घरेलू मितव्ययिता द्वारा गृहस्थी में स्वर्ग की सृष्टि।

January 1950

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मितव्ययिता का क्रियात्मक उपयोग कठिन नहीं है। जो आमदनी हो, उससे कम व्यय कीजिये। जितना बचाना हो, उसे पहले ही डाकखाना सेविंग्स बैंक में जमा कर देना उचित है। चाहे एक रुपया ही क्यों न बचे महीने की पहली तारीख को ही अपने से दूर कर दीजिये। पास उतना ही रखिये जितना आवश्यकताओं में व्यय हो।

हर वस्तु को नकद खरीदा कीजिये, इससे आपको मालूम होता रहेगा कि कितना रुपया व्यय हुआ, कितना पास शेष बचा है। उस बचे हुए रुपये में से ही कार्य चलाना है, यह स्मरण रक्खें। जो अपना कर्ज देता है, लेता नहीं, वही अमीर है।

जब तक किसी से आने वाले रुपये आपके पास जेब में न आ जाय, आप उन्हें खर्च करने की बात न सोचें। व्यापार प्रारम्भ करते ही लाभ होने लगेगा, रुपया सूद पर देते ही ब्याज आने लगेगा, मकान किराये पर देते ही किराये से आप मालामाल हो जायेंगे, नौकरी लग गई है, अब तो कमाई आती ही रहेगी-ये बात अनिश्चित हैं। प्रत्येक दिन हो सकता है कि कोई नई आर्थिक अड़चन आपके सम्मुख आ खड़ी हो। व्यापार में जरा भी मूर्खता से लाखों की हानि हो सकती है, ब्याज का रुपया डूबने के अनेक कारण हो सकते हैं, किरायेदार किराया दिये बिना भाग सकता है, और नौकरी तो किसी भी दिन छूट सकती है। सब कुछ अनिश्चित है। अतः जो रुपया आपके हाथ में है, उसी को अपना समझिये, उसी को खर्च करने के लिए तैयार रहिये, उसी पर आशा रखिये। रुपये के सम्बन्ध में सबसे अधिक अनिश्चित रहना चाहिये। लाभ, फायदा, सूद का रुपया, मकान किराया अनिश्चित है, किन्तु उधार का लिया हुआ रुपया सिंघवाद की कहानी में वृद्ध की तरह सिर पर सवार रहेगा।

घरेलू मितव्ययिता का एक स्वर्ण सूत्र यह है कि स्वच्छ हिसाब रखिये। आप जो व्यय करते हैं, चाहे वह एक पैसा ही क्यों न हो, उसे अवश्य दर्ज कीजिये। आपकी जो आय है वह भी लिखिये। आय व्यय का हिसाब रखना फिजूलखर्ची से बचने का श्रेष्ठ उपाय है। एक चतुर व्यक्ति अपने बजट और पिछले हिसाब द्वारा अपनी भावी आवश्यकताएँ समझ सकता है। उसका घरेलू बजट संतुलित रहता है। उसका व्यय आमदनी से कम रहता है।

जौन वेस्ले निरन्तर इसी क्रम से चले। यद्यपि उनकी आय कम थी, तथापि उन्होंने अपनी आय-व्यय पर सदैव तीव्र दृष्टि रक्खी। अपनी मृत्यु से एक वर्ष पूर्व उन्होंने काँपते हुए हाथ से अपनी डायरी में लिखा था-“गत वर्षों में मैंने अपनी आय-व्यय के हिसाब को संतुलित रक्खा है। अब भविष्य में मैं इसी कार्य क्रम को चलता नहीं रहने देना चाहता क्योंकि अब मितव्ययिता मेरे आदत और स्वभाव का एक अंग हो गई है। मैंने जो भी बचाया, वह मितव्ययिता की आदत के बल से ही हो सका है।”

