हमारी अतृप्ति और असंतोष का कारण।

January 1950

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मनुष्य आवश्यकताओं का एक पुलिंदा है। उसके जन्म के साथ आवश्यकताओं का सम्बन्ध है और मृत्यु पर्यन्त आवश्यकता तथा उनकी पूर्ति का कुटिल चक्र अविराम गति से चलता रहता है। मनुष्य संसार की विविध वस्तुओं का उपभोग इसीलिए करता है कि उसकी कुछ आवश्यकताएँ होती हैं। हम कार्य तथा उद्योग इसी लिए करना चाहते हैं कि हमें अर्थ लाभ हो और हम अपनी-आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। प्रतिदिन प्रातःकाल हम उठ कर सायंकाल तक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के विविध साधन एकत्रित किया करते हैं।

इच्छा और आवश्यकता में यथेष्ट अन्तर है, यद्यपि अनेक व्यक्ति एक ही अर्थ में इनका प्रयोग करते हैं। इच्छा का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। हम नाना प्रकार की वस्तुएं देखते हैं और लुभा कर उनकी इच्छा करने लगते हैं। ऐसी ही एक इच्छा हमारी आवश्यकता भी है। आवश्यकता केवल ऐसी इच्छा है जिसके बिना हम रह नहीं सकते, जिसके लिए हमारे पास पर्याप्त साधन हैं और जिसे प्राप्त करने से हमारी तृप्ति हो सकती है। कुछ आवश्यकताएं रुपये पैसे से, और कुछ उसके बिना भी पूर्ण हो सकती हैं। अनेक बार रुपये पैसे की कमी श्रम द्वारा पूर्ण हो जाती है।

आवश्यकता और उद्योग का घनिष्ठ सम्बन्ध है। आप जितना ही अपनी आवश्यकताएं बढ़ायेंगे, उतना ही उद्योग, परिश्रम और कष्ट आपको रहेगा। प्रत्येक आवश्यकता अपने साथ उद्योग की कुछ मात्रा चाहती है। यदि आपकी आवश्यकताएं थोड़ी हैं, तो आप आसानी से, थोड़े ही रुपये और श्रम से संतुष्ट और तृप्त हो सकते हैं। आधुनिक काल में फैशन परस्त तथा असंयमी व्यक्तियों ने अपनी आवश्यकताओं में वृद्धि की है। फलतः उनका जीवन संकट में है।

महंगाई पर विजय-

महंगाई से बचने का एक उपाय है। आप अपनी आवश्यकताओं का अध्ययन करें। जो आराम, विलास, या फैशन की वस्तुएं हैं, उन्हें तुरन्त त्याग दें। अनावश्यक टीपटाप, दिखावा, सौंदर्य प्रतियोगिता, मिथ्या आडंबर, टायलेट का सामान, मादक द्रव्यों का सेवन छोड़ दें। नौकर छुड़ा दें और स्वयं उनका कार्य करें। अपने छोटे मोटे कार्य-कमरे की सफाई, जूता पालिश, साधारण कपड़े धोना, बाजार से सब्जी लाना, बच्चों या पत्नी को पढ़ाना, अपनी गाय भैंस की देख रेख-स्वयं कर लिया करें। सोने चाँदी के गहने कुछ वर्ष के लिए न बनवायें। पुस्तकें न खरीदे प्रत्युत किसी अच्छे स्थानीय पुस्तकालय के मेम्बर बन जाय। समाचार पत्र पड़ोसी के यहाँ से माँग कर पढ़ लिया करें। फाउन्टेन पेन के स्थान पर एक आने के साधारण होल्डर और दो पैसे की दवात से काम निकाल लें। बिजली के पंखे की जगह एक आने का हाथ का पंखा खरीद लें। मिट्टी के तेल की लालटेन का उपयोग पुनः करने लगें। यदि आप दफ्तर में इक्का या मोटर में बैठ कर जाते हैं, तो उसे त्याग दीजिये। पैदल ही टहलते-2 चले जाया कीजिये। इससे पैसे भी बचेंगे और कसरत होने से पेट की अनेक बीमारियों से आप बचे रहेंगे।

आप बढ़िया सिल्क या रेशम के वस्त्र न पहनें साधारण खादी के सस्ते कपड़े से काम चला लें, कपड़ों को कम मैला कर अधिक चलावें, कम वस्त्रों से ही अपना काम निकाल लें। उन्हें बड़ी सावधानी से रक्खें। भारतवर्ष का जलवायु ऐसा अच्छा है कि एक कुरते धोती या नेकर से सम्पूर्ण दिन मजे से कट सकता है। आमोद-प्रमोद, विशेषतः सिनेमा जाना बिल्कुल छोड़ दें। आपको महंगाई न सतायेगी। महंगाई इसी लिए प्रतीत होती है कि आपकी कृत्रिम आवश्यकताएं अनियंत्रित रूप से बढ़ी हुई हैं तथा आप अपनी वास्तविक आवश्यकताओं को नहीं जानते। मनुष्य की असली जरूरतें तो इतनी कम हैं कि बड़ी से बड़ी महंगाई में भी बखूबी पूर्ण हो सकती हैं।

