हमारी आर्थिक कठिनाईयाँ कैसे दूर हों?

January 1950

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वर्तमान आर्थिक संकट से मुक्ति का एक मात्र उपाय है-मितव्ययिता। इसका जन्म सभ्यता के साथ-साथ हुआ है मनुष्यों को तब इस महान् गुण का ज्ञान हुआ जब उन्हें आज के संतोष के साथ “कल की चिंता” हुई। मितव्ययिता का जन्म मुद्रा के जन्म से पूर्व हुआ है।

“मितव्ययिता” का अर्थ है व्यक्तिगत रूप से किफायतशारी। इसमें घरेलू आय-व्यय, बचत, और भविष्य के लिए कुछ रखना शामिल है इसका मूल अभिप्राय मनुष्य को अधिक से अधिक सुखी बनाना, उन्नति और विकास के अवसर प्रदान करना, और व्यक्ति के साथ-साथ राष्ट्र की धन सम्पत्ति की अभिवृद्धि करना है।

धन की वृद्धि परिश्रम से होती है। यदि किसी के पास धन कम है तो इसका दूसरा अर्थ है कि उसने परिश्रम कम किया है, या कर रहा है। अधिक श्रम का अर्थ है-अधिक धन। धन को मितव्यय से खर्चे करने से बचत होती है। यही बचत धीरे धीरे पूँजी बनती है, जिससे बड़े व्यापार चलते हैं।

धन संग्रह करके रखने की वृत्ति स्वभाविक वृत्ति नहीं है। यह तो अनुभव, उदाहरण तथा भविष्य को कठिनाइयों से बचने की इच्छा से उत्पन्न होती है। चतुर और बुद्धिमान अपने धन को बड़ी सतर्कता से एकत्र कर रखते हैं। ज्यों-ज्यों मनुष्य चतुर और अनुभवी होता रहता है, त्यों-त्यों वह मितव्ययी बनता चलता है, मनोनिग्रह से अपनी कृत्रिम आवश्यकताओं को दूर करता, और वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, प्रलोभनों से बचता है, और धन को उठाकर कल के लिए रख छोड़ता है।

मितव्ययिता और कंजूसी में बड़ा अन्तर है। मितव्ययी समझदारी से उचित स्थानों पर जितना व्यय करना चाहिए, खर्च करने से नहीं चूकता, कंजूस उचित खर्चों-खाना, पहिनना, साफ मकान-में भी धन व्यय नहीं करता। हम कंजूसी से घृणा करते हैं। कंजूस में धन संग्रह की अतृप्त इच्छा रहती है, मितव्ययी धन को एक साधन मात्र समझता है और उससे अधिक से अधिक आनन्द प्राप्त करता है।

जो आदमी केवल आज के लिए जीता है, कल की चिंता नहीं करता, इन्द्रिय सुखों और शारीरिक वासनाओं की तृप्ति के लिए आमदनी से अधिक व्यय करता है, वह इन्द्रियों का गुलाम है। वह पशु के समान नीच वृत्तियों में फंसा हुआ है। इन्द्रियाँ उसके वश में नहीं, वह स्वयं इन्द्रियों और वासनाओं का दास है।

बिना पढ़े-लिखे आगा पीछा न सोच कर खर्च करते हैं। महीने में कठिनता से निर्वाह हो पाता है। कुछ व्यक्ति थोड़ा-थोड़ा मितव्यय से जोड़कर धनी हो जाते हैं। मितव्ययी आवश्यक खर्चे अवश्य करता है। अतिथियों की सेवा, परिवार का भरण-पोषण, बच्चों की शिक्षा, विवाह इत्यादि, बीमारी, अकाल, मुकदमा, सभी कुछ का विधान रखता है किन्तु उसके सब खर्च मर्यादा के भीतर ही रहते हैं। वह अपने द्रव्य का पूरा-पूरा लाभ उठाता है।

