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January 1948

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विषयी लोग तीन बातों को अपूर्ण छोड़ कर मर जाते हैं- प्रथम इन्द्रिय भोग से तृप्त न होकर, द्वितीय आशाओं को अपूर्ण रख कर और तृतीय परलोक के लिए कुछ संचय न करके

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सत्यता और सरलता ही धर्मात्मा का भूषण है, प्राणान्त होने पर भी उसका त्याग मत करो।

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सेवा के पथ पर

(श्री राजा महेन्द्र प्रताप)

तुम्हें समस्त धर्म क्या सिखाते हैं? सृष्टि के प्रारम्भ से ही तुम्हें क्या सिखाया गया है? क्या तुम्हें यह नहीं मालूम कि जो जैसा कर्म करता है, उसी के अनुसार उसे पुरस्कार मिलता है। अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा फल प्राप्त होता है। समस्त धर्मों ने यही बतलाया है कि यदि तुम गरीबों पर मेहरबानी करोगे, यदि तुम मनुष्य की मुसीबत में उसकी सेवा करोगे, तो तुम्हें प्रसन्नता प्राप्त होगी और यदि तुम अपना ही राग अलापोगे-अपने कारणों से दूसरों को कष्ट पहुँचाओगे, अकारण ही क्रोध करोगे, धोखा दोगे, या झूठ बोलोगे या दूसरों का माल हजम करोगे, तो अवश्य ही तुम्हें बुरे से बुरा दंड मिलेगा। इसका स्पष्ट आशय यह है कि दूसरों की फिक्र रखने से, दूसरों की सेवा करने से तुमको पुरस्कार मिलेगा और इस तरह तुम मानव-जाति की भलाई के लिए उन्नति कर सकोगे और यह ही धार्मिक सेवा कहलाती है। तन्दुरुस्ती स्थिर रखना, शिक्षा प्राप्त करना और सच्चा ज्ञान प्राप्त करना, इसलिए आवश्यक बतलाया गया है कि यह सब दुनिया के कष्टों और अज्ञता के विरुद्ध लड़ने के लिए तुम्हें आवश्यक हथियार के रूप में काम देंगे। मनुष्य-जाति की प्रसन्नता और ज्ञान की उन्नति द्वारा तुम समस्त दुनिया की वास्तविक उन्नति कर सकोगे और इस प्रकार उन्नति करते हुए जीवन के मुख्य उद्देश्य को प्राप्त कर सकोगे। यदि तुम पुरस्कार चाहते हो, यदि तुम धर्म की सेवा करना चाहते हो, यदि पूरी प्रसन्नता प्राप्त करना ही तुम्हारा उद्देश्य है, तो यह बहुत ही आवश्यक है तुम दूसरों की ठीक से सेवा करो और केवल दूसरों के हित के लिए ही जीवित रहो। ऐसा करने से तुम्हें अपने आप पुरस्कार मिल जायेगा।

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