मनोनिग्रह-सफलता की कुँजी-

जैसे-2 महंगाई में वृद्धि हो, आप मोटी-2 आवश्यकताओं की पूर्ति और बढ़ी हुई कृत्रिम आवश्यकताओं को त्यागते जाइये। खुद परिश्रम कीजिये आलस्य को त्याग कर पुरुषार्थ को खोज निकालिये। आपकी गुप्त सामर्थ्य बहुत कुछ करने में समर्थ है। स्मरण रखिये, मनुष्य की जरूरतें अपरिमित हैं, उनकी गिनती कठिन है। सब की पूर्ति असंभव है। कुछ को तो त्यागना होगा ही। अतः अपनी आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार अपनी आवश्यकताओं में कटौती करते चलिये। कई इच्छाएं ऐसी हैं जिनकी पूर्ति नहीं हो सकती, जैसे धन की इच्छा, अधिकार की इच्छा, मकान या अधिक भूमि प्राप्ति की इच्छा। सौंदर्य की इच्छा की भी तृप्ति असंभव है। कई आवश्यकताएं ऐसी होती हैं, जो परस्पर एक दूसरे की पूरक होती हैं। आप फाउन्टेन पेन लेते हैं, तो उसी की रोशनाई लेनी होगी, टेनिस खेलते हैं, तो गेंद भी लेनी होंगी, स्टोव के साथ तेल लेना होगा इत्यादि। इनके फेर में बड़े सोच समझ कर पड़ना चाहिए।

आवश्यकताओं को मर्यादा से बढ़ा देने का नाम अतृप्ति और दुःख है उन्हें कम कर पूर्ति करने से सुख और सन्तोष प्राप्त होता है। मनुष्य एक ही प्रकार के सुख से तृप्त नहीं रहता। अतः असंतोष सदैव बना रहता है। वह असंतोष निंदनीय है जिसमें किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए मनुष्य दिन रात हाय-हाय करता रहे और न पाने पर असंतुष्ट, अतृप्त, और दुःखी रहे।

तृष्णाएं एक के पश्चात् दूसरी बढ़ेगी। एक आवश्यकता की पूर्ति होगी, तो दो नई आवश्यकताएं आकर उपस्थित हो जायेंगी। अतः विवेकशील पुरुष को अपनी आवश्यकताओं पर कड़ा नियंत्रण रखना चाहिए। इस प्रकार आवश्यकताओं को मर्यादा के भीतर बाँधने के लिए एक विशेष शक्ति-मनोनिग्रह की जरूरत है।

एक विचारक का कथन है-“जो मनुष्य अधिकतम संतोष और सुख पाना चाहता है, उसको अपने मन और इन्द्रियों को वश में करना अत्यन्त आवश्यक है। यदि हम अपने आपको तृष्णा और वासना में बहायें, तो हमारे असंतोष की सीमा न रहेगी।”

अनेक प्रलोभन तेजी से हमें वश में कर लेते हैं, हम अपनी आमदनी को भूल कर उनके वशीभूत हो जाते हैं। बाद में रोते चिल्लाते हैं। जिह्वा के आनन्द, मनोरंजन आमोद प्रमोद के मजे हमें अपने वश में रखते हैं। हम सिनेमा का भड़कीला विज्ञापन देखते ही मन को हाथ से खो बैठते हैं और चाहे दिन भर भूखे रहें, अनाप-शनाप व्यय कर डालते हैं। इन सभी में हमें मनोनिग्रह की नितान्त आवश्यकता है। मन पर संयम रखिये। वासनाओं को नियंत्रण में बाँध लीजिये, पॉकेट में पैसा न रखिये। आप देखेंगे कि आप इन्द्रियों को वश में रख सकेंगे।

आर्थिक दृष्टि से मनोनिग्रह और संयम का मूल्य लाख रुपये से भी अधिक है। जो मनुष्य अपना स्वामी है और इन्द्रियों को इच्छानुसार चलाता है, वासना से नहीं हारता, वह सदैव सुखी रहता है।

प्रलोभन एक तेज आँधी के समान है जो मजबूत चरित्र को भी यदि वह सतर्क न रहे, गिराने की शक्ति रखती है। जो व्यक्ति सदैव जागरुक रहता है, वह ही संसार के नाना प्रलोभनों आकर्षणों, मिथ्या दंभ, दिखावा, टीपटाप से मुक्त रह सकता है। यदि एक बार आप प्रलोभन और वासना के शिकार हुए तो वर्षों उसका प्रायश्चित करने में लग जायेंगे।


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