सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिए।

October 1954

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(श्रीमती प्रीतम देवी महेन्द्र)

जो शक्ति पृथ्वी को धारण किए हुए है वह क्रियाशीलता है। यदि पृथ्वी अपनी धुरी पर न घूमे तो वह गिर पड़ेगी। इसी प्रकार यदि हम अपनी क्रियाशीलता परिश्रमशीलता त्याग दें, तो जीवन संग्राम में अवरोध उत्पन्न हो जायेगा। क्रियाशीलता ही हमारे जीवन का सब कुछ है।

रुपये के परिवर्तन में हम सब कुछ पा जाते हैं। पर रुपया वास्तव में क्या है? यह है, हमारा संचित श्रम। श्रम को स्थूल रूप प्रदान कर रुपया, जमीन, जायदाद बना लेते हैं। इसी संचित श्रम से हम दूसरों का विभिन्न प्रकार का श्रम खरीदा करते हैं। यदि यह श्रम के विनिमय की प्रथा रुक जाय, तो संसार का समस्त कार्य रुक सकता है। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति अपने शरीर, मन, बुद्धि के अनुसार समाज का कुछ न कुछ कार्य करता है। किसी का श्रम शारीरिक है। तो किसी का मानसिक रहता हैं। इसी श्रम के आदान-प्रदान से समाज का कल्याण होता है।

क्रियाशीलता प्रकृति में है। हवा और जल तक बिना क्रिया सड़ने गलने लगेंगे चाकू को जितना पड़ा रखेंगे, निष्क्रिय रखेंगे, जंग से नष्ट हो जायेगा। इसी को यदि प्रयोग में लाएं, तो तेज चमकदार और सुन्दर बन जायेगा। ऐसा ही मानव जीवन है। यदि हम अपनी शक्तियों का सदुपयोग करते रहेंगे, तो मन के दुर्विकार, कूड़ा-करकट मैल, दुर्गन्ध, सड़न अव्यवस्था, आलस्य और दारिद्रय नष्ट हो जायेंगे। क्रियाशील रहने से हमारी चैतन्यता, जागरुकता, शुचिता, और सात्विकता की वृद्धि होती हैं। मनुष्य अन्दर और बाहर से स्वच्छ एवं प्रसन्न रहता है।

समय रूपी ताले में परिश्रम रूपी ताली डालने से इस पृथ्वी के सब सुख सम्पत्ति प्राप्त होते हैं। परिश्रमशील व्यक्ति सब कुछ कर सकता है-एक चौपाई का टुकड़ा देखिए-

सकल पदारथ है जग माहीं। कर्महीन नर पावत नाहीं॥

इसमें गोस्वामी जी ने ज्ञान और अनुभव का अखण्ड भण्डार भर दिया है। भगवान ने मनुष्य को संसार में भेजते समय यह क्रम रखा है कि कर्म निष्ठा, और परिश्रमशीलता से ही सब सम्पदाएं प्राप्त हों। विश्व कर्म प्रधान है। जो जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल चखता है। तरह-तरह के फल लोगों को मिल रहे हैं, किसी की आरती उतर रही है, जय ध्वनि बोली जा रही है, यानी प्रतिष्ठा दी जा रही है, प्रशंसा की जा रही है। ये वे व्यक्ति हैं जिन्होंने श्रम द्वारा संसार के समय का उपयोग किया है। श्रम की पूँजी से जो चाहे खरीद लीजिए।

लोग अभावग्रस्त क्यों हैं? वे व्यक्ति जिन्होंने पूरी परिश्रम शीलता से काम नहीं किया है। पूरी निष्ठा नहीं लगाई है। भगवान उसी का फल देंगे, जो आपने किया है। उन्होंने श्रम के ऊपर सब व्यवस्था रखी है। वे परम न्यायकारी हैं वे देखते हैं की कौन सही सही परिश्रम कर रहा है। सही परिश्रम की कसौटी पर ही हमें साँसारिक की मान प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि प्राप्त होती है।

समय और श्रम की उपयोगिता ही मुख्य है। जो काम से जी चुराते हैं, वे मरते हैं, गरीब रहते हैं और पग-पग पर अपमानित होते हैं। जो फालतू आलसी निकम्मे शैतान हैं। वे लड़ेंगे झगड़ेंगे, जुआ खेलेंगे, परेशान, करेंगे। यह शैतान आपके दिमाग पर अधिकार न कर ले, यह सावधान रहें। मन के शैतान को काम दीजिए। शारीरिक श्रम की भी उपेक्षा मत कीजिए। श्रम और सम्पत्ति में कोई अन्तर नहीं है। किसान पृथ्वी की छाती चीर कर भोजन उत्पन्न करता है, मलाह नदी की छाती चीर कर चलता है। जय, प्रशंसा, मान, प्रतिष्ठा, रुपया पैसा, जायदाद यह सब श्रम के पुरस्कार ही है।

