संभल संभल कर चल राही

January 1948

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कदम कदम ऐ चलने वाले, संभल संभल कर कदम कदम!

एक पहेली सी फैली है, यह अनजानी राह यहाँ, जग के सपनों से लिपटी है युग संसृति की आह यहाँ।

कितने ही अरमान सिसक कर मिट्टी में मिल चुके अरे- और आँसुओं से निर्मित हैं कितने उदधि अथाह यहाँ।।

तेरे उर में अनियन्त्रित गति, तेरे नयनों में विभ्रम, कदम कदम ऐ चलने वाले संभल संभल कर कदम कदम।

सुना यहाँ पर एक प्यास है और प्यास में एक जलन, कुछ उसको पुलकन कहते है, कुछ उसको कहते तड़पन।

इस पुलकन को हंसी कहो या इस तड़पन को रुदन कहो- हंसी रुदन की सीमाओं से भरा हुआ है यह जीवन।।

इस जीवन का एक मरम है, हंसी रुदन का एक मरम, कदम कदम ऐ चलने वाले संभल संभल कर कदम कदम!

अपनी हस्ती के मद में कुछ पड़े हुए मदहोश यहाँ , अपनी निर्बलता से पीड़ित कुछ बैठे खामोश यहाँ।

अन्तहीन इस विस्तृत पथ पर असफलता का मेला है- कुचल न दे उन बेचारों को इन पैरों का जोश यहाँ।।

पतितों ही के लिया मिला है, तुझे यहाँ संभल कर कदम कदम!

सुधा पात्र तू लिये हुए है, विश्व लिये है यहाँ गरल, जग में है विकराल अनल, तुझमें है सुख सुषमा कोमल।

अरे अमर! तू आज हलाहल का प्याला हँस कर पीजा, और लुटा दे सुधा अमरता का प्यासा है विश्व विकल।।

तू समर्थ? तू स्वामी है, तू स्रष्टा है और परम! कदम कदम ऐ चलने वाले संभल संभल कर कदम कदम!

मानव

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*समाप्त*


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