प्रभु की शरण में-

October 1954

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जब तक मनुष्य का बचपन रहता हैं तब तक वह अपने माता पिता से तरह-तरह की फरमाइशें करता रहता है। छोटा बच्चा अपनी हर जरूरत के लिये माता पिता से फरियाद करता है। बच्चे के छोटे तथा कमजोर होने के कारण माता-पिता उस पर दया करते हैं और उसकी उपयोगी वस्तुओं को जुटाने के लिये यथा सम्भव प्रयत्न भी करते हैं। परन्तु जब बच्चा बड़ा हो जाता है तो उसे वृद्ध माता पिता से अपनी आवश्यक वस्तुएं माँगने में संकोच लगता है। वह सोचता है माता पिता ने मुझे पाल पोस कर जवान बना दिया और सब प्रकार समर्थ कर दिया, अब उनसे सदा माँगते रहना ही मेरे लिये उचित नहीं, अब तो मुझे उनकी सेवा करनी चाहिये, उनकी इच्छाओं और आवश्यकताओं को समझना तथा पूर्ण करना चाहिए। उनकी इच्छाओं और आवश्यकताओं का ध्यान न रखकर युवावस्था में भी उनसे ही अपनी जरूरत की चीजें माँगते रहना उचित नहीं। श्रवण कुमार आदि अनेक मातृ पितृ भक्त ऐसे हुए हैं जिसने अपनी कठिनाइयों की रत्ती भर चिन्ता न करते हुये माता पिता की इच्छा और अभिलाषा पूर्ण करने के लिए अपना जीवन अर्पण कर दिया। यही एक सच्ची सन्तान का आदर्श हो सकता है। निकम्मे लड़के तो बूढ़े माँ बाप को अन्त समय तक त्रास देते रहते हैं और अपने लाभ के लिए उन्हें परेशान करते रहते हैं।

हम सब ईश्वर की सन्तान हैं। परमात्मा ने अनेक प्रकार की सुविधाएं देकर हमें बड़ा कर दिया मानव शरीर जैसा बहुमूल्य वाहन, स्वास्थ्य, बुद्धि, विद्या, परिवार, आजीविका, मित्र आदि साधन देकर इस योग्य बना दिया कि संसार में सभी प्रकार जीवन निर्वाह कर सकें। उसने हमारी अन्तरात्मा में सद्बुद्धि की एक पुकार भी पैदा की है, जिसकी सलाह पर आचरण करने से हमें सदैव सुख और सुविधाएं ही उपलब्ध होती रह सकती हैं। हम करते यह हैं कि उस अन्तरात्मा की पुकार को पग-पग पर ठुकराते हैं- अनुचित मार्ग अपनाते हैं, अनावश्यक इच्छाएं करते हैं, अवाँछनीय तृष्णाओं और वासनाओं का जंजाल अपने ऊपर लाद लेते हैं, इतना सब करने के बाद, इनकी गड़बड़ियों के फल स्वरूप जो नाना प्रकार की परेशानियाँ, चिन्ताएं, पीड़ाएं कमियाँ अनुभव होती हैं इन्हें हमारी मनमर्जी के अनुसार हल करने के लिये परमात्मा से आशा करते हैं और जब वह हमारी उल्टी गतिविधि, उल्टी तृष्णा को पूर्ण नहीं करता तो कभी अपने ऊपर कभी अपने भाग्य के ऊपर, कभी परमात्मा के ऊपर नाराज होते हैं। हम में से अधिकाँश व्यक्ति इसी प्रकार के जंजालों में उलझे रहते हैं। परमात्मा को पुकारते तो हैं पर अपनी ऊटपटाँग गतिविधि से उत्पन्न भोंड़ी समस्याओं को हमारी तृष्णा और वासना के अनुरूप हल करने के लिए पुकारते हैं। शरीर का बचपन समाप्त हो गया पर मानसिक बचपन नहीं जाता।

माता पिता छोटे बच्चे की टट्टी धोते हुए कुछ संकोच नहीं करते पर यदि जवान बेटा पाखाने में टट्टी न जाकर माता से बचपन की भाँति टट्टी समेटवाने की क्रिया करावे तो माता उसके इस कार्य को अनुचित ही समझेगी। जब बेटा समर्थ हो गया तो माता की इच्छा अभिलाषाओं को पूर्ण करने लिए उसे कुछ करना चाहिये था न कि उलटे उसे उन अनावश्यक बातों के लिये परेशान करना-जिनमें से अधिकाँश तो बिल्कुल निरर्थक होती हैं और अधिकाँश ऐसी होती हैं कि मनुष्य अपनी समझ और कार्य प्रणाली में थोड़ा हेर-फेर कर ले तो उन्हें आसानी से हल कर सकता है। पर उतना कष्ट कौन करे। आत्म निरीक्षण, अपनी त्रुटियों को ढूँढ़ना, अपने विचारों आदतों और कार्यों में सुधार करना उस झमेले में पड़ने की बजाय लोग अपनी ओछी इच्छाओं को परमात्मा से पूर्ण करने की मनौती मानते रहते हैं। ऐसे लोगों के प्रति परमात्मा की मान्यता वैसी ही रहती है, जैसी पिता से टट्टी समेटने वाले जवान बेटे के प्रति पिता की रह सकती हैं। हम भक्ति करते हैं, प्रार्थना करते हैं, पूजा करते हैं, पर उसके भीतर जो कुछ छिपा रहता है वह लगभग इसी श्रेणी का होता है। दयालु पिता कई बार हमारी कुछ आवश्यकताएं पूर्ण भी कर देते हैं पर उनके मन में हमारे प्रति कोई सद्भाव उत्पन्न नहीं होता। क्योंकि प्रभु इतना कुछ देने के बाद जवान बेटों से तरह-तरह की फरमाइशों की नहीं, वरन् अपनी इच्छाओं की पूर्ति की आशा रखते हैं। जैसी कि सभी माता पिता अपनी समर्थ सन्तान से रखते हैं।

