आत्म समर्पण की साधना

October 1954

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ममत्व ही बंधन का कारण होता है। जड़ भरत जैसे वीत राग महात्मा का जब मृग शावक पर ममत्व हो गया तो उन्हें उस ममता के बन्धन में बँधकर अगले जन्म में मृग की योनि को भुगतने के लिए बाध्य होना पड़ा था। राजा जनक यद्यपि विशाल राज पाट के स्वामी थे पर ममता के अभाव में वे कर्मयोगी भव बन्धन मुक्त ही रहे।

संसार में शरीर को जीवित रखने के लिए कुछ न कुछ वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती ही है। गृह त्यागी गुफाओं में रहने वाले सर्वत्यागी संन्यासी भी कुछ न कुछ वस्तुएं पास रखते हैं-माला, कमण्डल, कोपीन मृगछाला, सरीखी अनेक वस्तुएं उनके पास रहती हैं। यदि उन्हीं में उनकी आसक्ति हो जाय ममता का बन्धन बँध जाय तो वह तुच्छ सी वस्तुएं ही उन्हें भवबन्धन में बाँधे रह सकती हैं। इसके विपरीत सम्पदा एवं विस्तृत परिवार होते हुए भी कृष्ण जी अपनी अनासक्त वृत्ति के कारण योगेश्वर ही नहीं भगवान तक हो सके।

जीव भव बन्धनों में बंधा हुआ है। यह बन्धन ममता और वासना के हैं। इन्हीं के कारण संस्कार बनते हैं कर्मयोग प्रारब्ध एवं लेन-देन का चक्र चलता है। जिससे आवागमन के बन्धनों में बंधा हुआ जीव चौरासी लाख योनियों में घूमता रहता है। मुक्ति की सभी आकाँक्षा करते हैं। यह मुक्ति इन ममता और वासना के संस्कारों से छुटकारा पाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। इन दोनों से जिसे छुटकारा मिल गया वह शरीर रहते हुए ही जीवन मुक्त है। उसके लिये फिर और कोई बन्धन शेष नहीं रह जाता।

अनेक प्रकार के साधन जप तप तीर्थ यात्रा दान पुण्य व्रत उपासना कथा कीर्तन योगाभ्यास आदि इसी प्रयोजन के लिए किये जाते हैं कि ममता और वासना के बन्धन क्षीण हों। समस्त अध्यात्म साधनाओं का यह एक ही उद्देश्य है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही ऋषियों ने देश काल पात्र के अनुसार अनेक प्रकार के साधन विधानों का निर्माण किया है।

इन अनेक साधनों में एक बहुत ही महत्वपूर्ण सरल, एवं प्रभावशाली उपाय समर्पण है अपनी वस्तुओं को भगवान के समर्पण करके उन्हें प्रसाद स्वरूप उपयोग करना-अपनी सम्पत्तियों को भगवान की धरोहर समझकर उनके मुनीम जैसी अपनी स्थिति रखना-परिवार को भगवान का बगीचा और अपने को उनका माली मानना इन्द्रियों के सन्मुख आये हुए अनायास भोगों से ही सन्तुष्ट रहना-आदि प्रक्रियाएं ऐसी हैं जिन्हें व्यवहारिक जीवन में यदि ढाल दिया जाय तो मनुष्य आसक्ति कामना वासना, चिन्ता, तृष्णा, शोक आदि से छुटकारा पा सकता है। केवल विशुद्ध कर्त्तव्य पालन करते रहने से उसका हर कार्य यज्ञ रूप बन जाता है और साधारण गृहस्थ जीवन यापन भी योग साधना जैसा शुभ फलदायक होता है। इसलिए अध्यात्म विद्या के वेत्ता लोग समर्पण की साधना पर बहुत अधिक जोर देते हैं। योगी अरविन्द घोष ने अपने ग्रन्थों में सबसे अधिक इस बात पर जोर दिया है कि माता के चरणों में यदि जीव सच्चे हृदय से आत्म समर्पण कर दें तो उसे और कुछ करना तथा पाना शेष नहीं रह जाता। गीता में भगवान कृष्ण ने भी पग-पग पर इसी महान प्रक्रिया का संदेश दिया है।

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युँजन्मदाश्रयः।

असंशयं समग्रं माम् यया ज्ञास्यसि तच्छृणु॥

गीता 7/1

हे पार्थ अपना मन मुझ में आसक्त कर, मेरा आश्रय लेकर योग कर, तो निश्चय ही मुझे सम्पूर्ण रूप से जान लेना।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। मय्यर्पित मनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्य संशयम!।

8/7

निरन्तर मेरा स्मरण करता हुआ युद्ध कर। अपना मन और बुद्धि मुझे अर्पण कर देने पर निस्सन्देह तू मुझे ही प्राप्त कर लेगा।

