मौन का रहस्य

October 1954

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(श्री स्वामी शिवानन्द जी)

एक दिन भाष्कलि ने अपने गुरु से पूछा- ‘उपनिषदों का वह ब्रह्म कहाँ है?’ परन्तु गुरु निरुत्तर रहे। चेले ने बार-बार पूछा परन्तु गुरु ने कोई उत्तर नहीं दिया, वह मौन रहे। अन्त में गुरु ने कहा- “मैं तुम्हें बार-बार बताता रहा हूँ परन्तु तुमने समझा ही नहीं। मैं क्या करूं? उस ब्रह्म को शब्दों में नहीं बखाना जा सकता, उसे तो मौन साधना के द्वारा ही जाना जा सकता है। उसके लिये अनन्त शान्ति को छोड़ कर और कोई रहने का स्थान नहीं है- “अयम् आत्मा सन्तो” आत्मा शान्त मौन है।

मौन ही आत्मा है, मौन ही ब्रह्म है, मौन ही सत्य है, मौन ही अमर आत्मा है, मौन ही ईश्वर है। मौन ही इस मन, प्राण और शरीर का आधार है। मौन ही इस ब्रह्माण्ड का क्षेत्र है, मौन ही एक जीवित शक्ति है, मौन ही वास्तविकता है। वह शक्ति जो समस्त ज्ञान से परे है वह मौन है। जीवन का उद्देश्य मौन है, तुम्हारे अस्तित्व का ध्येय मौन है। मौन ही भीतर है। इसको इस बकवादी मन को मूक कर देने से ही जाना जा सकता है। अगर तुम भीतर से अनुभव कर सकते हो तो इसे बाहर भी प्रदर्शित कर सकते हो।

सहारा के रेगिस्तान का संदेश मौन है। हिमालय का संदेश मौन है। कैलाश पर्वत की बर्फ से ढकी हुई उन चोटियों पर रहने वाले नग्न अवधूत का संदेश भी यही है। प्रभु दर्शानामूर्ति का अपने चारों शिष्य सनक, सनातन, सनन्दन और सनतकुमार को यही संदेश था। जब हृदय गदगद हो उठता है, जब अतीव प्रसन्नता होती है तब मनुष्य मौन हो जाता है। मौन की प्रभुता को कौन बखान सकता है।

हार तथा निराशा से खोए हुए विरक्त हृदय के लिए इस मौन से बढ़ कर और कोई उपचार नहीं है। जिनका हृदय गृह क्लेशों तथा जीवन की अन्य-अन्य बातों से विक्षिप्त हो उठता है, उनके लिये इस मौन से बढ़कर शान्तिदायक और कुछ भी नहीं है।

प्रगाढ़ निद्रा में तुम इस मौन के सन्निकट होते हो परंतु तुम अविद्या के क्षीण पर्दे के कारण अलग रहते हो। अर्धनिशा की प्रगाढ़ निद्रा उस मौन का अभ्यास देती है।

मौन स्वर्ण है। मौन शब्दों से अधिक जोर से बोलने वाला है। सन्त और महात्मा बोला नहीं करते। मौन ही व्यवहार का साधन है। जो वास्तव में इच्छुक हैं तथा ऋषि मुनियों के साथ रहते हैं, वही इस मौन का महत्व समझते हैं।

उस महा मौन के भीतर ही तुम्हें प्रभु का अस्तित्व मिल सकता है। नित्य प्रातः चार बजे से मौन व्रत धारण करने का अभ्यास करो, तथा उस समय अपने मन ओर इन्द्रियों को बाह्य पदार्थों से अलग कर दो। ईश्वर की भाषा मूक है। इस मूक भाषा को सीखने की चेष्टा करो। एकाग्रचित्त होकर इस मौन की ध्वनि रहित ध्वनि को सुनो। तुम्हें यह मार्ग बताएगा, यह तुम्हारे सन्देहों को दूर करेगा, यह तुम्हें उत्साहित करेगा। नवजात शिशु से इस मौन का पाठ पढ़ो और ज्ञानी बनो।