आर्थिक कठिनाइयों से बचने के दो मुख्य उपाय हैं-(1) अपनी आय वृद्धि कीजिये। जितना प्रयत्न और परिश्रम आप इस समय कर रहे हैं, उससे अधिक कीजिये। नये कारबार, छोटे मोटे काम, मजदूरी दूसरों की सहायता, दूसरों के पत्र व्यवहार, टाइप का काम, अखबारों के दफ्तरों में कार्य कीजिये, बच्चों को पढ़ाइये, छोटी दुकान कीजिये, रात्रि पाठशालाओं, या सिनेमा में कोई नौकरी कीजिये। धन के लिए अधिक से अधिक प्रयत्न कीजिये, योजनाएं बनाइये।

(2) दूसरा उपाय यह है कि जीवन की जिन आवश्यकताएं के लिए पैसे की जरूरत है, उन्हें कम कीजिये। जितनी कम आवश्यकताओं रहेंगी, आप उतनी ही शक्ति बचा सकेंगे। इस बची हुई शक्ति के बहुत से उपयोग हो सकते हैं। जितनी कम आमदनी है, उससे भी कम आपकी आवश्यकताएं होती जानी चाहिए। शान-शौकत, विलास, और ऐशोआराम तो बिल्कुल त्याग देने चाहिये।

मजदूर लोग प्रायः कमाते बहुत अधिक है किन्तु चूँकि वे आमदनी के अनुपात में आवश्यकताएँ नहीं घटा पाते, वे गरीब ही दीखते हैं। प्रायः मद्यपान, और बिना बजट में रुपया खर्च करने की आदत उनका सत्यानाश कर देती है। वे बीमार अधिक रहते हैं, उन्हें आलस्य अधिक दबाता है, उनका घरबार गन्दा और उनका दैनिक काम अस्त-व्यस्त रहता है। उनकी शारीरिक और मानसिक दशा सोचनीय होती है। यदि ये जरा संयम और मनोनिग्रह का अभ्यास करें, और सादा जीवन व्यतीत करें, तो काफी सम्पन्न हो सकते हैं। मितव्ययिता का अभ्यास उन्हें ऊँची तरह का जीवन प्रदान कर सकता है।

जो लोग “हम रुपया नहीं बचा सकते।” महंगाई मारे डालती है, कहते फिरते हैं, वे वास्तव में अपनी कृत्रिम आवश्यकताएँ कम करना नहीं चाहते, न अधिक प्रयत्न और परिश्रम से वस्तुओं के चढ़ते हुए मूल्य के अनुपात में आमदनी ही बढ़ाना चाहते हैं। कैसे शोक का विषय है कि हम लोगों ने अपने व्यक्तिगत व्यय आवश्यकता तथा आमदनी से अधिक बढ़ा लिये हैं।

जब आप रुपये के लिए दूसरे के सन्मुख हाथ फैलाते हैं तो स्मरण रखिये, आप दूसरे की मजदूरी हड़पना चाहते हैं। साथ ही अपनी आत्मप्रतिष्ठा, पौरुष, मान, प्रसन्नता भी दूसरे के हाथ बेचते हैं। माँगने से आपके चरित्र की कमजोरी और दीनता प्रकट होती है। माँगना प्रत्येक दृष्टिकोण से हेय है। सज्जन व्यक्ति भूखा रह कर दिन काट लेगा, पर किसी के सन्मुख हाथ नहीं फैलायेगा। जो लोग रुपया उधार लेकर उत्सव और मेलों में व्यय करते हैं, वे अपने साथ बड़ा अत्याचार करते हैं।

