स्वाध्याय और शिक्षा

October 1954

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(श्री यज्ञनारायण चतुर्वेदी)

स्वाध्याय का अर्थ है आत्म-शिक्षण, जिसमें हम आत्म चिन्तन, मनन और अध्ययन का भी समावेश पाते हैं। स्वयं जब हम परिश्रम के द्वारा किसी वस्तु विशेष का समाधान करते हुए उत्तरोत्तर उन्नतोन्मुख होकर किसी नवीन वस्तु की खोज के निष्कर्ष पर पहुँचते हैं तब उसको हम स्वाध्याय द्वारा उपार्जित वस्तु कहते हैं। नवीनता का समारम्भ किसी स्वाध्यायी व्यक्ति द्वारा हुआ और उसकी अविरल तारतम्यता उन्हीं के द्वारा चल रही है। उत्तरोत्तर नवीनता का आविष्कार होने का अर्थ है उन्नति के सोपान पर आरोहण। स्वाध्याय द्वारा प्राप्त ज्ञान वास्तव में ज्ञान होता है। जो ज्ञान हम बलपूर्वक किसी दूसरे से प्राप्त करते हैं वह टिकाऊ कदापि नहीं होता। वह पिंजरबद्ध कीर की नाइ समय पड़ने पर हमारे मस्तिष्क से फूद्दका मारकर उड़ जाता है और पुनः आने का नाम भी नहीं लेता। संसार में जितने महापुरुष हुए हैं उनके जीवन में केवल यही विशेषता रही है कि वे अपने जीवन भर स्वाध्यायी रहे हैं। जैसे-जैसे उनमें स्वाध्याय की मात्रा बढ़ती गई है तैसे तैसे वे संसार में चमकते तथा सफल होते गए हैं।

शिक्षा की पूर्णता स्वाध्याय द्वारा होती है। जिस शिक्षा पद्धति में जितनी ही अधिक ईश्वर प्रदत्त शक्तियों को बढ़ाने की क्षमता होती है वह उतनी ही अधिक सफल कही जाती है-कारण यदि उसके द्वारा हमारी उन शक्तियों का प्रस्फुरण होता है तो स्वाध्याय के द्वारा उन्हीं का तद्रूप विकास ओर परिवर्तन भी होता है। यदि उसके द्वारा हमें किसी शब्द का प्रारम्भिक परिचय मिलता है तो स्वाध्याय द्वारा हम उस शब्द विशेष के अन्तस्थल तक पहुँचते हैं। दोनों में चोली दामन का साथ है। शिक्षा का अर्थ हमें यहाँ लिखने अथवा पढ़ने तक ही सीमित नहीं समझना चाहिए। बालक को यदि माँ- ‘ताई’ और ‘अम्मा’ कहना सिखाती है तो उसे भी हम उसकी प्रारम्भिक शिक्षा ही कहेंगे। एक व्यक्ति जो कि लिखना अथवा पढ़ना नहीं जानता वह भी स्वाध्यायी हो सकता है और स्वाध्याय के द्वारा पढ़ने अथवा लिखने की कला उसे स्वयं आ जाती है। तात्पर्य यह कि आदर्श शिक्षा के द्वारा हम जहाँ स्वाध्यायी हो सकते हैं वहाँ स्वाध्याय द्वारा शिक्षित भी हो सकते हैं। दोनों एक दूसरे के द्वारा साध्य है। अब यहाँ पर यह प्रश्न आप पूछ सकते हैं कि शिक्षितों की संख्या तो पर्याप्त है तो क्या उतने ही स्वाध्यायी भी हैं? इसका उत्तर यही होगा कि यदि उन शिक्षितों की शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं व्यवसायिक आदि शक्तियों का विकास एवं प्रस्फुरण प्राप्त शिक्षा द्वारा हो चुका है तो निःसन्देह वे स्वाध्यायी होंगे। उपर्युक्त शक्तियों के विकास का आधार स्तम्भ शिक्षा विशेष की पद्धति में निहित रहता है। यदि हमारी शिक्षा पद्धति दूषित है तो स्वभावतः हमारी शक्तियों का ह्रास होगा। ऐसी बात नहीं कि कोई भी व्यक्ति उपर्युक्त शक्तियों के बिना संसार में आया हो। सभी में इन शक्तियों का समावेश रहता है। संस्कार और शिक्षा विशेष के द्वारा वे घटती या बढ़ती हैं। जिस तरह से उगते हुए पौधे को बढ़ाने तथा विकास के लिए पर्याप्त मात्रा में जल, रोशनी और हवा आदि न मिलें तो वह तुरन्त ही पीला पड़कर तथा मुरझा कर नष्ट हो जाता है, उसी भाँति हमारी ईश्वर प्रदत्त इन शक्तियों का भी हाल है। यथेष्ट शिक्षा के अभाव में इनका विनष्ट हो जाना स्वाभाविक ही है। उस समय हम कहते हैं कि अमुक लड़का अपने शुरू जीवन में ही ज्यादा और मन्द बुद्धि का है। उसमें किसी भी तरह के काम को करने की क्षमता तनिक भी नहीं है। वहाँ प्रकृति का दोष नहीं- शिक्षा तथा संस्कार विशेष का होता है। किसी वस्तु को देखने की शक्ति तो सभी को प्राप्त हैं, किन्तु निरीक्षण की शक्ति उसी में रहती है जिसकी कि शक्ति शिक्षा तदुपरान्त स्वाध्याय द्वारा विकसित हो चुकी हो। पेड़ से गिरते हुए फलों और पत्तों को आदि काल से ही लोग देखते आ रहे हैं किन्तु सर आइजक न्यूटन ही एक ऐसा व्यक्ति था कि जिसने अपनी निरीक्षण शक्ति के द्वारा इस बात को सिद्ध कर दिखाया कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। अस्तु, लिखने पढ़ने, चलने फिरने, देखने सुनने तथा स्थूल जगत् की व्यवहारिक बातों का ज्ञान तो प्रायः अधिकाँश शिक्षित संज्ञक लोगों में होता ही है किन्तु क्या वे पूर्ण शिक्षित होते हैं? स्वाध्यायहीन शिक्षा व्यर्थ और अनुपादेय होती है और स्वाध्यायी न होता हुआ शिक्षित अशिक्षित ही है।