महाभारत में एक स्थान पर कहा गया है कि दोनों भुजाओं का कमाया हुआ अन्न हमारे पेट को मिलना चाहिए, बुद्धि की कमाई हमारे मन को मिलनी चाहिए। बुद्धि से लोग अधिक कमा कर प्रायः फालतू अपव्यय करते हैं। शारीरिक श्रम से कम पैसा मिलता है, लेकिन उसके बिगड़ने की भी कम गुँजाइश है। बुद्धि की कमाई धर्म, यज्ञ, दान, पुस्तक क्रय, ज्ञान वर्धन में व्यय होनी चाहिए। हमारी परम्परा ऐसी रही कि राजा जनक तक हल जोत कर जीविका उपार्जन करते रहे। खेती का रुपया पसीने का रुपया है। श्रम का रुपया है। नसीरुद्दीन कुरान लिखकर अपनी जीविका उपार्जन करता था। उसकी पत्नी उसके लिए भोजन की व्यवस्था करती थी। वह टोपी बनाया करता था। बाजार में किसी के यहाँ रखवा कर साधारण मूल्य पर ही उन्हें बिकवाता था। गाँधी और बिनोवा श्रम की प्रतिष्ठा के ज्वलन्त उदाहरण हैं। उनके यहाँ जल तक मनुष्य खींचते रहे। स्वयं अपना काम करते रहे। व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वयं ही परिश्रम करने की जरूरत है।

श्रम मनुष्य की अभूतपूर्व वस्तु है। श्रमदान यज्ञ मनुष्य की श्रम की प्रतिष्ठा का एक जीता जागता रथ है। कर्म ही मनुष्य को ऊपर उठाने वाला है। भगवान स्वयं कर्म रत हैं। वे एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रहते। यदि वे क्षण के लिए कर्म करना बन्द कर दें, तो इस सृष्टि का प्रत्येक कार्य रुक जाय। वे निरन्तर कार्यरत हैं। हम भी उससे शिक्षा लें और अपने अपने ढंग से परिश्रम करते रहें। बच्चे युवक वृद्ध महिलायें सब आयुपर्यन्त कुछ न कुछ श्रम कर सकते हैं।

परिश्रम करने की मूल वृत्ति किसी न किसी विशेष उद्देश्य के लिए प्रयत्न करना है। एक उद्देश्य को रखकर हमें उसकी प्राप्ति के लिए परिश्रम करना उचित है। एक दिशा में प्रबल फल शीघ्र देता है। कई बार सामान्य परिश्रम या संयोग से कोई बड़ी बात हो जाती है। यकायक कुछ व्यक्ति अमीर बन जाते हैं या प्रयत्न विफल हो जाते हैं। लेकिन यह स्थिति असाधारण है। बिना श्रम के आई हुई सम्पत्ति स्वयं निकल जाती है, स्थायी लाभ नहीं होता। फालतू पैसा अभिमान का नशा उत्पन्न करता है। कर्म को कर्त्तव्य समझ कर निरन्तर श्रम कीजिए और भिन्नता से निराश मत रखिये। प्रत्येक क्षण कर्म करते रहने से गुप्त शक्तियों का विकास होता है और जीवन दीर्घ बनता है। जीवन में जो समय की पूँजी पड़ी है, उसे निचोड़ कर तरह-तरह की सम्पदाएं प्राप्त कीजिए।

श्रुति कहती हैं- जीवन एक संग्राम है। इस जीवन में वही विजयी होता है, जो सीना तानकर आफतों का मुकाबला कर सकता है। आफतों की घनघोर घटाओं में बिजली की तरह मुस्करा सकता है, परिस्थितियों का दास न बन कर, उनका दृढ़निश्चयी स्वामी बनता है। जो हट जाना पसन्द करता है, पर झुकना नहीं।

कर्त्तव्य और कर्म को छोड़कर जो कृष्ण कृष्ण जपा करते हैं वे भगवान के द्वेषी हैं, क्योंकि भगवान कर्म करने के लिए ही तो अवतार लेते हैं। मनुष्य की चमत्कारी शक्तियों का विकास कर्म करने से ही होता है।


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