करना पड़े। पहला विचार व्यक्तिगत है-बौद्धिक कर्म से खुद के लिए अधिक संग्रह कर परिश्रम से मुक्ति पाना, और दूसरा सामाजिक है-उससे मनुष्य यंत्र के पीछे पड़ गया है। मनुष्य को आराम मिले इतना ही नहीं, बल्कि हो सके तो उसको काम ही न करना पड़े या कम से कम करना पड़े, यह वासना उसमें है। उसमें यह भी कल्पना है कि मनुष्य को संस्कार और जीवन के आनंद के लिए कुछ फुरसत भी चाहिए। मनुष्य का जो भी विकास हुआ है वह फुरसत के कारण हुआ है, यह भी दृष्टि उसमें है।

इन दो विचारों में पहला व्यक्तिगत और स्वार्थी विचार कहा जायेगा, इसलिए उसके सम्बन्ध में खास सोचने का कारण नहीं है, लेकिन दूसरा विचार सारे समाज की ओर ध्यान देता है। उसमें केवल स्वार्थ नहीं है। उसमें दृष्टि यह है कि कर्मयोग में मनुष्य को कम समय देना पड़े तो फुरसत के समय वह जीवन का विकास कर सकता है। साहित्य का, धर्म का या कारीगरी का जितना विकास हुआ है, वह सब फुरसत के कारण ही हुआ है, ऐसा वे लोग कहते हैं। लेकिन इस दृष्टि को आश्रम में हमने स्वीकार नहीं किया है। मनुष्य को फुरसत की जरूरत ही नहीं है, ऐसा तो हमने नहीं माना है; लेकिन वह फुरसत तो कर्मयोग से ही मिलती है, ऐसी कल्पना की है। एक ही काम से मनुष्य के जीवन में एक अंग का विकास होता है, वही काम सारे जन्म में वह करता रहेगा तो जीवन एकाँगी बन जाता है, सर्वांगीण जीवन-विकास के लिए अलग-अलग कर्म-योगों की योजना करते हैं, तो जीवन में आनंद आता है और साथ-साथ ज्ञान भी मिलता है। ज्ञान और आनंद-इन्हें कर्मयोग के प्रतिस्पर्धी मानकर उनके लिए अलग समय निकालने की वृत्ति हम नहीं रखते और इसी में नई तालीम की शोध हुई है।

वैसे यह कोई नई शोध नहीं है बल्कि आश्रम-जीवन का यह स्वाभाविक परिणाम है और सारी गीता उसके बचाव के लिए खड़ी है। ज्ञान, कर्म और आनंद-तीनों के एक रूप हैं, यह गीता का सूत्र है। आनंद का विशुद्ध रूप ही भक्ति है, इसलिए भक्ति शब्द में उसका समावेश गीता ने किया है। इस तरह ज्ञान, भक्ति और कर्म, तीनों के योग का एक ही वस्तु में अनुभव करने को गीता समत्व कहते हैं। वह प्राप्त करने के लिए किस तरह जीवन की रचना करनी चाहिए, यह गीता ने बताया है। केवल संन्यास से यानी अर्वाचीन भाषा में फुरसत से जीवन विकास नहीं होता। मनुष्य को जो भी सिद्धि प्राप्त हुई है, वह चिंतन से हुई है सही, लेकिन चिंतन कर्म में से मुक्ति की अपेक्षा नहीं रखता, बल्कि कर्म में से ही चिंतन उत्पन्न होता है। जो चिंतन कर्म में से मुक्ति की अपेक्षा रखता है वह मनुष्य को सही रास्ते पर नहीं, बल्कि अनुचित रास्ते पर ले जाता है। विकास के बदले विनाश की तरफ ले जाता है। फुरसत के समय का चिंतन भी निकम्मा होता है। जिस चिंतन का आधार प्रत्यक्ष कर्मयोग पर, अनुभव पर नहीं होता है, वह चिंतन हवा में रह जाता है। मनुष्य के शरीर की रचना भी ऐसी है कि उसका मस्तक आकाश में होते हुए भी पाँव जमीन से लगे हुए हैं। मानवमूर्ति, मनुष्य के जीवन की कैसी व्यवस्था होनी चाहिए, इसका सृजन करती है। इसलिए ज्ञान, कर्म और आनंद, जिसको अब मैं भक्ति कहूँगा, तीनों का एक साथ अनुभव करना चाहिए। वैदिक ऋषि बोल रहा है “तवेत् इन्द्र अहं आशसा हस्ते दातुरं च ना दधे” -हे परमेश्वर, तेरी प्राप्ति के लिए हाथ में हँसिया लेकर मैं खेत में काम करता हूँ। संस्कृत ‘दाद्र’ से गुजराती में ‘दातरडु’ शब्द बना है। दाद्र पर से इतना सीधा प्राकृत शब्द सम्भवतः दूसरी किसी भी भाषा में नहीं है। तो वह ऋषि दाद्र को ईश्वर-प्राप्ति का साधन मानता है। उससे उसकी जो दृष्टि है, वह गीता की है। आश्रम-जीवन और नई तालीम के पीछे भी यही दृष्टि है।

