खुदा की राह पर

January 1948

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(डॉ. हीरालाल जी गुप्त, वेगूसराय)

दुनिया में दो तरह के मनुष्य होते आये हैं। एक वे जो अपनी राह पर संसार में-चलते हैं और दूसरे वे जो प्रेम पथ के पथिक बन प्रभु की राह में चलते हैं। अपनी राह में चलने वाले ऐश व आराम तलब होते हैं और उनका ध्येय साँसारिक आराम की खोज ही में अपने अमूल्य जीवन को बिता देना है। पर जो खुदा की राह पर चलते हैं उन्हें पग पग पर विघ्नों का सामना करना पड़ता है। लोग इन्हें निखट्ट और अकर्मण्य कहा करते हैं पर उस पथिक को इन बातों को अनसुनी कर आगे बढ़ना पड़ता है। अगर वे लोगों की परवाह करने लगे वे न घर के रहे और न बाहर के।

हाँ तो खुदा की राह में चलने वाले प्रेम पथ के पथिक को धैर्यपूर्वक जो भी विपत्तियाँ सामने आवें उनको सहन करना पड़ेगा। अगर बीच में हिमालय भी आ पड़े तो उसको भी हंसते 2 पार करना पड़ेगा। गरज कि उसे किसी हालत में पीछे पैर नहीं देना होगा। सम्भव है आगे बढ़ने का रास्ता दिखाई न दे पर इससे खौफ खाने की कोई बात नहीं। प्रेम के मार्ग में तो काँटे मिलते ही हैं। इश्क के रास्ते में तो रोड़े अटकाये जाते ही हैं पर प्रेमी इन अड़चनों से नहीं घबड़ाता। आशिक इन तकलीफों में विचलित नहीं होता। भला जिसने अपने सर को ऊखल के हवाले कर दिया है वह मूसल की चोट से कब तक डरता रहेगा।

खुदा की राह कठिन तो अवश्य है पर दुःसाध्य नहीं है। अगर दृढ़ संकल्प से इस रास्ते में कदम बढ़ाया जाये तो एक न एक दिन प्रीतम के दरबार में पहुँच ही जाता है। माशूक का दीदार हो ही जाता है। प्रीतम के प्रेम का पुजारी अपने प्रीतम से कब तक अलग रखा जा सकता है? भला अग्नि की गरमी को आग से कब तक अलग किया जा सकता है। चन्द्रमा से चाँदनी की चोरी और सूर्य से धूप की चोरी के कितने दिन तक सम्भव है? जिसके हृदय में प्रीतम के मिलने की आग धधक रही है और उससे मिलने के लिये उसकी राह में चल पड़ा है उसको दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती। कोई भी शक्ति उसको उस पथ से गुमराह नहीं कर सकती। वह अपने विचार में अटल है। संकल्प कच्चा धागा नहीं। वह इस बात को जानता है- कि अगर वह एक डग आगे बढ़ेगा तो परमात्मा दो डग उसको अपने प्रभू के महल तक पहुँचा देगा। उसे मालूम है कि इसी रास्ते से बड़े लोग गये हैं। और उसे भी मार्ग का अनुसरण करना चाहिये।

ऐसे व्यक्तियों के लिये समुद्र गो-खुर के समान हो जाता है, अग्नि अपनी दाहक शक्ति छोड़ देती है, हिमालय राह दे देता है और शत्रु भी मित्र सा बर्ताव करने लगता है। उसके लिये सारा संसार ही कुटुम्ब हो जाता है। वह जहाँ निकल जाता है वहाँ शीतल, मन्द सुगन्ध हवा चलने लगती है। उसकी जहाँ 2 पदधूलि पहुँचती है वह स्थान तीर्थ बन जाता है। पशु पक्षी भय त्याग उसके इर्द गिर्द चक्कर काटने लगते हैं और उसके बदन से अपनी खुजलाहट मिटाते हैं

कोई विरला ही माई का लाल इस रास्ते में चलता है और चल कर भी वापस नहीं लौटता। होता तो यह है कि कुछ अभागे इस रास्ते चलने को राजी भी होते हैं तो जहाँ दिक्कतों को सामना करना पड़ा बस फौरन वापस चले आते हैं। थोड़ी दूर जरूर तरह-2 के विघ्न बाधायें हैं पर आगे चलकर तो रास्ता बिलकुल सहल और राजकीय पथ के समान है। भला कहीं खुदा की राह में भी दुःख हो सकता है।

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