हम स्थितप्रज्ञ बनें

January 1948

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(श्री दीनानाथजी दिनेश)

स्थितप्रज्ञ का हृदय समुद्र के समान होता है। समुद्र अपने आप में पूरा भरा रहता है। उसमें यदि नदियाँ कम जल लाती हैं, तो कमी नहीं होती और नदियाँ बहुत जल लाती हैं, तो समुद्र बह कर नहीं निकलता। ठीक यही स्थितिप्रज्ञ की स्थिति है। वह समुद्र की भाँति गंभीर रहता है। यदि विषय नहीं मिलते तो सूख नहीं जाता और यदि सारे विषय उसमें अपने ही आप नदियों की भाँति आते हैं, तो वह इतरा कर अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता।

जैसे ब्रह्म पूर्ण है। उसमें घटा बढ़ी नहीं होती। वह विषयों के पास नहीं जाता, इसी प्रकार ब्रह्म में टिका हुआ स्थितप्रज्ञ पूर्ण हो जाता है। सुख दुःख उसे बढ़ा घटा नहीं सकते। वह अचल रहता है, शान्त रहता है और संसार के सारे भोग उसमें अपने आप आकर पड़ते हैं।

संसार की ऐसी रीति है कि जो यहाँ कुछ चाहता है, उसे कुछ नहीं मिलता, और जो कुछ नहीं चाहता, उसे सब कुछ मिल जाता है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-

सब सुख संपत्ति बिनहिं बतायें धर्म शील पंह आप सुहाये

स्थितप्रज्ञ में संसार के सारे विषय भोग स्वयं आकर समा जाते हैं। वह शान्त, गंभीर और अचल होकर प्रतिष्ठा में रहता है। काम कामी अर्थात् कामनाओं को चाहने वाला कभी कुछ नहीं पाता। कामनाओं की पूर्ति न होने से वह सूखता रहता है और मिलने पर इतरा जाता है, किसी भी दशा में उसे शान्ति नहीं मिलती।

समुद्र की भाँति विशाल हृदय होना शान्ति पाने का एक मात्र उपाय है।

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