व्यर्थ की होड़ को तरह दीजिए।

October 1954

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(श्री. दौलतराम कटरहा)

हनुमान जी सीता की खोज में लंका को जा रहे थे। देव, गंधर्व, सिद्ध और ऋषियों ने उनकी बल-बुद्धि की परीक्षा के लिए नाग माता सुरसा को प्रेरित किया। सुरसा ने हनुमान जी का मार्ग रोक लिया और उन्हें सशरीर निगल जाने के लिए अपना मुँह फैलाया। हनुमान जी ने भी उसे विफल मनोरथ करने के लिए अपने योगबल से अपने शरीर को बढ़ाया। हनुमान जी बढ़े तो सुरसा भी बढ़ी। तुलसी दास जी ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि-

जस जस सुरसा बदन बढ़ावा। तासु दुगुन कपि रूप दिखावा॥

कुछ देर तक एक दूसरे को छकाने के लिए योगबल द्वारा अपने-अपने शरीर को बढ़ाने की होड़ चलती रही। किंतु हनुमान जी का लक्ष्य तो उस समय सीता की खोज करना था। वे होड़ के फंदे में फंस जाते तो लक्ष्य भ्रष्ट हो जाते। लक्ष्य विशेष को सम्मुख रख कर आगे बढ़ने वाले व्यक्ति को फिजूल बातों में नहीं उलझना चाहिए। अतएव उन्होंने झट अपने शरीर को छोटा कर लिया और सुरसा के मुख में प्रवेश कर तुरन्त ही बाहर निकल आए। इस प्रकार उन्होंने सुरसा को संतुष्ट किया और अपना कार्य भी पूरा किया।

सुरसा और हनुमान की कथा स्थूल दृष्टि से भले ही कल्पित हो पर एक भिन्न दृष्टिकोण से देखें तो वह सोलहों आने सच मालूम होगी। मानव समाज में सुरसाओं की कमी नहीं हैं। जब दो व्यक्ति झगड़ते हैं तो सुरसा देवी की रूह मानो उनमें उतर आती है। कोई एक बात कहता है तो दूसरा दो कहने के लिए तैयार रहता है। उसने दो कही कि उसका विपक्षी फौरन चार कहने को तैयार हो जाता है। इस प्रकार आपस की बात बढ़ती ही जाती है और परिणाम बुरा होता है। हनुमान जी तो अपने बुद्धि-कौशल से सुरसा से झट निपट गए थे और साधारण लवणार्णव पार कर गए थे लोग सुरसाओं के जाल में फंस कर नहीं, उतरते और विपदार्णव में निमग्न हो जाते हैं। विपदार्णव से तो वही उबरता है जिसमें हनुमान जी जैसी चातुरी और उद्देश्य की एकता होती है। जिसके जीवन का कोई विशेष उद्देश्य नहीं होता वह तो फालतू बातों में फंसकर डूब मरता है।

जब दो व्यक्ति झगड़ते हैं तो कोई भी व्यक्ति अपने को अपने प्रतिद्वन्द्वी से छोटा साबित नहीं होने देना चाहता।

कोई भी दूसरे से अपने को पीछे नहीं रखना चाहता क्योंकि पीछे रहने का अर्थ समझा जाता है पराजय। हार कोई पसन्द नहीं करता, सभी जीत चाहते हैं, फिर चाहें होड़ एक अच्छे काम के करने में होवे अथवा बुरे काम में। बहस करने में होड़, खर्च करने में होड़, बाहरी दिखावे में होड़, फैशन में होड़, सिनेमा देखने में होड़, दूसरों को ठगने में होड़, मुफ्तखोरी घूँसखोरी में होड़, गाली देने में होड़, कामचोरी में होड़, कहाँ तक कहें जीवन के हर भले बुरे क्षेत्र में होड़ लगी हुई है। इस होड़ से कोई विरला भाग्यवान ही बच निकलता है और अपने आपको अपने एक मात्र उद्देश्य की सिद्धि में लगाता है।

किन बातों में प्रतिद्वन्द्विता अच्छी होती है और किन बातों में बुरी, इसका विवेक न रखकर झूठी शान के पीछे लोग मर मिटते हैं। बाजी खाने से मानो चौहानी घटती है, इसलिये कोई पाँव पीछे नहीं देना चाहता। किन्तु बुद्धिमान लोग झूठे बड़प्पन की परवाह नहीं करते, वे तो व्यर्थ की बातों में हार जाना ही पसन्द करते हैं इसलिये जीवन में सफल होते हैं और सुख से रहते हैं। अमुक व्यक्ति ने अपनी लड़की का विवाह इतनी धूम धाम से किया, मैं भी इतनी धूम-धाम से विवाह करूंगा, अमुक व्यक्ति इतने ठाठ-बाठ से रहता है, मैं भी ऐसे ही ठाठ-बाठ से रहूँगा, अमुक व्यक्ति अपनी ड्यूटी के समय में केवल अमुक समय तक ही काम करता है, मैं भी कम समय तक ही काम करूंगा, इस प्रकार की झूठी शेखी में बुद्धिमान व्यक्ति नहीं पड़ते। बुद्धिमान व्यक्ति तो ओछी बातों में हार को गले गलाते हैं और हार कर ही अच्छे अर्थों में जीत जाते हैं। हनुमान जी को हारा हुआ कौन मानता हैं? हनुमान जी के परमाराध्य रामचन्द्र जी ने परशुराम जी से कहा था-

देव एक गुण धनुष हमारे। नवगुण परमपुनीत तुम्हारे।

सब प्रकार हम तुम सनहारे। भारत हूँ पाँ परिय तुम्हारे॥

तो राम को हारा हुआ कौन कहता है? बुद्धिमान लोग तो कहते हैं कि-

“जग जिति हारे परशुधर हारि जिते रघुराउ”

सारे संसार को जीत कर भी परशुराम जी हार गए और अपनी हार को स्वीकार करके भी दशरथी राम जीत गया। अपरंच रावण को विजयी कौन कहता है जिसका कौल था-

“क्या रामचन्द्र से मेरी साहिबी कम है। न दूँगा जानकी जब तक दम में दम है।”

अतएव हमें हार और जीत के सच्चे रहस्य को समझना चाहिए, झूठी शान के लिए नहीं मरना चाहिए और व्यर्थ की होड़ाहोड़ी छोड़नी चाहिए।


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