आपकी पत्नी को भी मितव्ययी बनना, अपने शृंगार, शौक और विलास की सामग्रियों को कम करना होगा। वास्तव में पति से पत्नी का उत्तरदायित्व अधिक है। घर में जरा-जरा सी अनेक वस्तुएं बरबाद की जाती हैं, जिन्हें बचाने से कई दिन और काम चल सकता है। भोजन अधिक पका कर नष्ट किया जाता है, वस्त्र बेनाप के बना कर सिलाये जाते हैं, कपड़ों को मैला कर पुनः पुनः धो कर फाड़ दिया जाता है, फकीरों को ढेर का ढेर दान दिया जाता है, तीर्थों, मृतक संस्कारों, पण्डे पुजारियों, झूठा दिखावा, और विशेषतः आभूषण बनवाना-इनमें अनाप शनाप व्यय किया जाता है। स्त्रियाँ एक दूसरे के वस्त्र और आभूषण देखकर बहुत जल्दी लुभा जाती हैं और अपने पति को कर्ज के बोझ से दबा डालती हैं। स्त्रियों को प्रसन्न करने की असफल चेष्टा में हजारों व्यक्ति बरबाद हुए हैं और गृहस्थी को नर्क में बदल बैठे हैं। आभूषण बनवाने में हमेशा आनाकानी कीजिये। उत्तम तो यह है कि टाल दीजिये। पत्नी को प्रेम से आर्थिक कठिनाई और बजट दिखा देने से अनेक आर्थिक कठिनाइयों से बचा जा सकता है। पत्नी के हाथ में हिसाब दे दीजिये। उसी से बजट बनवाइये। फिर यदि 25 तारीख को ही वेतन समाप्त हो जाय, तो उसे अपने साथ आर्थिक संकट अनुभव करने दीजिये। आर्थिक कड़वाहट से वह नया पाठ सीख लेगी। जिस गृहस्थी में स्त्रियाँ मितव्ययी और समझदार है, परिश्रमी विनयशील, और सीधी-सादी सुशिक्षिता है, वह स्वर्ग के समान सुन्दर है। खर्चीली पत्नी, धनी घर की पत्नी, गरीब पति के लिए खतरनाक चीज है। बड़े घर की पुत्रियाँ फैशनपरस्त, अविवेकशील, आलसी, खुले हाथ व्यय करने वाली होती हैं। वे निर्धन पति के लिए सर का दर्द बन जाती हैं।

अपनी पुत्रियों और पुत्रों को फैशन के रोग से बचा लीजिये। उन्हें साफ सुथरा अवश्य रखिये पर फैशन परस्त नहीं। जो पुत्र पुत्री समझदार हैं, उन्हें अपने खर्च का ब्योरा दिखा सकते हैं। उनके खेल तमाशे, सिनेमा इत्यादि मनोरंजनों में उन्हीं से किफायत करने को कहिये। उनके ऊपर कोई बात थोपिये मत, संकेत देकर उन्हें आत्म संयम करने दीजिये।

गृहस्थ में रहने वाले जब तक सभी व्यक्ति रुपया बचाने की योजना में दिलचस्पी न लें, तब तक एक का प्रयत्न सफल नहीं होता।

आपका घर सुव्यवस्थित होना चाहिए। व्यवस्था क्रम, खर्च में विवेक उत्पन्न करता है। वह घर धन्य है जिसमें एक बच्चे की शिक्षा और विकास के लिए सभी आदमी अपने व्यक्तिगत व्यय न्यूनतम कर थोड़ा-2 बचा कर आगे बढ़ते हैं। व्यवस्था से यह संभव है। अपने अधिकार और कर्तव्यों का ज्ञान व्यवस्था उत्पन्न करता है। संसार की सृष्टि व्यवस्था से हुई। जहाँ अव्यवस्था और अविवेक है, वहाँ गरीबी भी है। जीवन के प्रत्येक क्षण में नियम, व्यवस्था और क्रम प्रगति ओर उन्नति का मार्ग है। क्रम और व्यवस्था में स्त्रियों का पुरुष की अपेक्षा आधिक हाथ है। वे ही सम्पूर्ण दिन घर रह कर कार्य सम्हालतीं और खाद्य पदार्थों की व्यवस्था करती हैं। गृहस्थी की आर्थिक समृद्धि भी उन्हीं के ऊपर आश्रित है। चतुर पति को बड़े यत्न से प्रारम्भ से ही पत्नी में मितव्ययिता और क्रम व्यवस्था इत्यादि की आदत डालनी चाहिए।

निम्न श्रेणी के व्यक्तियों को अपनी आय के अनुकूल रहना सरल है। वे साधारण भोजन ले सकते हैं, मैले वस्त्रों से भी गुजारा कर सकते हैं, मामूली गृह में निवास कर सकते हैं। किन्तु गरीबी में भी यदि वे आय के साथ व्यय बढ़ाते-घटाते जायं तो सम्पन्न रह सकते हैं।

मध्य वर्ग महंगाई से परेशान है। पढ़े लिखे सभ्य व्यक्तियों को हाथ का कार्य करने वाले मजदूरों की अपेक्षा अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है। उन्हें अपनी आय वृद्धि में बड़ा सचेत रहना पड़ता है। उन्हें सामाजिक स्थिति के अनुसार वस्त्र, गृह, स्वास्थ्य, बच्चों की शिक्षा इत्यादि का ख्याल रखना होता है। मध्य श्रेणी के व्यक्तियों को संयम और व्यवस्था की नितान्त आवश्यकता है। यदि वे सतर्क न रहें, तो अपनी टीपटाप बनाये रखने में वे कर्जदार हो सकते हैं।

