(श्री लक्ष्मी प्रसाद जी रमा, हटा)
“ब्रह्मचर्येण विद्या विद्यया ब्रह्मलोकम्।”
“वीर्य रक्षा के द्वारा ही विद्या प्राप्त होती है और विद्या पढ़ने से ही मनुष्य ब्रह्म लोक का सुख पाता है।”
ऊपर के मन्त्र में यह बात कही गयी है, ब्रह्मचर्य ही विद्या का मूल है बिना ब्रह्मचर्य के उपलब्धि नहीं हो सकती, ब्रह्मचर्य और विद्या में वृक्ष और शाखा के समान सम्बन्ध है, यही कारण है कि ब्रह्मचर्य के द्वारा ही विद्या का अध्ययन करने का नियम प्राचीन काल से प्रचलित किया गया था, ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य की अवस्था ही में वेद वेत्ताओं का अभ्यास कर लेते थे और जब तक विद्या प्राप्त नहीं हो जाती थी गृहस्थाश्रम में पैर नहीं रखते थे, जो विद्या ब्रह्मचर्य के द्वारा गृहीत होती है वह कभी स्खलित नहीं होती, वीर्य के प्रभाव से ज्ञान के गूढ़ तत्वों का शीघ्र ही हृदयंगम हो जाता है, विद्यार्थी की धारणा शक्ति सदा जागृत और तीव्र रहती है। जिससे कि वह थोड़े ही अभ्यास से विशेष लाभान्वित होता है, जो लोग ब्रह्मचर्य युक्त विद्या अध्ययन करते हैं वे ही उच्च तथा यशस्वी विद्वान बन सकते हैं और उन्हीं की विद्या में वैज्ञानिक तथा गणित सम्बन्धी नवीन-नवीन आविष्कार करने की शक्ति उत्पन्न होती है-
कहने का अभिप्राय यह है कि विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य के पालन से विद्या और दीर्घ जीवन प्राप्त हो सकता है, जो जितना ही दीर्घ जीवी होना चाहता है वह उतना ही वीर्य की रक्षा करे, वीर्य का व्यय ही जीवनी शक्ति का प्रधान नाशक है प्राचीन अथवा अर्वाचीन समय में एक भी व्यभिचारी पुरुष दीर्घजीवी होते नहीं देखा गया, इतिहास में दीर्घजीवी पुरुषों के जीवन चरित्र के पढ़ने में वह बात पूर्ण रूप से सिद्ध हो चुकी है कि व्यायाम और ब्रह्मचर्य के पालन से ही उनको विद्या और दीर्घजीवन प्राप्त हुआ था, आज भारत को इसी की जरूरत है, इसके प्रत्येक युवक युवतियों को व्यायाम और ब्रह्मचर्य के द्वारा बल-संचय करने की ओर सबसे पहले ध्यान देना चाहिये, इससे ओजबल, तेज और प्रताप बढ़ता है, जो ‘ओजबल’ के आश्रित न हो अथवा जो इसका कोई अन्य स्थूल व सूक्ष्म रूप न हो, यह ओजबल, स्मरण-शक्ति, संकल्प शक्ति व मेधा और मस्तिष्क-शक्ति को बढ़ाता और शरीर को पुष्ट करता, वीर्य बल और पराक्रम प्रदान कर शरीर की पूर्ण शुद्धि कर देता है, इसका सुदृढ़ अभ्यास शरीर में नवयौवन का संचार करता है स्नायुओं को नवीन बल देता है और साधकों को ‘कायाकल्प’ की पूर्ण सुविधा प्रदान करता हुआ इस योग्य बना देता है कि वे मनुष्य जीवन की नित्य की ही संग्राम भूमि में, प्रारब्धगत सभी कठिनाइयों और विघ्न बाधाओं का सामना हर्षपूर्वक कर सकें।
अखण्ड ब्रह्मचर्य के दिव्य ओजबल से सुरक्षित और सुदृढ़ बना हुआ मनुष्य, योगी व ज्ञानी लक्ष्मण की तरह अखिल विश्व को कौतुक में ही चलायमान और कल्पित कर सकता है, समुद्र की गति को रोक सकता हैं, पहाड़ को फूँककर उड़ा सकता है, प्रकृति को अपनी दासी बना सकता हैं? संसार में ऐसा कौन सा दुष्कर कार्य है जो वह नहीं कर सकता, इस “ओजबल” के ही प्रताप से शरण में आयें हुए, धर्म रूपी कपोत की रक्षा के लिए राजा ‘शिवी’ ने इन्द्र को सभी अंग काट-काट कर अपना समस्त शरीर, तुला पर रख दिया था, देवासुर संग्राम में, देवताओं की जय और असुरों की पराजय के लिए “दधिचि” ने अपनी हड्डी ही देवताओं को दान कर दी थी, और प्रातः स्मरणीय महाराजा हरिश्चन्द्र ने, सत्य की परीक्षा में महर्षि विश्वामित्र को दिये हुए साम्राज्य की दक्षिणा चुकाने के लिए, अपने प्राण से भी प्यारे पुत्र रोहिताश्व और राज महिषी शैव्या को एक वेश्या के हाथ और अपने को चाण्डाल की वृत्ति के लिये ही सहर्ष बेच दिया था।
भगवान के अनन्य भक्त भीष्मपितामह ने अपने पिता के विषय वस्तु के लिये जीवन पर्यन्त ब्रह्मचारी रहने की ही भीष्म प्रतिज्ञा करके, अपने “देवव्रत” नाम को भीष्म रूप से ही चरितार्थ कर दिखाया, जिसके कारण स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने अपने भक्त भीष्म की प्रतिज्ञा निबाहने के लिए, महाभारत के युद्ध में राजा दुर्योधन को दी हुई शस्त्र ग्रहण न करने की अपनी प्रतिज्ञा ही तोड़ दी।
भगवान राम के सेवक और अनुचर बाल ब्रह्मचारी हनुमान लंका तक पहुँच जाने के लिए स्वयं भगवान राम को जिस समुद्र पर सेतु निर्माण करना पड़ा था उसे योंही सहज तैरकर पार कर गये थे।
राम-रावण संग्राम में “मेघनाथ” वध के लिए लक्ष्मण जी ने वनवास के 14 वर्ष बिना अस्त्र और नींद के ही बिता दिये, गाँडीव धनुषधारी महावीर अर्जुन को उर्वशी जैसी अप्सरा ब्रह्मचर्य व्रत से डिगा नहीं सकी, इस प्रकार “ब्रह्मचर्य” और “ओजबल” की महिमा का अन्त नहीं हैं।