आरम्भ में जब चारों ओर अन्धकार था, तब शान्ति थी। मौन सत् है, मौन चित् है, मौन आनन्द है- मौन पवित्र है, सर्व व्यापक है, अमेद्य है और जागृति है। प्रलय के समय माया इसमें बीज की भाँति छिपी रहती है। आरम्भ में महाकल्प ब्रह्म इच्छा करते हैं और उससे स्पन्दन उठती है। उससे तीनों गुणों का समाधान छिन्न-भिन्न हो जाता है। सत्व, राजस और तामस दृष्टिगोचर होते हैं, तब संसार चक्र चलने लगता है। राजस ही इस संसार में इतना कोलाहल तथा चल-चलाहट जाग्रत करता है। राजस वासना है, राजस ही गति है।

साधारणतः निर्वाक बैठना तथा किसी से न बोलना ही मौन है। जब तुम्हारा मित्र तुम्हें नहीं लिखता है तब तुम कहते हो कि न जाने वह बर्फ की भाँति चुप है। जब कोई भाषण देता है और सब निःशब्द सुनते हैं तब हम कहते हैं कि उसने अमेद्य शाँति के बीच भाषण दिया। जब लड़के कक्षा में बहुत शोर मचाते हैं तब अध्यापक कहता है “चुप रहो जी” यह सब शारीरिक मौन है।

अगर तुम दृष्टि को वस्तुओं की ओर से हटा लो अथवा प्रतिहार अथवा दान का अभ्यास करो तब इसे नेत्र विषय का मौन कहेंगे। इसी प्रकार समस्त इन्द्रियों का मौन होता है। अगर कानों से ऐसा किया जाय तो इसे कानों का मौन कहेंगे। इसी प्रकार एकादशी का निर्जला व्रत जिह्वा का मौन कहा जाता है।

परन्तु इस मन का मौन होना आवश्यक है। तुम मौन रख सकते हो, परंतु मन तब भी हवाई किला बना रहा होगा, संकल्प उठ रहे होंगे, चित्त में स्मृतियाँ उठ रही होंगी। कल्पना तक तथा अन्य मस्तिष्क की शक्तियाँ अपने-अपने कार्य दनादन कर रही होंगी। तब तुम्हें वास्तविक शान्ति कहाँ से हो सकती है, मस्तिष्क का काम बन्द हो जाना चाहिये। भीतरी इन्द्रियाँ सब बन्द हो जानी चाहिए। मन की लहरें उठनी बन्द हो जानी चाहिए। मन को ब्रह्म के आनन्द-सागर में शाँति हो जानी चाहिए। तब ही तुम अनन्त शाँति का, मौन का, अनुभव कर सकोगे।

निःसन्देह यह सत्य है कि अभ्यास पर सब कुछ निर्भर है। तुम जानते हो कि अभ्यास ही मनुष्य को सब कुछ बना सकता है। जब तुम अपने उद्देश्य के निकट पहुँचने लगते हो उस समय की प्रसन्नता का ध्यान करो। तुम्हें तब अनन्त शाँति होगी। अमृत को पूर्ण शाँति में- मौन में पीवो जिस प्रकार अमालका का फल हाथ में खुलता है उसी प्रकार मौन में आत्मा के रहस्य एक-एक करके खुलते हैं। अविद्या, माया और उसके फल मोह, भय इत्यादि भाग जायेंगे। उस समय चारों ओर प्रसन्नता होगी, ज्ञान होगा, पवित्रता होगी और अनन्त आनन्द होगा।

मन को पवित्र करो और चिन्तन करो और शाँत रहो। मन को शान्त करो, उठते हुए भावों को ताकि बकवादी विचारों को चुप कर दो। अपने हृदय को भीतरी भागों में ले जाओ और अनन्त शान्ति का अनुभव करो। यह मौन रहस्यमय है। इस मौन में प्रवेश करो। इसे जानो और स्वयं मौन बन जाओ-महामौनी बन जाओ। अब तुम जीवन मुक्त हो गए हो।


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