धर्म और दर्शन को अलग-अलग रखिए।

January 1948

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(श्री स्वामी सत्यभक्तजी वर्धा)

बहुत से लोग दर्शन शास्त्रों की और स्वर्ग नरक आदि की दुहाई देकर धर्मों की आलोचना करने लगते हैं, यह धर्म तो ईश्वर नहीं मानता या ऐसा मानता है, वैसा मानता है आदि मैं कहता हूँ ये फिजूल के झगड़े हैं धर्मशास्त्र का काम नीति, सदाचार, प्रेम और मनुष्यता का पाठ पढ़ाना है, इसलिये धर्म को या धर्मशास्त्र को हम इसी नजर से देखें। दर्शन, इतिहास, भूगोल, ज्योतिष, प्राणिशास्त्र आदि का विचार स्वतन्त्र रूप से करें। इनसे सम्बन्ध रक्खें, सहयोग स्थापित करें, पर इन शास्त्रों की बातों के विरोध को धर्म का विरोध न समझें।

गणित के अनुसार दो और दो चार होते हैं। अब इस बारे में यह विचार करना व्यर्थ है कि हिन्दू धर्म के अनुसार कितने होते हैं और इस्लाम के अनुसार कितने होते हैं। गणित पर हिन्दू, इस्लाम, जैन आदि की छाप लगाना उचित नहीं। इस तरह जब मुझ से कोई पूछे कि कलकत्ता से नागपुर कितने मील है? मैं कह दूँगा सात सौ मील। तब क्या कोई यह पूछेगा कि हिन्दू धर्म के अनुसार कितने मील है और इस्लाम के अनुसार कितने मील? यदि इस बात का सम्बन्ध धर्म शास्त्र से नहीं है, तो हिन्दुस्तान कितना बड़ा है इसका सम्बन्ध धर्म शास्त्र से कैसे हो जायगा और यदि हिन्दुस्तान की रचना का सम्बन्ध धर्म शास्त्र से नहीं है, तो एशिया या पृथ्वी का कैसे हो जायगा? जब पृथ्वी का नहीं तब ब्रह्माँड का कैसे हो जायगा? धारा तो एक ही है, एक ही शास्त्र का विचारणीय विषय है। तब इन बातों का सम्बन्ध हम धर्म शास्त्र से कैसे जोड़ सकते हैं? इसलिए मैं कहता हूँ कि धर्म शास्त्र को धर्म शास्त्र रहने दीजिए, दुनिया भर के शास्त्र और उनके झगड़े धर्म शास्त्र पर न लादिये। अगर आप धर्म का पालन करना चाहते हैं, धर्मात्मा बनना चाहते हैं, तो प्रेम का, सेवा का, ईमानदारी का और त्याग का व्रत लीजिये, दुनिया की भलाई में अपनी भलाई समझिये। दर्शन आदि की चर्चा को इस झगड़े में न लाइये, जैसा आपको जंच जाय वैसा मान लीजिये, पर उसका उपयोग नीति और सदाचार को बढ़ाने में कीजिये। हमारा पहिला और मुख्य काम सुखी बनना और जगत को सुखी करना है। सब बातें और सब धर्म इसी के लिये हैं। इस बारे में महात्मा बुद्ध के विचार ध्यान देने लायक हैं उन्होंने बड़े अच्छे ढंग से इस समस्या को सुलझाने की कोशिश की थी।

एक बार आनन्द ने--(बुद्ध के एक मुख्य शिष्य ने) बुद्ध से पूछा--भगवन्! सभी लोग परलोक आदि के बारे में कुछ न कुछ निश्चित बात कहा करते हैं आप कुछ नहीं कहते यह क्या बात है?

इसके उत्तर में भगवान बुद्ध ने बहुत सी बातें कहने के साथ कहा-देखो आनन्द, जंगल में एक आदमी जा रहा था, उसको तीर लगा जिससे बड़े जोर से खून की धारा बहने लगी। खून की धारा देखकर उसका पहिला कार्य क्या है? वह पहिले खून की धारा बन्द करे या ‘तीर किसने बनाया’ आदि बातों की खोज करे?

आनन्द ने कहा-खून बन्द करना पहिला काम है।

भगवान बुद्ध ने कहा-तो बस, संसार में जो तृष्णा आदि के घाव प्राणी को लगे हैं, उनका बन्द करना पहिला काम है। उसी के लिये मैंने चार आर्य सत्य बतलाये हैं। तृष्णा आदि के बन्द होने पर परलोक आदि कैसा भी हो, तृष्णा आदि हटा देने वाले का भला ही है। उसकी चिन्ता अभी से क्यों की जाय? मरने के बाद जैसा होगा देख लिया जायगा।

मैं आपसे यही कहना चाहता हूँ कि ईश्वर परलोक आदि आपको जिस प्रकार मानना हो मानिए, पर उसके किसी एक रूप के मानने न मानने से धर्म-अधर्म का रिश्ता न जोड़िए।

दूसरी बात यह है कि ईश्वर और परलोक आदि के मानने की बात मुँह से न कहिए। जीवन से न कह कर मुँह से कहना अपने को और दुनिया को धोखा देना है। हम में से अधिकाँश ऐसे धोखेबाज ही हैं। इसलिए मैं कहा करता हूँ कि हजार में नौ-सौ-निन्यानवे व्यक्ति ईश्वर को नहीं मानते। मानते होते तो जगत में पाप दिखाई न देता।

अगर हम ईश्वर को मानते तो क्या अंधेरे में पाप करते? समाज या सरकार की आँखों में धूल झोंकते समय क्या यह न मानते कि ईश्वर की आँखों में धूल नहीं झोंकी गई? हम में से कितने आदमी ऐसे हैं जो दूसरे को धोखा देते समय यह याद रखते हों कि ईश्वर की आँखें सब देख रही हैं। अगर हमारे जीवन में यह बात नहीं है, तो ईश्वर की दुहाई देकर दूसरों से झगड़ना हमें शोभा नहीं देता।

कहने का मतलब यह है कि हम इन बातों को जीवन में उतारने की कोशिश करें, ईश्वरवादी हों या कर्मवादी या अद्वैतवादी, अगर हम अपने वादों को जीवन में उतारने की कोशिश करेंगे, तो धर्म की राह में सब अपने को एक ही जगह पायेंगे, झगड़ने का कोई कारण न रह जायगा। सब धर्म हमें एक ही जगह ले जाने वाले मालूम होंगे।


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