गायत्री उपासकों की ऊँची श्रेणी

October 1954

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गायत्री परिवार के सदस्य वे सभी सज्जन बन सकते हैं जिन्होंने पूरा गायत्री साहित्य पढ़ लिया है और नियमित रूप से गायत्री उपासना करते हैं। ऐसे सज्जनों को समय-समय पर मार्ग दर्शन कराने एवं आवश्यक सहयोग देने के लिए यथा सम्भव प्रयत्न किया जाता रहता है। इस प्रकार गायत्री परिवार के सदस्य बन कर अनेकों सुसंस्कारी महानुभाव अपनी आध्यात्मिक और भौतिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते रहते हैं।

इस साधारण सदस्य श्रेणी से ऊंची एक और श्रेणी है जिन्हें गायत्री पुत्र कह सकते हैं। आवश्यक ज्ञान और उपासना के द्वारा जिनकी निष्ठा स्थिर हो गई है वे इस श्रेणी में प्रविष्ट होते हैं।

आरम्भ में साधारणतः अनेक लोग सकाम कामनाओं से गायत्री उपासना की ओर अग्रसर होते हैं। मनुष्य साधारणतः अनेक कामनाओं मुसीबतों चिंताओं और अभावों से घिरा रहता है उनसे छुटकारा पाने के लिये जहाँ अनेक प्रकार के अन्य उपाय किया करता है, उन्हीं में एक उपाय उपासना को भी मान लेता है। गायत्री उपासना से संसार की अन्य समस्त उपासनाओं की अपेक्षा अधिक मात्रा में, अधिक सरलता से और अधिक शीघ्र लाभ होता है, यह एक निश्चित तथ्य है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि प्रत्येक व्यक्ति की, प्रत्येक प्रार्थना गायत्री माता अवश्य ही पूर्ण कर देती है।

अन्य पुरुषार्थों की भाँति उपासना भी एक आध्यात्मिक पुरुषार्थ है। जिस प्रकार अन्य पुरुषों का आवश्यक सत्परिणाम होता है, उसी प्रकार गायत्री उपासना का भी होता है। परन्तु वह परिणाम सबके लिए समान रूप से सुखकर नहीं होता। मान लीजिए एक दानी व्यक्ति प्रसन्न होकर 10 आदमियों को एक-एक हजार रुपया देता है। तो देने की रकम समान होते हुए भी सबको एक समान लाभ न होगा। जिस पर दस हजार रुपया कर्ज था उसे वह एक हजार जो मिला था उसे दे देने पर भी नौ हजार ऋणी ही रहा। कर्जदार उसे पहले की भाँति ही तकाजे नालिश आदि से परेशान करता रहे। जिस आदमी पर एक हजार कर्ज था उसे केवल कर्जदारों से छुटकारा मिला पर घर में कुछ बढ़ोत्तरी न दीखी। जिसके ऊपर कुछ भी कर्ज न था उसे केवल एक हजार नकद दीख रहा है। जिसके घर में पहले से भी कुछ था, उसे यह एक हजार की नई सहायता मिल जाने से और भी उन्नति एवं सुविधा जनक स्थिति प्राप्त हो गई। देने वालों ने चारों को एक सी सेवा पर प्रसन्न होकर एक सा उपहार दिया पर लेने वालों की परिस्थिति भिन्न होने से उनकी स्थिति में परिवर्तन समान रूप से न हुआ। यही बात उपासना क्षेत्र में भी होती है। मानव प्राणी के साथ उसके पूर्व जन्मों के सुकृत दुष्कृतों से उत्पन्न अनेक प्रारब्ध बंधे होते हैं। कृत कर्मों के भोग से इस संसार का कोई प्राणी बच नहीं सकता ऐसा परमात्मा का अटल नियम है। इन प्रारब्धों में उपासना से आवश्यक सुधार तो अवश्य होता है पर हर व्यक्ति अपनी अल्प बुद्धि के कारण उसका अनुभव ठीक प्रकार नहीं कर सकता। जिसके आरम्भ में 10 मन कष्ट हैं उपासना से यदि उसमें से 5 मन कष्ट कम किया तो उस मनुष्य के लिए यह जानना कठिन है कि मेरा 5 मन कष्ट घटा या नहीं, वह तो सामने उपस्थित 5 मन कष्ट देखकर भी बहुत दुख मानता है और अपनी उपासना को व्यर्थ मानता है। कई बार तो वह यहाँ तक कह बैठता है कि यह 5 मन कष्ट उपासना के ही फलस्वरूप आया है, यदि उपासना न करता तो यह कष्ट क्यों आता? दूसरे उपासकों को अधिक लाभ और अपने को स्वल्प लाभ मिलते देख कर भी कई व्यक्तियों के मन में भी कई प्रकार के भ्रम होने लगते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि कभी तो उपासना का विशेष लाभ हुआ और कभी वैसे सत्परिणाम सामने न आ सके ऐसी अवस्था में साधक के मन में अनास्था उत्पन्न होने लगती है।