शिक्षा तथा संस्कार के अतिरिक्त स्वाध्यायी व्यक्तियों में कपित्य अलौकिक गुण भी होते हैं। उनके विचारों में दृढ़ता का होना अत्यन्त आवश्यक होता है क्योंकि स्वाध्याय की साधना करते हुए न मालूम कितनी जगहों से उन्हें विचलित होना पड़ता हैं। कभी-कभी हानि भी उठानी पड़ती है। तब कहीं जाकर उन्हें सफलता मिलती है। सच है सुकार्य सदा ही कष्टसाध्य है। एकलव्य को गुरु जी महाराज किन्हीं शब्दों द्वारा दुत्कार देते हैं। यदि उसमें दृढ़ संकल्पता न होती तो तत्काल ही निरुत्साहित होकर अपने घर लौट जाता। किन्तु नहीं, उसकी स्वाध्यायता और भी अधिक जागृत हो उठती है। फलतः एक दिन वही एकलव्य अर्जुन से भी बढ़ कर धनुर्धर बनकर गुरुजी के सामने आता है। अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि स्वाध्याय में इतनी शक्ति है कि बिना शिक्षक अथवा रास्ता दिखलाने वाले के भी सफलता पूर्वक आगे बढ़ा जा सकता है।

स्वाध्यायी व्यक्तियों में एकाकीपन और लोक कल्याण की भावना अधिक रहती है। यह बात स्वाभाविक ही है कि एकाकीपन में हम अपने मस्तिष्क का सन्तुलन अधिकाधिक कर पाते हैं। कवियों और कलाकारों के जीवन चरित्र को पढ़ते समय हम उनके आरम्भिक जीवन के पन्ने को जब पलटते हैं तो पता चलता है कि एकाकी अवस्था में रहकर घंटों पहले गुनगुनाया करते थे। हाँ, एकाकीपन और प्रकृति का घनिष्ठ सम्बन्ध है। एकाकीपन को पसन्द करने वाला व्यक्ति प्रकृति प्रेमी होता है। प्रकृति का अध्ययन कितना मनोरंजक और ज्ञान वर्धक होता है। निरीक्षण शक्ति प्रधान वाला व्यक्ति सदा प्रकृति प्रेमी ही रहा है। ज्ञान का अगाध समुद्र प्रकृति में वर्तमान है। स्वाध्यायी उसमें डुबकियाँ लगाते हैं और मोतियों की लड़ी निकालते चले जाते हैं- धतूरे में प्राणनाशक शक्ति वर्तमान है, पेड़ से गिर कर पत्ते सीधे जमीन पर ही विश्राम लेते हैं अवश्य पृथ्वी में आकर्ष शक्ति है। आदि आदि।

सदाचार और स्वाध्याय का घनिष्ठ सम्बन्ध है। सच्चरित्र व्यक्ति ही स्वाध्यायी होता है। दुश्चरित्रों में इतनी सामर्थ्य कहाँ कि वे किसी वस्तु विशेष पर अधिक काल तक मनन और अध्ययन कर सकें। उनकी नैतिक शक्ति नष्ट रहती है अतः वे उचित अनुचित तथा तथ्य युक्त और निस्सार वस्तुओं की सम्यक् विवेचना ही नहीं कर सकते हैं। जब उनमें विवेचना करने की शक्ति ही वर्तमान नहीं हैं तो भला वे आगे क्या बढ़ सकते हैं। सदाचार से ही शारीरिक स्वास्थ्य और औद्योगिक प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है। बिना स्वास्थ्य के संसार में हम किसी भी प्रकार की साधना नहीं कर सकते हैं तथा औद्योगिक प्रवृत्ति में हम सदैव आगे बढ़ने से हिचकते रहेंगे।

स्वाध्यायी पुरुषों से युक्त देश का ही भविष्य उज्ज्वल है और वही उन्नतिशील राष्ट्रों के समकक्ष में बैठने का भी अधिकार है। हमें स्वाध्यायी बनाने के लिए हमारी शिक्षापद्धति विशेष रूप से सहयोग प्रदान करती है। शिक्षा की पद्धति ऐसी होनी चाहिए कि हमारी ईश्वर प्रदत्त शक्तियों का विकास हो सके। उन शक्तियों के विकास होने पर हम में उपर्युक्त गुण स्वभावतः आ जायेंगे। आधुनिक शिक्षा पद्धति अत्यन्त दूषित है और हमें निकम्मा बनाने वाली है। आम दिन शिक्षा के ढांचे का पुनः निर्माण होने जा रहा है। क्या हम आशा कर सकते हैं कि स्वाध्याय की प्रेरणा देने वाली वह शिक्षा होगी।


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