यत्कारोषि यदश्तासि यज्जुहोषि ददासि यत्।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥

8/27

जो कर्म करे, भोग करे, यज्ञ करे, दान दे, तप करे सो सब मेरे अर्पण कर।

मन्मनाभव मद्भक्तो मद्याजी माँ नमस्कुरु।

मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥

9/33

मुझ में मन लगा मेरा भक्त बन, मेरे लिये यज्ञ कर, मुझे नमस्कार कर, मुझ में लग और अपनी आत्मा को मुझ में संलग्न कर। इस प्रकार तू मुझे ही पावेगा।

मथ्येव मन आधस्व मयित्रुंद्धिं निवेशय। निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥

मन को मुझे सौंप बुद्धि का मुझे अर्पण कर, ऐसा करने से तू निश्चय ही मुझे प्राप्त करेगा मेरे में ही निवास करेगा।

सर्व कर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्वयपाश्रयः। भत्प्रसादा वाप्नोति शाश्वतं पद मव्ययम्॥

मुझे आत्म समर्पण करने वाला- सब कर्मों को सदा करते रहते हुए भी मेरी कृपा से अविनाशी परम पद को पाता है।

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत। तत्प्रसादात्पराँ शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम॥

हे अर्जुन! सर्वतोभावेन उस परमात्मा की शरण में जा। उसकी कृपा से तू परम शान्ति और परम धाम को प्राप्त होगा।

सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। अहंत्वा सर्वे पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

सब कर्मों को त्याग कर तू केवल मेरी शरण में आ, तुझे सब पापों से छुड़ा दूंगा। शोक मत कर।

भगवान ने “समर्पण” को सर्वोत्तम साधना के रूप में इसलिए उपस्थित किया है कि इसके द्वारा ममता ओर मोह के बन्धनों पर सीधा एवं तीव्र प्रहार होता है। मकान जायदाद को, पशु को, वस्तुओं को बेच देने पर जब मन में यह भाव समा जाता है कि अब इन पर हमारा स्वामित्व नहीं रहा तो उनके प्रति चिर संचित ममता बात में समाप्त हो जाती है। फिर उसके संबन्ध में चिन्ता करने की कोई बात शेष नहीं रह जाती। कन्या दान कर देने पर पिता की अपनी बेटी के सम्बन्ध में चिन्ताएँ ओर जिम्मेदारियाँ समाप्त हो जाती है। मुनीम को यद्यपि मालिक से अधिक काम करना पड़ता है पर उसे अपने भीतर चिन्ता और परेशानी प्रतीत नहीं होती। राजा हरिश्चन्द्र भंगी की सेवा करते रहे पर उस चाण्डाल कर्म की कोई छाप उनके मन पर न जमी। कैदी जेल में काम करता है पर उसे जेलखाने की जिम्मेदारी का भार नहीं रहता। बालक माता की गोदी में पूर्ण निश्चिंत रहता है। पत्नी पति के घर में जाकर पूर्ण सुरक्षा एवं निश्चिंतता अनुभव करती है।

अपनी वस्तुओं को जितना ही हम समर्पण करते हैं उतना ही दान का महान पुण्य फल आत्म संतोष के रूप में उसी क्षण अनुभव होता है। जब पैसा पाई या छोटी मोटी चीजें किसी को दान करने पर आत्मा में उल्लास अनुभव होता है तो बड़े परिणाम में समर्पण कर देने से तो बहुत भारी संतोष होना निश्चित ही है। भोजन का थाल भगवान को सच्चे हृदय से समर्पण करके यदि यदि उस आहार को भगवत प्रसादरूप से ग्रहण किया जाय तो वह साधारण भोजन भी बड़ा तृप्तिकारक होता है। यदि मनुष्य अपने परिवार को भगवान को अर्पण करके उसका माली मात्र अपने को अनुभव करे तो वह निस्सन्देह उसे वैसा ही आत्म संतोष होगा जैसा किसी अत्यन्त परमार्थरत को होता है। भरत जी ने 14 वर्ष तक राम के खड़ाऊँ गद्दी पर रख कर ऐसा ही राज्य किया था, ऐसा राज्य करने में कितना बड़ा आनन्द आता है। उसे कोई भुक्त भोगी ही जान सकता है। यजुर्वेद ने “तेन त्यक्तेन भुँजीथा” कहते हुए यही रहस्य खोला है कि यदि तुम त्याग करके भोग करो तो संसार में जीवन धारण करने का सच्चा आनन्द प्राप्त हो जाएगा।