गायत्री उपासना का मूल एवं सुनिश्चित लाभ आत्म निर्माण, आत्म शुद्धि, एवं आत्म कल्याण है। पर मनुष्य इतना भौतिक, इतना बहिर्मुखी हो गया है कि हर काम में यहाँ तक कि उपासना जैसे विशुद्ध आत्म कल्याणकारी कर्त्तव्य को भी नैतिक लाभ के लिये ही करना चाहता है। पशु में लोभ और भय यह दो की भावना प्रधान होती है, बालबुद्धि का मनुष्य भी एक प्रकार का पशु ही है। उसे कुछ प्रलोभन देकर उपासना मार्ग पर अग्रसर करने के लिये भी ऋषियों ने प्रयत्न किया है। अनेक प्रकार के व्रत, तप, उपासना, अनुष्ठान, पूजन, स्त्रोत, पाठ, तीर्थ यात्रा, कथा श्रवण आदि के बड़े बड़े आकर्षक महात्म्य वर्णन किये हैं, बहुत बहुत लाभ बताये हैं, वो इसलिए कि लोभी मनुष्य कदाचित इसी बहाने उपासना पथ पर आकर्षित होकर आत्म कल्याण में लगे। ऋषियों को आशा थी कि थोड़ी दूर तक सकाम भावना से साधना पथ पर चलने के उपरान्त साधक वस्तुस्थिति को समझ लेगा और उपासना के भौतिक नहीं आध्यात्मिक लाभ को लेने के लिये तत्पर हो जायगा।

पर देखा गया है कि अब मनुष्य का दृष्टिकोण बहुत अधिक स्थूल भौतिक स्वार्थपूर्ण हो गया है। वह उपासना से केवल भौतिक लाभ प्राप्त करना चाहता है। जब तक वह लाभ रहता है तब तक प्रसन्न रहता है और जब उसमें कमी या देरी होने लगती है तो अधीर होकर पूजा पाठ छोड़ बैठता है। वह चाहता है कि कर्म फल, प्रारब्ध पूर्व जन्मों के सुकृत दुष्कृतों का परिपाक आदि के तथ्य तो एक ताक पर उठा कर रख दिये जायें और उपासना के थोड़े से प्रयत्न से उसे मनमानी मात्रा में लाभ प्राप्त होते रहें। यह इच्छा पूर्णतया सफल तभी हो सकती है जब पूर्व जन्मों के फलों की, प्रारब्धों की सनातन व्यवस्था संसार में से उठ जाय। उस उलझन को खो बैठते हैं और इस मार्ग से विमुख हो जाते हैं। गायत्री परिवार के जो सदस्य बनते हैं उनसे से कइयों की ऐसी ही स्थिति हो जाती है। अपने परिजनों के लिये हम भी यथा सम्भव सहयोग करते हैं, माता भी उन्हें सर्वथा निराश नहीं रहने देती। उनकी उपासना के श्रम के मूल से कहीं अधिक लाभ ये किसी न किसी प्रकार दे ही देती हैं, पर वे लोग जो-

पर्वत सम पातक करें, करें सुई को दान। ऊंचे चढ़ कर देखते, कितनी दूर विमान॥

थोड़ा सा पूजा पाठ करके पर्वत सदृश्य प्रारब्ध को टालना चाहते हैं, ‘कन’ देकर ‘मन’ माँगते हैं, सदा ही पूर्ण मनोरथ नहीं हो सकते। हर मनुष्य की हर कामना पूर्ण कर सकना गायत्री क्या-किसी भी देवता, मन्त्र, उपचार, सिद्ध पुरुष के बस की बात नहीं है। सुख और दुख के-हानि लाभ के ताने-बाने से मनुष्य का जीवन बुना हुआ है। यह धूप छाँह हर किसी के जीवन में आती जाती रहती हैं। एक ही प्रकार का समय सदा रहना कभी सम्भव नहीं। इन खट्टी मिट्ठी परिस्थितियों का जिस धैर्य, साहस, विवेक और पुरुषार्थ पूर्वक समाधान हो सकता है उन्हें प्राप्त करना ही उपासना का वास्तविक लाभ है।

