स्नेह का अर्थ है- त्याग

October 1954

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(कुमारी सावित्री चौहान बी. ए. एल. टी.)

स्नेह एक आध्यात्मिक वस्तु है, शारीरिक नहीं जिसका प्रति रूप जननी की वात्सल्यता में प्रतिबिम्बित है। सच्चा स्नेही व्यक्ति अपने स्नेह का प्रतिदान कभी नहीं चाहता। वह अपने स्नेह-पात्र पर अपना स्नेह अर्पण करके भी उससे कुछ याचना नहीं करता। उसमें तो निःस्वार्थ भावना होती है और होता है देवत्व। उसमें लाभ हानि, रस-नीरसता अथवा हर्ष एवं विषाद का तो प्रश्न उठता ही नहीं। उसका सच्चा सुख स्नेह प्रदान करने में है, भौतिक प्राप्ति में नहीं। देने में ही सच्चा सन्तोष है, लेने में नहीं। अनन्त अन्तरिक्ष के समान निस्सीम एवं विशाल उदधि की उर्मियों सदृश्य शीतल तथा प्रभावशाली स्नेह एक स्वर्गीय विभूति है। वही कारण है कि अनिर्वचनीय स्नेहशील जननी तथा जन्मभूमि का पद स्वर्ग से भी अधिक श्रेष्ठ माना गया है-

“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।”

क्यों स्नेह इसी विचार से किया जाता है कि जीवन रसमय बने? मनुष्य स्नेह को भी अन्य भौतिक पदार्थों की भाँति एक आदान-प्रदान करने का सौदा समझता है और स्नेह की पवित्रता का प्रतिबिम्ब साँसारिक सुखोपभोग की कल्मषता में पर्यलक्षित करने की भयंकर भूल करके अपने आत्मिक विकास के श्रम को अवरुद्ध कर पतनोन्मुख होता है तथा संसार में अपयश का भागी होता है।

यदि मानव रस की ही प्राप्ति के लिए स्नेह करने का अभिनय करता है तो स्नेह का पवित्र नाम कलंकित होता है। रस तो अन्य साँसारिक वस्तुओं से प्राप्त होता है। फिर उसकी प्राप्ति के लिए स्नेह का मिथ्या जाल रचने की आवश्यकता ही क्या? रस की उत्पत्ति तृष्णा से होती है। इस प्रकार रस साँसारिक सुखोपभोग का ही दूसरा नाम है जो कि क्षण भंगुर है, विनश्वर है, चिरस्थायी नहीं। विनश्वर वस्तु मिथ्या है, सत्य नहीं। स्नेह की साधना में वह तीव्र आलोक है जिसके समक्ष विलासिता का वैभव प्रकम्पित होकर अस्तित्व विहीन हो जाता है। इसके विपरीत स्नेह के रूप में मोह तथा विलासिता मानव के पतन का द्वार खोलती है।

स्नेह एक साधना है, एक बलिदान है जो आत्मा को पवित्रता प्रदान करता है और देता है त्याग की भव्य भावना जिससे रस लोलुपता की पिपासा नहीं शान्त होती वरन् आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है। स्नेह व्यथा नहीं देता, देता है सच्चा सन्तोष और अनन्त शान्ति। इसके विपरीत कुछ व्यक्ति स्वार्थ सिद्धि तथा सन्निकटता में ही स्नेह का स्थायित्व देखते हैं। किन्तु, स्वार्थ सिद्धि माया का अल्पकालिक बाह्य प्रदर्शन है तथा सन्निकटता मोह का प्रतिरूप है स्नेह नहीं।

स्नेह और मोह में अन्तर है। एक है सूर्य तो दूसरा है दीपक जिसके अधःभाग में विचार अन्धकार है और जो ज्योति है वह भी समयाधीन एवं क्षणिक। सूर्य सबको आलोक प्रदान करता है एक कर्त्तव्य की साधना के प्रतिरूप में, प्रतिदान की भावना से प्रेरित होकर नहीं। अतः उसका स्नेहालोक सर्वहिताय विश्वव्यापी है। इस प्रकार का रवि-रश्मि तुल्य स्नेह दो ही रूपों में प्राप्त हो सकता है- ईश्वर की कृपा तथा जननी की वात्सल्यता में। मानव श्रद्धा, शक्ति तथा उपासना द्वारा स्वर्गीय स्नेह के ऋण से उऋण होने का दम्भयुक्त प्रयास करता है। ऐसा प्रयास उपहासास्पद है, क्योंकि उपासना तथा भक्ति आदि प्रतिदान नहीं हैं, वह तो उपास्य के प्रति उपासक की कृतज्ञता का प्रकटीकरण नाम है। यह स्नेह के प्रतिदान का स्वरूप नहीं है।

संसार में प्रायः ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो किसी विकसित प्रसूत के रूप रंग पर मोहित होकर उसका रस पान करने के लिए उस पर स्नेह प्रदर्शित करने का अभिनय मात्र करते हैं। उनका वह स्नेह, स्नेह नहीं होता। वह तो एक आडम्बर होता है जिसके अभ्यंतर केवल वासना की तृप्ति की चाह होती है। मधुकर के समान उनकी चंचल चाह मर्यादा की सीमा तक सीमित नहीं रहती। क्या यह वासनागत निकृष्ट तृप्ति की पिपासा का गर्हित स्वरूप नहीं है? माया का मिथ्या जाल नहीं हैं? क्या एक मृग मरीचिका नहीं है जिसके पृष्ठ भाग में धोखे का भयंकर पाश विस्तारित है? आश्चर्य मानव हृदय इसी पाश में छले जाने के लिए आतुर रहता है और इसी वंचना को ही सुखोद्रेक समझता है।

मोह के आवरण में ग्रस्त प्रायः अधिकाँश जन वासना के अन्धकार में भटकने को ही स्नेह की खोज को वे अपने जीवन का ध्येय समझ बैठे हैं। मृग-मरीचिका का अनुगमन करने से केवल निराशा एवं पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ भी हस्तगत नहीं होता। भूले हुए मानव! वासना में तृप्ति कहाँ? रस में शान्ति की शीतलता एवं स्नेह की स्निग्धता कहाँ? रसानुभूति मोह से उत्पन्न क्षणिक तृप्ति होती है, चिरस्थायी स्नेह का सुख नहीं। नैसर्गिक शान्ति प्रदाता स्नेह का निवास निकेतन है- त्याग, बलिदान एवं उपासना की साधना में।


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