यह नई नहीं है, लेकिन उसका अमल बीच के जमाने में नहीं होता था और इस जमाने में भी। यद्यपि चारों ओर काम-काम और काम दिखायी देता है, बड़े-बड़े यंत्र और कारखाने दिखायी देते हैं और बड़े पैमाने पर उत्पादन का विचार किया जाता है, फिर भी सारी प्रवृत्ति कर्म टालने की है। यंत्र अपने आप नहीं घूमता। चेतन की मदद के बिना अखण्ड चलने वाला कोई यंत्र नहीं निकल सकता, जब यह सिद्ध हुआ तब इस निर्णय पर आए कि मनुष्य का हाथ यंत्र को लगाना चाहिए। लेकिन नीयत तो कर्म टालने की ही है।

फिर कर्म से मुक्ति पाने की कल्पना की जाती है और उसके अनुकूल तत्वज्ञान भी खड़े किये जाते हैं। लेकिन देह के होते हुए कर्म से मुक्त होना, यह मुक्ति का अर्थ नहीं है। जिसके कारण देह उत्पन्न हुआ है, उस वासना को काटना, यह मुक्ति का अर्थ है और ऐसी मुक्ति कर्म करने पर ही प्राप्त हो सकती है, क्योंकि वह अंतिम अवस्था है। जो अंतिम अवस्था है, वह ज्ञानारम्भ से ही नहीं प्राप्त की जा सकती। नदी के उस पार जाने से जो आनंद मिलता है, वह इस पार रह कर नहीं मिल सकता। पहाड़ पर चढ़कर उसकी चोटी पर बैठने में जो आनंद मिलता है, वह बिना पहाड़ पर चढ़े, तलहटी पर बैठे रहने से नहीं मिलेगा। अंतिम कर्म मुक्ति में देहमुक्ति की कल्पना है। जब तक देह है तब तक बाह्य कर्म करते हुए मन में कर्म-मुक्त होने की कोशिश अगर हम करते रहेंगे तो अंत में देह उड़ जायेगा और फिर से देह धारण करने की जरूरत नहीं रहेगी। इसी का नाम मुक्ति है।

साराँश एक बाजू से वैज्ञानिक, दूसरी बाजू से तत्वज्ञानी और तीसरी बाजू से आलसी, तीनों मिलकर कर्म से मुक्ति पाने के मार्ग ढूँढ़ते आये हैं, जब कि गीता में और बापूजी ने भी, जिन्होंने आश्रम की रचना की, समझाया कि प्रत्यक्ष उत्पादक कर्म-योग ही मुक्ति पाने का मार्ग है। उत्पादक परिश्रम तो दुनिया भी करती है, लेकिन वह लाचारी से करती है। हमको वह इच्छापूर्वक और ज्ञान प्राप्ति की दृष्टि से करना चाहिए।

कर्ममय उपासना की यह खूबी होती है कि उसमें अगर उपासना की भावना है तो श्रेय होता है और वैसी भावना न रही तो कम से कम उत्पादन तो होता ही है। गीता में धर्मयुद्ध का वैसा ही वर्णन किया गया है। वैसी भावना इस उपासना में है।

हमारे प्राचीन धार्मिक लोग भी उपासना का रूढ़ करने में यशस्वी हुए हैं। आमतौर से धर्म में भेद थे ही। तो हर धर्म वालों ने अपनी-अपनी अलग उपासना रूढ़ की, लेकिन वे उपासनाएँ कर्ममय नहीं थी; वांग्मय थीं। इसलिए दोनों तरफ से लाभ नहीं देती थीं। ध्यानयोग के लिए अगर हम एक साथ बैठ जायं, जैसे कुछ लोग कहते हैं और उस ध्यान में अगर हम यशस्वी होते हैं तो ध्यान का लाभ जरूर मिलता है; लेकिन वैसी ध्यान क्रिया जिनके मन में नहीं चलती, उनके लिए वह आराम की या आलस्य की क्रिया बन जाती है। यानी ध्यान योग की उपासना इकहरी लाभदायी है। मन में ध्यान हुआ तो लाभ और वैसा ध्यान न हुआ तो अलाभ। लेकिन कर्ममय उपासना दोनों तरफ से लाभदायी होती है, इसलिए सामुदायिक दृष्टि से कर्ममय उपासना ही श्रेष्ठ होती है।


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