एक कक्षा की पढ़ाई के बाद दूसरी कक्षा में चलना होता है, बालपन पूरा होने पर युवावस्था में प्रवेश करना होता है। साधना क्षेत्र के साधारण उपासकों को भी ऊंची कक्षा में चढ़ना चाहिये। सकाम उद्देश्यों तक सीमित रहने वाले उपासना के वास्तविक लाभ को प्राप्त नहीं कर सकते। भिखारी लोग किसी दानी के दरवाजे पर खड़े रहते हैं तो उनकी पात्रता और दानी की दया के अनुसार उन्हें यथा अवसर कुछ मिलता रहता है, पर भिखारियों की हर कामना को पूर्ण करना दानी का कर्त्तव्य नहीं है। भिखारियों की आवश्यकता का समाधान भी दान से नहीं हो सकता। प्रार्थना करने मात्र में जो लाभ प्राप्त होता है वह सीमित होता है। असीम लाभ का अधिकारी वही है जो दानी के साथ आत्म सम्बन्ध स्थापित करके अपने को उसका एक अंग बन लेता है। ऐसी दशा में ही उसे पूर्ण अधिकार प्राप्त हो सकता है। स्त्री अपने पति की और पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति का अधिकारी इसी आधार पर होते हैं कि वह अपने को उस व्यक्ति की इच्छाओं और भावना के अनुसार ढाल कर अपने आपको उसका एक अंग बना लेते हैं। दूसरी श्रेणी के लोगों का भाव तथा कार्य भी यही होता है।

गायत्री उपासकों में आरम्भिक श्रेणी के लोगों की संख्या अधिक होती है। ये लोग लाभ होने पर उत्साहित और लाभ न होने पर निराश हो जाते हैं, भिखारियों की भीड़ दरवाजे पर से हट जाय इसमें ईश्वर को भी सन्तोष ही होता है। पर जो लोग ऊंची श्रेणी के होते हैं अपने भौतिक लाभों की याचना करना छोड़ कर माता पिता की इच्छा और आज्ञा के लिए आत्म समर्पण करते हैं वे उनकी वात्सल्य के सच्चे अधिकारी बनते हैं। ऐसे लोगों को पहला काम यही करना होता है कि माता के मिठाई खिलाने और आपरेशन के लिए डॉक्टर के पास ले जाने में समान रूप से दया, करुणा एवं वात्सल्य का अनुभव होता है वे दोनों ही स्थितियों में श्रद्धालु रहते हैं। अपने लिये कुछ भी-सुख भी-न माँगकर माता के चरणों पर उनके आदर्शों पर अपना जीवन उत्सर्ग कर देते हैं।

गायत्री परिवार के अनेक सदस्य हैं। इनमें से अनेक बालक्रीड़ा में रूठते-भटकते, हंसते-रोते रहते हैं। कुछ उत्साह दिखाते हैं कुछ निराश हो जाते हैं। इस श्रेणी से ऊंची श्रेणी के उपासकों की आवश्यकता है। अपने परिवार में से अब हम दूसरी श्रेणी के लोगों को ढूँढ़ना चाहते हैं। क्योंकि उन्हीं के ऊपर संसार का भविष्य बहुत कुछ निर्भर करेगा और वे ही इस महान शक्ति के वास्तविक लाभों से कुछ प्राप्त कर सकेंगे।

दूसरी ऊंची श्रेणी के लोग अपने किसी स्वार्थ की चिन्ता न करके माता को आत्म समर्पण कर देते हैं और उनके आदेशानुसार अपने जीवन को लगाते हैं। आज गायत्री माता की जानकारी लुप्त प्रायः हो गई है उसकी समुचित प्रतिष्ठा करके अनेक आत्माओं का कल्याण करना माता की सर्वोत्तम सेवा है। उन्होंने हमें भी ऐसा ही आदेश दिया है तद्नुसार एक निश्चित कार्यक्रम में हम लगे हुए हैं। इस दिशा में कन्धे से कन्धा लगा कर काम करने वाले ऐसे साथियों की आवश्यकता है जो दूसरी ऊंची कक्षा में महत्व को समझते हों या समझने में दिलचस्पी रखते हैं।


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