वस्तुओं को भगवान को दान करने के क्षेत्र से ऊँचे उठ कर आत्मदान के क्षेत्र तक जा पहुँचने पर तो सब कुछ ही मिल जाता है, राजा बलि ने अपना सर्वस्व शरीर भी भगवान को दे दिया था। इस दान के बाद उन्होंने जो पाया वह उससे कम मूल्य का नहीं है। राजा हरिश्चन्द्र ने राजपाट, स्त्री, पुत्र यहाँ तक कि अपना शरीर भी दे डाला, इसके बदले में जो कुछ उन्हें मिला उससे वे निहाल हो गये। कोई गरीब आदमी अपने लड़कों को किसी धनी को दत्तक पुत्र रूप में दे दे तो वह लड़का उस धनी का पुत्र तो अवश्य बनता है, अपने पुराने पिता से रिश्ता भी तोड़ता है, पर उस नये धनी पिता की विशाल सम्पत्ति का क्षण भर में अधिकारी भी बन जाता है। वधू जब वर के गले में वरमाला पहनाती है तो तत्क्षण पति की सारी सम्पत्ति पर, मनोभूमि पर उसका अधिकार हो जाता है। आत्म दान का महत्व ऐसा ही है। भगवान की शरण में अपने को सौंपने पर मनुष्य उनकी विश्व विभूति का तत्क्षण अधिकारी बन जाता है। दान वस्तुतः अनेक गुनी प्राप्ति करने का एक बड़ा ही प्रत्यक्ष एवं वैज्ञानिक तरीका है।

गत अंक में आत्म त्याग, आत्म दान, आत्म सेवा, आत्म निर्माण की जो चार साधनाएं बताई गई हैं वे आत्म कल्याण की उत्तम एवं सरल साधनाएं हैं। भगवान ने गीता में कहा है-’गायत्री छन्दसामहम्’ वेद मन्त्रों में गायत्री मैं स्वयं ही हूँ। भगवती गायत्री माता को आत्म समर्पण वस्तुतः ईश्वर को ही आत्म समर्पण है। पिता से माता का दर्जा बड़ा है। आदि गुरु माता ही होती है। इस प्रकार पुल्लिंग राम, कृष्ण, विष्णु आदि इष्ट देवों से स्त्री लिंग गायत्री ब्रह्म का दर्जा किसी भी प्रकार कम नहीं ठहरता। सीताराम, राधाकृष्ण, लक्ष्मी नारायण, उमा महेश आदि नामों में पहले माता, पिता पीछे हैं। उनकी गोदी में अपने आपको सौंप कर मनुष्य गीता में कहे हुए आत्म समर्पण के महान लाभों का अधिकारी बन सकता है।

भगवान को आत्म समर्पण कर देने के उपरान्त अन्तरात्मा में बैठा हुआ परमात्मा गुरु रूप में पथ प्रदर्शन करता है परन्तु आरम्भिक साधकों में उतनी क्षमता नहीं होती कि उन सन्देशों को सुन, समझ सके और उनका अनुकरण कर सके। इस आरम्भिक कठिनाई में गायत्री संस्था की ओर से साधकों को सहायता दी जाती है। माता को आत्म समर्पण करने के बाद उनके विचार तथा कार्य किस प्रकार के होने चाहिए इस सम्बन्ध में सदैव पथ प्रदर्शन किया जाता रहता है। जिससे मार्ग दर्शन के अभाव में उनकी प्रगति रुकने नहीं पाती।

जो लोग निरन्तर चिन्ताओं में व्यस्त रहते हैं, नाना प्रकार के जंजालों से जिनका चित्त सदा उद्विग्न रहता है, जो अपने आप को दुखी पीड़ित संत्रस्त अभावग्रस्त अनुभव करते रहते हैं, वे आत्म समर्पण करके अपना सब बोझ माता पर ढाल सकते हैं। मालिकी में कितनी परेशानी है और मुनीमी में कितना आनन्द है जिसने इस रहस्य का अनुभव कर लिया उसे हर घड़ी आनन्द ही और उल्लास ही रहता है। जिस प्रकार भगवत् प्रसाद स्वरूप भोजन करने से वह आहार अमृतमय बन जाता है, उसी प्रकार जीवन को भगवत् अर्पण करके उनके कार्यों, उनके आदर्शों के अनुसार जीवन जीने से भी स्वर्गीय शान्ति का अनुभव होता है। ऐसे जीवन में पाप बहुत कम बन पड़ते हैं, थोड़े में संतोष हो जाता है और निरर्थक कामों में उलझे रहने की अपेक्षा नर देह को सफल बनाने वाले कामों में प्रवृत्ति बढ़ जाती है।

आत्म कल्याण के इच्छुकों को एक सुनिश्चित आधार पर उत्तम जीवन बनाने का यह सुव्यवस्थित कार्यक्रम है। जिन्हें इस ओर प्रेरणा हो वे गत मास के अंक के आधार पर अपने संबन्ध में निश्चय कर सकते हैं। ऐसे संकल्प जितने अधिक होंगे उतना ही संसार का कल्याण होगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118