हिन्दू धर्म में नारी का स्थान

January 1948

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(श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल)

शिवजी नारी की विच्छेद भावना से विक्षिप्त होकर सती की देह को कन्धे पर लेकर भारतवर्ष के कोने कोने में पागल की तरह विचरने लगे थे। ऐसी अवस्था में संसार के ध्वंस होने की सम्भावना से विचलित होकर विष्णु ने उसी सती देह को शतधा विच्छिन्न करके दिशा दिशा में फेंक दिया था। आज उसी त्याग प्रेम के प्रतीक स्वरूप नारी के ही देहावशेष को लेकर हमारे तीर्थ स्थान बने हैं। संसार के समस्त सनातन हिन्दू उन तीर्थ स्थानों में नारी की ही पूजा करते हैं। नारी की मधुर स्मृति में संसार भर में एक ही ताजमहल बना है। परन्तु हिन्दुओं की मानस सृष्टि में शत शत ताजमहल भारत के कोने कोने में शक्ति पीठ के रूप में युग युग से हिन्दू जीवन को अनुप्रमाणित करते आते हैं। प्राण को छोड़कर देह में क्या रूप है? शिव सती की अनुपम वार्ता को छोड़कर शक्ति पीठों में कौन सा प्राण है? ताजमहल को देखकर आँख मूँदकर नारी स्मृति की महिमा का अनुभव करना पड़ता है। शक्ति पीठों में आँख मूँद कर ताजमहलों को देखना पड़ता है। परन्तु हाय! मैं किसके साथ किसकी तुलना कर रहा हूँ! ताजमहल क्या सती के आत्मोत्सर्ग की कहानी बताता है? शिव की उन्मादना का कोई आभास देता है? लक्षकोटी मनुष्यों की पूजा की वार्त्ता सुनाता है? शत सहस्र साधुओं की मार्मिक साधना का संकेत करता है? हाय नारी! तुम्हारी ही पूजा में सनातन पुरुष जीवन को सार्थक बनाते आये हैं और तुम उसी पुरुष को कोसा करती हो! पुरुष सरस्वती के रूप में नारी को ही तो पूजता है? लक्ष्मी के रूप में नारी की ही तो आराधना करता है? रण चण्डी के रूप में नारी का ही तो आवाहन करता है?

हिन्दू, नारी को अर्द्धांगिनी समझता है। हिन्दू की भावना में पुरुष नारी को ही पाकर पूर्णता को प्राप्त करता है। इसलिए हिन्दू समाज व्यवस्था में विवाह मनुष्यों का एक अवश्य कर्तव्यकर्म है। व्यक्तिगत सुख सुविधा के लिए विवाह पद्धति का आविष्कार नहीं हुआ है। यह एक सामाजिक व्यवस्था है। व्यक्ति की स्वाभाविक कामनाओं और अधिकारों के साथ सामाजिक कल्याण भावनाओं का समन्वय होने से ही सब प्रकार की सामाजिक व्यवस्था तथा विवाह प्रथा का उद्भव हुआ है। आधुनिक पाश्चात्य समाज में विवाह केवल वैयक्तिक व्यापार समझा जाता है, मानो केवल व्यक्ति की सुख सुविधा के लिए ही विवाह की आयोजना है। परन्तु हिन्दू समाज में विवाह एक संस्कार है, अपूर्णता में पूर्णता प्राप्त करने का साधन है, अव्यवस्था में व्यवस्था लाने का एक सामाजिक उपाय है। इसलिए भारतीय विवाह पद्धति में केवल युवक युवतियों के यौवन सुलभ चपल आकर्षण से ही विवाह के प्रश्न की मीमाँसा नहीं होती। विवाह को सार्थक बनाने में समाज का भी सुदृढ़ हाथ रहता है। विवाहबन्धन से संतानोत्पत्ति के कारण यह प्रथा केवल व्यक्तिगत दृष्टि से ही नहीं देखी जा सकती। इसलिए हिन्दू, समाज की कल्याण वेदी पर व्यक्तिगत सुख सुविधाओं को न्यौछावर करने को तैयार रहता है। इस दृष्टि से हिन्दू-आदर्श आधुनिक सुख सर्वस्व पाश्चात्य वैवाहिक आदर्श से अधिक श्रेष्ठ है। पाश्चात्य समाज में विवाह के बाद पुत्र, माता- पिता, भाई-बहनों से अलग होकर अपना स्वतन्त्र जीवन बिताने लगता है। विवाहित जीवन में किसी का नियन्त्रण नहीं रहता। किन्तु हिन्दू परिवार में पुत्र विवाह के पश्चात माता पिता से अलग नहीं होता। हिन्दू जीवन में पति को, विवाहित जीवन का रसास्वादन माता पिता भाई-भगिनी आदि की दृष्टि बचाते हुए धीरे धीरे क्षण क्षण में प्राप्त करना पड़ता है। बाधा-विघ्नों के होते हुए भी उसके विवाहित जीवन का रसास्वादन मधुर होता है, जैसे दोनों तटों के बन्धन से नदी में प्रवाह का वेग उत्पन्न होता है। यदि दिशा हीन होकर जलराशि चतुर्दिशा में विक्षिप्त होने लग जाय, तो नदी के स्रोत में प्रवाह बन्द हो जा सकता है। प्रथम यौवन में संयमहीन उपभोग से जीवनी शक्ति का ह्रास हो जाता है, जीवन और जीवन संगिनी से हम ऊबने लग जाते है, मधुमय जीवन में गरल का उदय होने लगता है।

नारी की जब हम अतीन्द्रिय जगत का रूपक नहीं समझते, तब हम अनर्थ कर बैठते हैं। कुछ व्यक्ति तितलियों को पकड़ पकड़ के उनकी जीवनी शक्ति का नाश करते हैं और फिर आलपीन में बेधकर उन्हें चित्रपट के रूप में सजाते हैं। इसी प्रकार रस-लोलुप नर, नारी को अपने व्यसन की सामग्री बनाकर यथार्थ रसास्वादन से भी वंचित रहते है, और नारी की जीवनशक्ति का भी नाश करते हैं। इस विनाशलीला के परिणाम में जिस विष का उद्गम होता है, उससे सामाजिक वातावरण भी विषैला बन जाता है। ऐसे विष से दग्ध समाज में हम नारी को ही अभिशाप देते हैं। परन्तु इस अभिशाप से नर का जीवन ही अभिशप्त होता है। इस अभिशाप के कारण नर नारायण नहीं बनता, यथार्थ मानव का उदय नहीं होता।

हिन्दू भावना स्त्री के रूप में केवल अर्धांगिनी और सहधर्मिणी हो सकती है, और कुछ नहीं। हिन्दू की दृष्टि में नारी केवल साथिन के रूप में नहीं दिखाई देती। इस वैचित्र्यमय जगत में नानात्व की अभिव्यंजना के साथ नारी को भी हम अनन्त शक्ति रूपिणी, अनन्त रूप से शक्तिदायिनी, स्नेहमयी जननी, भगिनी, कन्या और सखी के रूप में अनन्तकाल से देखते चले आये हैं।

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