आत्मोन्नति के चार साधन

August 1946

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संसार की सब उन्नतियों में आत्मोन्नति अग्रगण्य है, क्योंकि धन आदि की उन्नति स्थूल होने के कारण शीघ्र नष्ट हो जाती है। अधिक समय तक स्थिर नहीं रहती और न मृत्यु के पश्चात् वह साथ जाती है। यदि रोग से ग्रसित हो गये या अन्य कोई शारीरिक मानसिक कष्ट उत्पन्न हो गया तो धन सेवक आदि होने पर भी कष्ट में न्यूनता नहीं होती, किन्तु यह सब गुण आत्मोन्नति में मौजूद हैं, इसीलिए उसका महत्व अधिक है। भारतीय ऋषि मुनि तथा धार्मिक शास्त्र उपदेश देते हैं कि साँसारिक उन्नतियों में लिप्त न होकर आध्यात्मिक उन्नति में दत्त-चित्त होना चाहिये।

पिछली कई शताब्दियों में धर्म और विज्ञान का द्वन्द्व युद्ध होता रहा है। विज्ञान कहता है कि ईश्वर और आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। प्रकृति से स्फुरण से ही जन्म मृत्यु होती है और संसार चक्र अपने आप चलता रहता है। इस युद्ध में अब विज्ञान परास्त हो रहा है और उसने प्रकृति की सूक्ष्म गति सूक्ष्म विद्युत परिमाण इलेक्ट्रोन तक खोज करने बाद यही कल्पना की है कि एक सैकिण्ड में पच्चीस हजार मील को द्रुत गति से नाचते रहने वाले ग्रह परिमाण भी स्वतन्त्र नहीं हो सकते, इनका संचालन करने वाली कोई आद्य स्फुरणा होनी चाहिये, तर्क और यान्त्रिक आविष्कार जहाँ थक जाते हैं वहाँ से ईश्वर और आत्मा के अनुभव का आरंभ होता है। समय सिद्ध कर रहा है कि भौतिक उन्नति से संसार में रक्त की नदियाँ ही बह सकती हैं, सच्ची शान्ति तो आध्यात्मिक उन्नति में ही मिल सकती है।

संसार की सब से प्रधान वस्तु आत्मा है, और उसी की उन्नति करना सच्चा कर्त्तव्य है। आत्मिक उन्नति के लिए कहीं वन पर्वतों में जाने की जरूरत नहीं है क्योंकि मन से आत्मा की उन्नति होती है न कि स्थान से यदि स्थान और उपकरणों से ही आत्मोत्थान होता, तो आज धर्म की पवित्र वेदियाँ दुराचार और लूट का केन्द्र न बनीं होती। एकान्त सुविधा-जनक है, परन्तु प्राचीनकाल में जो भोजनादि की सुविधा वनों में थी, वह नष्ट हो जाने के कारण घर का एकान्त ही अधिक उचित है एवं देश में दरिद्री बढ़ जाने और भिखारियों का भार अत्याधिक हो जाने के कारण उस समय कपड़े रंगकर भिक्षा वृत्ति पर उतारना देश के लिए भार रूप और पाप स्वरूप हो। इसलिये उचित है, कि गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए ही उपासना की जाय गृहस्थ धर्मों का पालन करता हुआ राजा जनक की भाँति कोई भी व्यक्ति परम तत्व को प्राप्त कर सकता है और शंकर तथा कृष्ण की तरह योग विद्या का पारंगत हो सकता है।

आत्मा और परमात्मा को पहचानने के लिए अन्तर्मुख होकर दृष्टि प्राप्त करने की आवश्यकता है। गेरुआ या सफेद कपड़ा पहिन ने से इसका कुछ भी सरोकार नहीं है। इस दिव्यदृष्टि को प्राप्त करने के लिए आचार्यों ने चार मार्ग बनाये हैं। इन्हें विवेकपूर्वक काम में लाने से आत्मोन्नति हो सकती है। वह मार्ग यह है

(1) विवेक- सत्य और मिथ्या, हानि और लाभ, को तत्वतः पहिचानने की योग्यता।

(2) विराग- धर्म समझ कर अपने कर्तव्य को पूरा करना। यश लाभ आदि के लालचों में वशीभूत न होना। हर कार्य को निस्वार्थ भावना और परमात्मा बुद्धि से करना।

(3) षट् सम्पत्ति- (शम, दम, उपरति, तितीक्षा, श्रद्धा और समाधान) इनकी व्याख्या इस प्रकार है-

(अ) शम-उपदेशों को श्रवण कर उन पर मनन करना और उनमें तन्मय होकर मन पर शासन करना।

(आ) दम- इन्द्रियों का दमन करके उन्हें अपने वश में करना।

(इ) उपरति- जल में जिस तरह कमल रहता है, उसी प्रकार संसार के सब काम करते हुए भी उनमें अलिप्त रहना।

(ई) तितीक्षा- भली बुरी जैसी भी परिस्थितियाँ आयें उन्हें धैर्य पूर्वक सहन करना।

(उ) श्रद्धा- आत्म-विश्वास। गुरुजनों पर विश्वास करना।

(ऊ) समाधान- कर्म करते हुए फल की प्राप्ति में सन्तोष रखना।

(4) मुमुक्षा- अपने उद्धार की तीव्र इच्छा इन चार साधनों को अपनाये रहने और उनका सतत् अभ्यास करने से आत्मा के मल छूट जाते हैं और उसकी दिव्य ज्योति प्रकट होने लगती है। यदि किसी गुरु की प्रत्यक्ष प्राप्ति न हो, तो भी यह नियम जिज्ञासु का पथ प्रदर्शन करके उसे अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचा देते हैं। यह चिन्ता नहीं करनी चाहिए कि सद्गुरु प्राप्त हुए बिना साधना किस प्रकार करूं? सद्गुरु की प्राप्ति, बिना आत्म सुधार किये नहीं हो सकती क्योंकि जब तक दृष्टि दोष दूर न होगा तब तक उनके सामने खड़े रहने पर भी गुरु को न पहिचान सकेंगे और पहिचान भी लेंगे तो उनसे लाभ न उठा सकेंगे। भूतल का भार उतारने के लिए अनेक बार भगवान् ने अवतार लिया है पर जब वे संसार में रहे कितने लोगों ने उन्हें पहिचाना? अधिकाँश लोग तो उनका विरोध ही करते रहे और उन पर विश्वास न किया, जब कि असंख्य व्यक्तियों ने उनकी सहायता से परम पद प्राप्त किया। इसलिए सब से प्रथम उपरोक्त नियमों को पालन करते हुए आत्म-शुद्धि और दिव्य दृष्टि प्राप्त करनी चाहिए।


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