आमदनी की कमी या अधिकता का रहन-सहन पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता, जितना रुपये का अधिक से अधिक सद्-उपयोग करने का पड़ता है। एक व्यक्ति दिन में तीन आने की सिगरेट पीता है, दूसरा उसी पैसे से घर के लिए सब्जी दूध इत्यादि खरीदता है या एक समय के ईंधन का प्रबन्ध करता है। निश्चय ही दूसरे ने अपने पैसे का सदुपयोग किया और अधिक स्थायी आनन्द प्राप्त किया। इसी प्रकार छोटे-विलासिता के खर्चे जैसे-पान, कैंटीन के व्यय, मिठाई, चाट पकौड़ी, सिनेमा, मित्रों की आवभगत के व्यय, सोडा शरबत-हिसाब लगाने से इतने अधिक हो जाते हैं कि इन्हीं के बचे हुए रुपये से एक मकान बन सकता है। इस दृष्टिकोण से देखने से उत्तम बुद्धि, उच्च स्वभाव, संयम, नियन्त्रण और मानसिक संस्कृति हमारे सबसे अच्छे सहायक है।

डॉ. आइटन लिखते हैं कि उनके पिता ने दस-बारह बच्चों के कुटुम्ब को 900 पौंड वार्षिक में पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाया था। उन्होंने अपनी पुस्तक अपने पिता को समर्पित करते हुए लिखा है-“यह पुस्तक सादर एक ऐसे पिता को समर्पित है, जो अब 83 वें वर्ष में है, और जिसने 900 पौंड वार्षिक आय में 12 बच्चों में से चार को उच्चतम शिक्षा दिलाई और जो अपने अन्तिम शिलिंग तक को उनके खर्च के लिए कालेज में भेजता रहा है।”

श्री सैमुअल स्माइल्स लिखते हैं कि मितव्ययिता के उदाहरण के लिए स्वयं उनका जीवन लिया जा सकता है। उनकी माता जब उसका अन्तिम 11वाँ बच्चा केवल तीन मास का था, विधवा हो गई। उन पर किसी की जमानत देने के कारण कुछ कर्ज भी था पर इस कठिनाई और 12 बच्चों के बोझ के बावजूद वे धैर्यपूर्वक अपनी सामाजिक स्थिति और मान के लिए प्रयत्नशील रहीं और अन्त में विजय प्राप्त की। यद्यपि उनकी आय साधारण सी थी, तथापि उन्होंने अपने बच्चों की शिक्षा में कमी नहीं की, इन्हें शील गुण सम्पन्न बनाया। यदि उनमें से कोई योग्य न बन सका, तो इसमें उस महिला रत्न का कोई अपराध नहीं था।

प्रसिद्ध इतिहासकार ह्यूम के पिता उसे छोटा सा छोड़ कर स्वर्गवासी हुए थे, उसकी माता ने ही उनकी शिक्षा का प्रबन्ध किया था। 26 वर्ष की अवस्था में ह्यूम फ्राँस में विद्या अध्ययन के लिए गये। वहाँ के विषय में आप लिखते हैं-“मैंने यह प्रण कर लिया कि मैं मितव्ययिता से काम लूँगा, प्रत्येक पाई का उचित उपयोग करूंगा और अपनी समृद्धि के लिए सतत उद्योगशील रहूँगा। मैं उन सभी विलास की वस्तुओं को घृणा करूंगा जो मेरी योग्यताओं की अभिवृद्धि नहीं करेंगी।” उनकी पहली कृति सफल न रही, किन्तु वे कार्य में जुटे रहे। वे वियना में राजदूत के मिलिटरी सेक्रेटरी हो गए। वे 26 वर्ष की आयु में अपने आपको अमीर समझने लगे। उनके शब्द देखिये-“मेरी मितव्ययिता, सतत उद्योग, परिश्रम और संयम ने मुझे सम्पदा का मालिक बना दिया था और अब मैं अपने पाँवों पर खड़ा हो सकता था। मेरे पास अब लगभग डेढ़ हजार पाउन्ड जमा हो चुके थे। पाँच प्रतिशत के हिसाब से मुझे 60 पाउन्ड प्रतिवर्ष सूद के प्राप्त हो सकते थे।” ह्यूम की मितव्ययिता में कभी दान या दूसरों की सहायता में कमी नहीं हुई, न कभी व्यर्थ उन्होंने एक पेनी बरबाद किया।

संसार के असंख्य व्यक्ति अपने आपको आगे बढ़ाने के लिए और समाज में अपना स्तर ऊँचा करने के लिए परिश्रमशील रहे हैं और आनन्द को घृणा करते रहे हैं। वे विनयशील ओर मितव्ययी रहे, कितने ही पुरुषार्थियों ने अपने शारीरिक बल से अपना निर्वाह किया यहाँ तक कि वे योग्य और विद्वान बन गए। उनके पास केवल एक शक्तिशाली वस्तु थी - वह थी दृढ़ इच्छा और आत्म विश्वास।

सफलता की कुँजी हमारी संयत और संयमित आदतें हैं। जो आदत के अनुसार अनुचित विलासिता से मुक्त रहता और सरल सादा जीवन व्यतीत करता है, वही गृहस्थ दीर्घ काल तक अपने आत्म सम्मान को स्थिर रख सकता है।


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