परमात्मा मनुष्य का बहुमूल्य शरीर हमें इसलिए प्रदान नहीं करता कि हम अपनी आवश्यकताएं, लालसाएं, वासनाएं, तृष्णाएं बढ़ाते जावें और उनकी पूर्ति के लिए दिन-रात परेशान रहने में ही सारा समय लगा दें। मनुष्य जीवन का उद्देश्य यह है कि जीव अपने विवेक को जागृत करके चिर संचित कुसंस्कारों से अपनी मनोभूमि को शुद्ध करे, भव बन्धनों को काटे, दूसरों की सेवा करे और अपने आदर्श चरित्र द्वारा संसार के सामने उदाहरण उपस्थित करके अपनी कीर्ति को अमर करे। इस लक्ष को प्राप्त करने के लिये जो प्रयत्न करते हैं वे ही ईश्वर को प्रिय लगते हैं और उन्हीं को वे अपना सच्चा प्रेम, वात्सल्य तथा अनुग्रह प्रदान करते हैं। ऐसा अनुग्रह प्राप्त कर लेना ही जीवन की सार्थकता है। इस मार्ग पर चलने के लिये मनुष्य को छः कार्यक्रम अपनाने पड़ते हैं। (1) अपनी आवश्यकताएं कम से कम रखना, (2) अपनी वस्तुओं को ईश्वर की वस्तु समझ कर अपने को उनका ट्रस्टी संरक्षक मात्र समझना, (3) सामने उपस्थित कठिनाइयों से परेशान न होकर उन्हें विवेक पूर्वक सुलझाना-जो न टल सकें उन्हें प्रारब्ध भोग समझकर धैर्य पूर्वक सहना (4) मन को भगवान में लगाये रखने के लिए भजन साधन करना, (5) अपने कुविचारों, दुर्गुणों, तथा अकर्मों को हटाने तथा घटाने के लिए निरन्तर प्रयत्न करना, (6) दूसरों की भलाई के लिए कुछ न कुछ काम ईश्वर की सेवा समझकर नित्य ही करते रहना। जो व्यक्ति इन छः कार्यक्रमों को जितने अंशों में अपनाता हैं, वह उतना ही भगवान का भक्त है। परमपिता उससे उतना ही प्रसन्न और सन्तुष्ट रहता है। जिसके कार्य इन छः बातों से जितने ही विपरीत हैं समझना चाहिये कि वह ईश्वर की उतनी ही अवज्ञा कर रहा है और उसका कोप भाजन बन रहा है।

सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त करने का अलभ्य अवसर प्राप्त करने के पश्चात् सबसे बड़ी बुद्धिमानी यह है कि अपने आपको भव बन्धनों से मुक्त करने के लिए सच्चे हृदय से और पूरी सावधानी के साथ लग जायें। शरीर को जीवन यात्रा के प्रयोजनों में और मन को भगवान में लगाये रहें। सत्कर्मों के द्वारा अपना आदर्श उज्ज्वल करना- प्रभु के बगीचे संसार को अधिक सुरम्य बनाने के लिये निरन्तर लोक सेवा एवं परमार्थ के कार्यों में संलग्न रहना यही जीवन का सर्वोत्तम सदुपयोग है। भगवान हम से ऐसी ही आशा रखते हैं। वे सब कुछ देकर हमें समर्थ इसलिये बनाते हैं कि हम उनके आदेशों और प्रयोजनों को पूरा करें। तृष्णाओं और वासनाओं को बढ़ाते रहकर नाना प्रकार की कामनाएं करते रहना ईश्वर को प्रसन्न करने का नहीं नाराज करने का तरीका है।

राजा अपने सेनापतियों और मंत्रियों से अधिक प्रसन्न रहता है क्योंकि वे उसके शासन की व्यवस्था ठीक रखने और राज्य बढ़ाने में सहायक होते हैं। ईश्वर के सेनापति और मंत्री वे हैं जो उसके आदेशों और उद्देश्यों को संसार में प्रतिष्ठित करने के लिए अपने जीवन को अर्पण करते हैं। यों राजा के द्वार पर भिखारी राजा के व्यक्तिगत प्रेम के अधिकारी नहीं हो सकते। क्योंकि संसार का यही नियम है कि “माँगने वाले को तिरस्कार और देने वाले को सम्मान मिलता हैं।” ईश्वर ने हमें बहुत कुछ दिया है अब हमारी बारी है कि हम उसे कुछ दें। ईश्वर की शरण में अपने को अपूर्ण करके उसके आदेशों तथा उद्देश्यों की अपने में, समस्त संसार में, मानव मात्र में स्थापना करने के लिए श्रद्धा और तत्परता पूर्वक संलग्न हों। यह गतिविधि अपनाने के पश्चात् हमारा कल्याण सुनिश्चित हो जाने में कोई सन्देह नहीं रहता।

इस ईश्वरार्पण संकल्प के लिए-आत्मदान के लिए भावना वाले चैतन्य आत्मा वाले सक्रिय सत्पुरुषों के लिए एक आज की देश, काल, पात्र, की स्थिति के अनुरूप सुव्यवस्थित योजना सर्वसाधारण के सामने उपस्थित है। गत अंक में नरमेध एवं आत्मदान के नाम से इसका कार्यक्रम रखा जा चुका है। जिन्हें प्रेरणा हो वे उनमें से किसी अपने को प्रविष्ट कर सकते हैं।


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