मजदूर और साधारण श्रेणी के लोगों की आय प्रायः काफी होती है। यदि उनमें इच्छा शक्ति हो, तो वे मध्य श्रेणी के प्रतिष्ठित नागरिकों की भाँति आदर का जीवन व्यतीत कर सकते हैं। उन्हें ऊँचा उठने से कौन वंचित रखता है? कारण यही है कि वे अपने फालतू बचे हुए समय का उपयोग अपने मस्तिष्क के विकास में, नई व बातें सीखने में नहीं लाते। उनके पास रुपया काफी है। उन्हें तो मानसिक विकास द्वारा संयम इन्द्रियनिग्रह, कृत्रिम और वास्तविक आवश्यकता का अन्तर सीखना है। उन्हें संस्कृति और सभ्यता सीखना है। उन्हें यह सीखना है कि समाज में मनुष्य की स्थिति केवल रुपये पर ही नहीं वरन् हृदय की पवित्रता, निष्कपटता, सेवाभाव, साहस, सद्विवेक, सत्यनिष्ठा, त्याग, उदारता, सद्भावना पर निर्भर है।

रुपये को सुख का एक साधन मानिये। उससे जीवन में सुख मिलता है पर रुपये से ही सब कुछ मिलता हो, सो बात नहीं है। जीवन अनेक है, इसके अनेक पहलू हैं आपको इन सभी दिशाओं में अपनी शक्तियाँ लगानी चाहिए। जो व्यक्ति दिन रात धन उपार्जन की चिंताओं में ही लगे रहते हैं, और रुपया जोड़-जोड़ कर रखते हैं, वे कभी आन्तरिक शान्ति प्राप्त नहीं कर पाते। उन्हें यह विदित नहीं होता कि इस कमाई की धुन में वे कैसी महत्वपूर्ण चीजें नष्ट कर देते हैं। स्वास्थ्य, सुख, सच्चे मित्रों की मैत्री, दम्पत्ति का हार्दिक एकीकरण, घर के बाल बच्चे-धन से कहीं अधिक महत्व रखते हैं।

अर्थोपार्जन में मर्यादित शक्ति का व्यय होना चाहिये। पैसे की लोलुपता, तृष्णा, और चिंता कम कीजिये। सुख रुपये पैसे में नहीं। हाँ, रुपया पैसा कभी-2 सुख के मार्ग को सरल बनाता है। रुपये की हाय-हाय से समय बचा कर आत्मा के सद्गुणों के विकास में समय व्यय करना चाहिए। अपने चरित्र का निर्माण इस प्रकार कीजिये कि उचित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कभी धन की कमी न पड़े, और व्यर्थ की विलासमयी आवश्यकताओं के लिए धन खर्च करने की आवश्यकता ही प्रतीत न हो। रुपये का काम थोड़ी देर का आनन्द मजेदारी नहीं, प्रत्युत मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, नैतिक, और आध्यात्मिक स्थिति को ऊँचा उठाना है।

फिजूलखर्ची, एक रोग है। बड़े रईस और ताल्लुकेदार इसी के कारण गरीब बने हैं। इसे छोड़ देना ही उचित है। घरेलू बजट, आय-व्यय का हिसाब ही हमारा मार्ग प्रदर्शन कर सकता है। खेद का विषय है कि लोगों को अपनी आमदनी, मासिक वेतन का तो ज्ञान रहता है किन्तु आज क्या व्यय हुआ? कैसे हुआ? कृत्रिम आवश्यकताओं या विलास-मनोरंजन में हुआ? उससे स्थायी लाभ हुआ या नहीं? कल खर्च करने के लिए कहाँ से आयेगा? यदि हाथ में कुछ न हुआ तो किससे कर्ज लेंगे? किसके सामने हाथ फैलायेंगे?-इन प्रश्नों पर हम तनिक भी विचार नहीं करते।

कम आय से मत डरिये वरन् उसी को सावधानी से व्यवस्था-पूर्वक व्यय कीजिये। सावधानी से बजट बना कर अपनी आवश्यकताओं को मर्यादित कर संयमित एवं व्यवस्थित जीवन व्यतीत करना जीवन में दक्षता का रहस्य है।


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