लोभ नहीं दान कीजिए।

October 1954

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(संत बिनोवा)

मनुष्य समाज में रहता है इसलिये उसका मुख्य धर्म समाज-सेवा ही है। वही सच्ची भक्ति भी है। सच्ची भक्ति समाज की सेवा में रहती है। सबके हृदय में नारायण हैं। नर, नारी, बालक, हर एक के हृदय में उसका वास है। उसकी सेवा के लिये हमें यह मनुष्य देह मिली है। इस देह का उपयोग समाज सेवा के लिये, दीन-दुखियों के लिये होना चाहिये। अगर ऐसा नहीं करते तो मानव देह का प्रयोजन मिट जाता है। फिर जानवर और मानव देह में भेद नहीं रह जाता। खाना, पीना, प्रजनन, मौत तो सबको आते हैं पर मनुष्य में कुछ और भी आते हैं। इसलिये शास्त्र ने कहा है कि मनुष्य देह दुर्लभ है। अनेक जन्मों की कमाई से मनुष्य देह हासिल होती है। यह क्यों कहा गया था? क्योंकि मनुष्य देह से सेवा हो सकती है। भोग तो जानवर-देह भी करती है पर सेवा मनुष्य देह से ही हो सकती है। मनुष्य अपना शरीर दूसरे के लिये खपा सकता है, परोपकार में लगा सकता है। इसलिये मनुष्य देह दुर्लभ मानी गई है।

आदमी को दौलत छोड़कर जाना होता है पर प्रेम उसके साथ जाता है। प्रेम को लेकर ईश्वर के पास पहुँचते हैं। जिसने जितना धर्माचरण किया परोपकार किया, सत्कर्म किया, उसे लेकर जायेगा। हर एक को ईश्वर के आगे खड़ा होना है। पूछा जायेगा मैंने तुझे जो मनुष्य का चोला दिया था तो तू ने क्या किया? इसलिये हम कहते हैं कि जिसके पास जो है उसका एक हिस्सा जरूर दें। पहले दे, पीछे खायें।

वह कहता है कि मेरे पास है ही क्या और पाँच हजार वाले की तरफ देखता है। पाँच हजार वाला लाख वाले की तरफ और लाख वाला करोड़ वाले की तरफ देखता है। इस तरह से मत्सर ही मत्सर बढ़ता है। हर एक अपने को दुखी ही समझेगा। इसके खिलाफ अगर हम नीचे की तरफ देखें तो सुखी होंगे। एक रुपये वाला आठ आने वाले की तरफ देखे और आठ आने वाला चार आने वाले की तरफ देखे। आठ आने वाला मन में कहेगा कि उसके पास तो चार ही आने हैं, अगर मैं दो पैसे दे दूँ तो उसके साढ़े चार आने हो जायेंगे। जिसके पास एक रोटी है पर जिसे दो की जरूरत हो वह भी देखेगा कि ऐसे लोग भी मौजूद हैं जिनको एक भी रोटी नसीब नहीं है। इसलिये उसका धर्म हो जाता है कि उस रोटी का कुछ हिस्सा उसे दे जिसके पास कुछ भी नहीं है। इस तरह अपने से नीचे की तरफ देखने से उदारता आयेगी, दया आयेगी, प्रेम फैलेगा, धर्म बढ़ेगा। हर कोई समझेगा कि दूसरे को देना धर्म है, धर्माचरण करने की मेरी जिम्मेदारी है।

हम सब एक दूसरे को अपना भाई समझें और उनकी खातिर अपने को मिटा दें। लेकिन वेद तो एक कदम और आगे जाते हैं और कहते हैं कि हम भाई भाई की तरह रहें, ऐसे भाई बने जिसमें न कोई ज्येष्ठ हो न कोई कनिष्ठ हो, न छोटा भाई हो, न बड़ा। सब बराबर हों। गीता ने कहा है कि इस तरह जो समता की दृष्टि रखता है। उसने दुनिया को इसी जन्म में जीत लिया है। दुनिया को जीत लेने की युक्ति है कि समता की कोशिश करें। समता न आये तो हमारी जिम्मेदारी नहीं, उसकी है। अपनी जिम्मेदारी यह जरूरी है कि अपने से जो नीचे हैं उनकी चिंता किया करें।

आपने सुना होगा कि आज कल ‘डेथ-ड्यूटी’ याने मरने पर कर लग गया है। टैक्स याने आपसे पैसा लेकर समाज में लगा देना। इसका मतलब यह होता है कि आपकी जो संपत्ति है उसका काफी हिस्सा सरकार आपके मरने पर ले लेगी। हम पूछते हैं कि जब मरने पर देना है तो मरने के पहले ही क्यों नहीं देते? अगर नहीं देते हो तो इसके माने यह हुए कि लोग आपकी मृत्यु की वासना करें। वे कहेंगे कि जितनी जल्दी मरे उतना ही अच्छा है। इसमें क्या इज्जत है हमारे मरने का दूसरे लोग इन्तजार करें? इससे बढ़कर दूसरा अपमान क्या होगा? जंगल में शेर रहता है, वह जिन्दगी भर क्रूरता करता है। जब बूढ़ा होता है और चल-फिर नहीं सकता तो एक जगह बैठा रहता है। उसके पास पेड़ के ऊपर बैठा हुए कौए उसके मरने की राह देखते हैं। जहाँ उसके प्राण निकले कि उनकी मेहमानी शुरू हो गई। गिद्ध की तरह फिर उस पर लिपट जाते हैं। और उसकी बोटी-बोटी नोंचते हैं। इसी तरह आपके मरने का इन्तजार दूसरे लोग करते हैं। मनुष्य का जीवन इससे बदतर क्या हो सकता है कि हमारी मृत्यु की वासना की जाये। इससे बेहतर यह है कि जीते जी दे डालिए। हर्ष महाराज हर साल प्रयागराज आकर अपनी संपत्ति लुटाते थे। अनेक राजा ऐसा करते थे। हिन्दुस्तान की बादशाहत की खूबी यह थी कि वे तिनके के समाज राज्य को छोड़ कर प्रजा की सेवा में रहते थे। ऐसे महान देश में हम इतने छोटे दिल वाले बन गये कि जीते जी नहीं देते। हम नहीं समझते कि इससे भी बढ़ कर कोई दुर्भाग्य हो सकता है? इसलिये आपसे प्रार्थना है कि छटा हिस्सा देने की छोटी सी माँग को पूरा कीजिये, दिल खोल कर दीजिये और धर्म समझकर दीजिये।


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