(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)
मनुष्य में सब देवता सोये हैं, तो सब राक्षस भी किसी कोने में छुपे हुए हैं। मनुष्य के शरीर में देवत्व की सब गुँजाइशें भर दी हैं। देवताओं में प्रस्तुत सब सद्गुणों का निवास मानव शरीर में हैं। हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों ने जो जीवन व्यतीत किए थे, वे ऐसे थे जिनमें देवताओं के तत्व प्रकट हुए थे।
इस भूमि में जो स्वर्ग भरा हुआ है, जो जो दिव्य विशेषताएं हैं, यदि उनके लिए हृदय के द्वार खोल दें तो आप का देवत्व विकसित हो सकता है। भारतभूमि देवताओं की पवित्र भूमि है इसके कण-कण में देवत्व भरा हुआ है। हम भारतभूमि में जन्में हैं अतएव हमें अपने को भाग्यशाली समझना चाहिए।
वास्तव में शरीर की अधिक महत्ता नहीं है। राक्षस और देवता दोनों के बाह्य शरीर एक से ही होते हैं। हमारी आन्तरिक भावनाएं, सद्गुण, सात्विकता और पवित्रता ही हमें देवत्व की ओर अग्रसर करतीं है। हमारी अच्छाइयों का सम्बन्ध देवत्व से है। श्रवणकुमार, प्रह्लाद, ध्रुव इत्यादि मानव शरीरों में देवता ही थे। एक बार श्रवण अपने पिता माता को टाँगे-2 लादे-2 थक गया। उसने क्रोधित होकर माँ बाप को फेंक देना चाहा। उसके पिता ने कहा कि कुछ और आगे ले चलो। श्रवण कुमार जैसे ही आगे-2 चला, उसके हृदय में देवत्व का प्रादुर्भाव हुआ। उसे अपनी गलती अनुभव हुई और उसने अपने पिता से बार-बार क्षमा माँगी। उसके पिता यह दिखाना चाहते थे कि एक पुत्र पिता के लिए क्या क्या कर सकता है। हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर, कर्ण इत्यादि हमारे लिए प्रकाश स्तम्भ हैं।
इस भारत भूमि के अतीत कालीन इतने दिव्य संस्कार फैले पड़ें हैं, इसका अतीत इतना उज्ज्वल है कि यदि आप अपना हृदय उसके लिए खोल दें, तो निश्चय जानिये आप में जरूर देवत्व के गुण प्राप्त होंगे। हमारी सात्विकता और पवित्रता निरन्तर प्रकाशित होंगी, हम ऊंचे उठते रहेंगे, और राक्षस तत्व से मुक्त होते रहेंगे।
देवताओं की प्रथम विशेषता है, (देव अर्थात् देने वाला) सदैव देने वाले, दान करने वाले। यह देना (या दान) अनेक प्रकार का हो सकता है। श्रम, धन, स्नेह, प्रेम, करुणा, सहानुभूति आदि को देना। देवता भावनाओं से परिपूर्ण हैं। देवताओं की पूजा करने से वे प्रसन्न होते हैं। वे कम लेते हैं, अधिक से अधिक देते हैं। यदि हम समाज से कम से कम लेकर अधिक से अधिक दें, तो हम देवता बन सकते हैं। हमारे प्राचीन ऋषि मुनि ज्ञानी संत महात्माओं में कमाने की असंख्य योग्यताएं थी, तो उससे बहुत धन प्राप्त कर सकते थे, लेकिन उन्होंने लिया नहीं त्याग किया। उन्होंने आयुपर्यन्त कुछ न कुछ यहाँ तक कि सर्वस्व दान दे डाला। ऐसे श्रमी, दानी, उदार महात्मा मानव शरीरों के रूप में देवता ही थे।
गायत्री का “देवस्य” हमें यह शिक्षा देता है कि हम कम से कम लें और अधिक से अधिक श्रम प्रदान करें। हम समाज की अधिक से अधिक सेवा करें, और आय के रूप में कम से कम लें। अधिक लेना स्वार्थ का प्रतीक है। अधिक लेना संकुचितता है, आपकी निर्बलता है, राक्षसत्व की ओर पतन है।
देवताओं की दूसरी विशेषता यह है कि वे स्वर्ग में रहते हैं तो क्या आप भी स्वर्ग में निवास कर सकते हैं? हाँ, आप रह सकते हैं। ईमरसन लिखते हैं कि यदि मुझे नर्क में भी रहना पड़ा तो अपने स्वभाव से नर्क को भी स्वर्ग बना लूँगा। वास्तव में अपने स्वभाव की उदात्तता, मधुरता, अच्छाई के कारण हम स्वर्ग की सृष्टि कर सकते हैं। यदि हम दूसरों पर विश्वास करें, प्रेम करें, सहानुभूति दिखलाएं, ऊंचा उठाएं, अच्छाइयाँ बढ़ावें, तो विश्वास रखिए आपका देवत्व जरूर विकसित होगा। प्रेम और अच्छाइयों के विकास से खराब पथभ्रष्ट भी सुपथ पर आ जाते हैं। सद्व्यवहार का गहरा प्रभाव पड़ता हैं। सद्भावनाएं जैसी जाती हैं, दुगुनी चौगुनी हो कर देने वाले के पास लौटती हैं। वे चारों ओर पवित्र वातावरण की सृष्टि करती हैं। आपकी सद्भावनाएं और सद्व्यवहार आपके अन्दर व्याप्त दैवी तत्व के प्रतीक हैं। इसका विकास प्रति दिन के सद्व्यवहार द्वारा करते रहें।
