(राजकुमारी रत्नेशकुमारी ‘ललन’)
योग साधक किसी इष्टदेव की स्थापना करके अपनी साधना को आगे बढ़ाते हैं। पतिव्रत योग की साधिका पति को अपना इष्टदेव मानकर, उसे आत्म समर्पण करती है और उसकी इच्छानु वार्तिनी बनकर अपनी समस्त प्रवृत्तियों और क्रिया पद्धतियों को पति में केन्द्री भूत कर देती है। यह साधन प्रणाली अन्य योग साधनों के समान ही सिद्धि दायिनी है।
पतिव्रत योग अत्यन्त उच्चकोटि का योग साधन होते हुए भी अपेक्षाकृत सरल है। नारी जाति स्वभावतः नर की अपेक्षा कुछ निर्बल होती है, उसका कार्य क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक उलझन भरा होता है, ऐसी दशा में उसकी साधना कुछ सरल होनी भी चाहिये थी। अन्य साधकों के इष्टदेव अदृश्य होते हैं, ध्यान, चित्र, मूर्ति आदि साधनों से वे इष्टदेव की छाया मनोभूमि में अंकित करते हैं तब उसमें तल्लीन होते हैं। पतिव्रत योग की साधिका को वह मूर्ति प्रत्यक्ष सप्राण एवं हंसती बोलती प्राप्त होती है।
योगीजन अपने निजी विकारों का दमन करते हैं, मन को वश में रखते हैं, और आत्म विस्मरण करके इष्ट प्रयोजन में तल्लीन होने का अभ्यास करते हैं। पतिव्रता भी यही करती है। वह अपनी इच्छा, आकाँक्षा, वासना, और रुचि को तुच्छ एवं संकीर्ण मर्यादा में स्वार्थ साधन के लिए प्रयोग नहीं करती वरन् उन्हें पति की इच्छा पर छोड़ देती है। पति को जो प्रिय है वही पतिव्रता को रुचिकर होता है। अपनी निजी इच्छाओं के लिए पति को कष्ट देना, रुष्ट करना, चिन्तित करना या दुखी करना उसे किसी भी प्रकार अभीष्ट नहीं होता, पति की प्रसन्नता एवं सुविधा के लिए स्वयं कठिनाई उठानी पड़ती है उसे तपश्चर्या मानकर खुशी-खुशी श्रद्धा पूर्वक स्वीकार करती है।
जैसे कोई व्यक्ति कितना ही बड़ा प्रलोभन या आकर्षण सामने-आने पर भी अभक्ष पदार्थों की मलमूत्र जैसी घृणित वस्तुओं का भक्षण करने के लिये तैयार नहीं होता वैसे ही सती नारी पर पुरुष की ओर दूषित दृष्टि से आँख उठाकर भी नहीं देखती। वह सभी अन्य पुरुष अपने सगे पिता, भाई एवं पुत्र के समान समझती है। अपने सगे पिता, भाई या पुत्र के प्रति जैसे कोई स्त्री दुष्ट भाव मन में नहीं लाती वैसे ही सती नारी के मन में स्वप्न में भी पर पुरुषों के प्रति कोई दुष्ट विचार नहीं आता। ऐसी निश्छल और निश्चल भक्ति के आधार पर पतिव्रता उस सिद्धि को प्राप्त कर लेती है जिसे योगीजन कठिन जप-तपों द्वारा चिरकालीन साधना के पश्चात् प्राप्त करते हैं।
गीता का निष्काम कर्म योग पतिव्रत साधना में पूर्णतया ओत-प्रोत है। कर्मयोगी, कर्त्तव्य कर्मों को निस्पृह भाव से करता है और फल की इच्छा को परमेश्वर के ऊपर छोड़ देता है। पतिव्रता अपनी निजी संकुचित इच्छाओं को पूर्णतया दमन कर डालती है और कर्त्तव्य धर्म का एकमात्र ध्यान रखकर पति की हित साधना के अनुकूल आचरण करती है। परिणाम स्वरूप यदि उसे पति का प्रेम, आशीर्वाद एवं प्रत्युपकार प्राप्त न हो तो इसकी उसे तनिक भी चिन्ता नहीं होती है। दुर्बुद्धि पतियों के दुर्व्यवहार से एक सती नारी को दुखित होने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि वह पति को प्रत्युपकार रूपी फल पर निर्भर नहीं रहती। उसे तो वह परमेश्वर को सौंप देती है और अपने कर्त्तव्य धर्म का ठीक-ठीक पालन करने में ही अपने साधन की सफलता अनुभव करके प्रसन्न रहती है। इस प्रकार पतिव्रता नारी अपने पति की भौतिक समृद्धि का लोभ न करके उसे इष्टदेव मानती है और इष्ट साधना के लिए सर्वभावेण आत्म-समर्पण करती है। और जीवन के परम लक्ष को प्राप्त करती है।