(श्री किशोरलाल मशरुवाला)
साधुओं में एक कथा प्रचलित है। किसी शहर के बाहर एक साधु पुरुष रहते थे। एक दिन उन्होंने हैजे की डाकिन को नगर की ओर जाते देखा। साधु ने उससे पूछा- “ तुम क्यों जाती हो ? और कितनों को खाना चाहती हो?”
डाकिन ने कहा-”मुझे भूख लगी है, मैं दो सौ मनुष्यों का खाऊंगी।” उसके बाद फौरन ही शहर में हैजे का दौरा हुआ और करीब दो हजार आदमियों के मरने या बीमार होने के बाद डाकिन लौटती नजर आई। साधु ने पूछा- “तुमने यह क्या किया?” जवाब मिला- “नहीं, महाराज! मैंने तो सिर्फ दो सौ ही खाये हैं। बाकी तो डर से मर गए। उनकी मौत के लिए मैं जिम्मेदार नहीं।”
यह है तो एक कल्पित कहानी, लेकिन इसमें यह समझाने की कोशिश की गई है कि जोखिम की परिस्थिति के कारण दरअसल जितना नुकसान होता है या हो सकता है, उससे कहीं ज्यादा नुकसान उसकी कल्पना से होता है। और यह सच है।
सच है कि कभी-2 कल्पना का प्रयोग हिम्मत बनाये रखने में, यानी भयवृत्ति को जीतने में भी, किया जाता है। उदाहरण के लिए, डर मालूम होने पर भी पत जाने या फर्ज अदा करने का खयाल न डरने की हिम्मत पैदा करता है। अपनी पत या अपने कर्तव्य के बारे में आदमी की कल्पना जितनी ही तीव्र होती है, उतना ही वह डर को जीत सकता है। जिस घड़ी संकट की तुलना में पत और कर्तव्य का महत्व कम लगने लगता है, उसी घड़ी हिम्मत भी जवाब दे देती है। मतलब यह कि उचित रीति से स्वाभिमान, प्रतिष्ठा और कर्तव्य परायणता की शिक्षा लेना डर को जीतने का एक उपयुक्त साधन है। इसी तरह योग्य साथियों का साथ निर्भयता को बढ़ाने का एक साधन है।
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