हमारे अन्दर अच्छाइयों का भण्डार भरा पड़ा है। हमारी तरह अन्य मानवों में भी सद्गुण भरे हैं। यदि हम अपने अन्दर देवत्व को विकसित कर लें, तो अन्य व्यक्ति भी हमारे अनुकरण पर अपनी सात्विकता और पवित्रता के सद्व्यवहार से एक अच्छे वातावरण की सृष्टि करते हैं। हमारा यह पवित्र कर्तव्य है कि इस दिव्य वातावरण की परिधि का निरन्तर विस्तार करते रहें। जितने अधिक व्यक्ति हमारे इस वातावरण के अंतर्गत आयेंगे, उतने अधिक वे गुप्त रूप से देवत्व का विकास कर सकेंगे।
देवता अमर होते हैं। हम भी अमर बन सकते हैं। जिस व्यक्ति की कीर्ति अमर है, वह शरीर रूप से न सही आत्मिक रूप से अजर अमर है। बुद्ध, गाँधी, ईसा, क्या मर गए? नहीं, अपनी कीर्ति के कारण अमर हैं। उनकी कीर्ति अक्षय है। वे सदा अमर बने रहेंगे। यदि हम भी अपनी मान प्रतिष्ठा की वृद्धि करें, तो देवत्व का विकास कर सकते हैं।
जो शरीर के लिए जीते हैं, वे मरते हैं। जो पेटू होते हैं, वे मरते हैं। जो शरीर की खुजली मिटाने और भोगों की तृप्ति के लिए जीते हैं, वे निकृष्ट जीवन व्यतीत करते हैं। उस आदमी की मौत आती है, जो दूसरों का हृदय दुखाता है। इन्द्रिय तृप्ति तो पशु भी करते हैं, उदर एवं कामेन्द्रिय की क्षुधा वे भी तृप्त करते हैं। यदि हम इसी गन्दगी के नीचे जीवन में फंसे रहें, तो हम पशुत्व की कोटि में ही रहते हैं। यह निकृष्ट जीवन मानव के लिए अशोभनीय है।
देवता वृद्ध नहीं होते, सदा युवक बने रहते हैं। अक्षय यौवन उनकी विशेषता है उनकी विशेषताओं का जो सौंदर्य है, वह उन्हें युवक बनाता है देवता हंसता है, मधुर मुस्कान उसके मुख पर खेलती रहती है। मृत्यु तक से वह मुस्करा कर व्यवहार करता है। मृत्यु हमारा अन्तिम अतिथि है। जो व्यक्ति निराशा की भावना से मुक्त है, उदासी जिनके पास नहीं आती, जो प्रफुल्ल है वह देवता है। युवक की भावना है कि अपने कर्त्तव्य पर स्फूर्ति से जोश से लगा रहे, आगे बढ़ता रहे, आनन्द पूर्वक जिए। देवत्व की भावना कहती है कि हम नवयुवक की भावना लेकर जिएं। हम राक्षसत्व (पशुत्व) का हमेशा विरोध करते रहें। अपने परमार्थ, लोक सेवा, सद्व्यवहार के रूप में देवत्व का विकास करते रहें। आप अपने को सुधारिये, पूर्ण समाज सुधर जायेगा। आप स्वयं देवता बनिये, सम्पूर्ण समाज, देश और विश्व देवताओं से भर जायेगा।
विश्वास कीजिए, आप स्वयं एक देवता हैं। जिस काम को करने से आपके मन में नीचता, ओछापन, हिंसा, स्वार्थ, घृणा और क्रोध उत्पन्न होता है, वह आपके आचरण के योग्य नहीं है। आपका सरोकार दुष्टता और पशुत्व से कदापि नहीं है। आप कुपथ पर नहीं जा सकते। आपका पग बुराई की ओर नहीं बढ़ सकता। आप तो देवत्व के सब गुणों से परिपूर्ण समुन्नत आत्मा हैं। परमेश्वर के एक दिव्य अंश हैं।
व्यक्ति विशेष, जाति विशेष, देश विशेष के नाते आज कोई कार्य न करें। आपका धर्म व्यक्ति का धर्म नहीं है वह तो समाज और सारे देश का है। कोई जाति अथवा धर्म अपनी संकुचित परिधि में आपको बाँध नहीं सकता। आपका आचरण किसी के लिए हानिकारक न हो, दुःखकर न हो, हिंसा, द्वेष, ईर्ष्या से परिपूर्ण न हो। आप तो समस्त मानवता मात्र की भलाई को दृष्टि में रखकर देवत्व का आचरण करें और दूसरों की सद्भावनाओं, श्रेष्ठताओं और पवित्रताओं का आदर करें।
महर्षि रमण का वचन है, “दैवी ज्ञान हुए बिना मनुष्य को अपनी कीमत नहीं मालूम होती और इसीलिये अपने विषय में वह औरों से जानना चाहता है, जबकि अपने सम्बन्ध में वह अपनी आत्मा से विश्वस्त किन्तु दृढ़ता पूर्वक जानकारी कर सकता है। साँसारिक दृश्य पर देव मोहित नहीं होते क्योंकि निरन्तर अंतःदृष्टि रखने के कारण उन्हें अपने भीतर ही उससे अधिक महत्वपूर्ण चीजें मिल जाती हैं।”