आचार्य शब्द संस्कृत की ‘चर’ धातु से ‘आ’ उपसर्ग मिलाकर (आ+चर+यत) यत् प्रत्यय द्वारा ‘इन्द्र वरुणादि’ (पा. 4।1।39) सूत्र से बना है। जिसका अर्थ होता है-सदाचारी, सत् आचरण वाला क्रिया शील।
जिनका प्रधान कार्य सद्आचरण में स्वयं प्रवृत्त रहना और दूसरों को प्रवृत्त रखना है वे ही आचार्य पदवी के अधिकारी हैं। शास्त्रों में यज्ञोपवीत देने वाले और वेद पढ़ाने वाले, सदाचारी ब्रह्मवेत्ता को आचार्य कहा गया है। यज्ञोपवीत यद्यपि जनेऊ को कहते हैं पर जनेऊ ही यज्ञोपवीत नहीं है। आत्मा का यज्ञ भावना-त्याग भावना से उपवीत होना, पवित्र होना, यज्ञोपवीत है। सूत्र का जनेऊ उस भावना का प्रतीक मात्र है। कन्धे में सूत्र डाल देना ही यज्ञोपवीत नहीं है वरन् इसी प्रकार वेद यद्यपि हमारी धर्म पुस्तक है परन्तु कुछ मन्त्रों को पढ़ लेने या पढ़ा देने से से ही कोई वेदपाठी नहीं हो सकता है। वेद का अर्थ है- ‘ज्ञान’ अन्तःकरण में सद्ज्ञान का जाग पड़ना वेदाध्ययन का वास्तविक स्वरूप है। इस प्रकार सच्चे यज्ञोपवीत और वेद पाठ कराने वाले सदाचारी ब्रह्मवेत्ताओं को आचार्य कहा गया है। नीचे कुछ ऐसे ही प्रमाण दिये जाते हैं।
“कस्यादाचार्य्य आचारं ग्राह्यत्यचिनो त्यर्थान् अचिनोति बुद्धिमितिवा” नि. 1, 4, 7.22
आचार्य कौन है? आचार्य वह है जो सत् आचरणों को ग्रहण करे व अन्यों को ग्रहण करावे। जिसके समीप रहने से बुद्धिमान और अर्थ साधन की विधि मालूम होती है वह आचार्य है।
उपनीयतुः यः शिष्यं वेदमध्यापयेत् द्विजः
संकल्प सरहन्यंच तमाचार्य प्रचक्षते
मनु.2.140
जो शिष्य को उपनीत करे, यज्ञोपवीत दे अर्थात् पवित्र बनावे और संकल्प सहित रहस्यों समेत वेद (ज्ञान) की शिक्षा दे उसे आचार्य कहते हैं।
यस्तुपनीयं व्रतादेशं कृत्वा, वेदमध्यापयेत्तमाचार्य विधात् बि.स. 91
जो उपनयन (पवित्र) कराता है, व्रत का आदेश करता है और वेद की-ज्ञान की-शिक्षा देता है वह आचार्य है।
आम्नाय तत्व विज्ञानाचराचर समानतः,
यमादि योग सिद्धित्वादाचार्य इति कथ्यते
-वनस्पति म.
तत्व ज्ञान जानने के कारण जो सब चराचरों में समान भाव रखता है, यम नियमादि योग साधनों में सफल है उसे आचार्य कहते हैं।
विधान परिजात का मत है कि जो यज्ञ कर्म का उपदेश करता है वह आचार्य है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ चरक का अभिमत है कि वेदा चार में परिशुद्ध, अखिल कर्मज्ञ, कुशल, दयावान, शुचि, जित हस्त, उपकरण युक्त, सर्वेन्द्रियोपपन्न, प्रकृतिज्ञ प्रतिपत्तिज्ञ, अनुपस्कृत विज्ञ, अनसूय, अकोपन, क्लेश क्षम, शिष्य वत्सल, अध्यापक तथा ज्ञान दान में समर्थ है, वही आचार्य है। इसी तरह के वर्णन हेम. अ. 78 बोपदेव व्याकरण 26।16 तथा त्रिकाण्ड शेष 3, 2, 12 याज्ञवल्क्य संहिता 1-34 में भी आते हैं जिनमें आचार्य के लक्षणों का वर्णन किया गया है।
ऐसे आचार्य ही देव कहे जाते है। मातृ देवों भव, पितृ देवों भव, आचार्य देवों भव। इस श्रुति में आचार्य को देव माना है। उन्हीं द्वारा विद्याध्ययन करने से शिक्षार्थी के ज्ञान नेत्र खुलते हैं। शास्त्रों ने ऐसे ही आचरणों से शिक्षा प्राप्त करने का आदेश किया है। छान्दोग्य उपनिषद् 4।9।3 में कहा गया है-
आचार्या द्वैवहि विद्या विदिता। संधि प्रापयति।
अर्थात् जो शिष्य आचार्य से विद्या प्राप्त करता है वही भाव शाली एवं तेजस्वी बनता है। तैतरेय उपनिषद 1।3।2 को आदेश है कि -
आचार्य्यान्ते वासिनमनुशान्तिः
अर्थात्-शिष्य पर केवल मात्र आचार्य ही अनुशासन रखे।
शिक्षा एक प्रकार का बौद्धिक संस्कार है। इसे करने का अधिकार मात्र उन्हीं के हाथ में होना चाहिये जो इसके उपयुक्त एवं अधिकारी हैं। जिनमें चरित्र बल नहीं है, तत्वदृष्टि नहीं है सद्ज्ञान (वेद) त्याग की पवित्रता (यज्ञोपवीत) से रहित ऐसे ‘टीचरों’ से बालकों को क्या मिलता है यह हम अपने आज के स्कूल कालेजों के छात्रों को देखकर भली प्रकार देख सकते हैं, उद्दण्डता, नम्रता और शिष्टता का अभाव उनमें प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। अनावश्यक एवं हानिकारक फैशन, धूम्रपान, गुप्त रूप से वीर्यपात आदि अनेक तरह के दुर्व्यसनों में वे फँस जाते हैं। सार्टीफिकेट प्राप्त करने में गया धैर्य और मनोबल की बलि उन्हें चढ़ानी पड़ती है। नौकरी करके पेट भरने के अतिरिक्त और कोई महत्वपूर्ण कार्य उनमें नहीं हो सकता। ऐसे दुखदायी और शोचनीय परिणाम तक पहुँचाने वाली शिक्षा का कारण यह है कि सब आचार्यों द्वारा शिक्षा प्राप्त करने की दिशा में चारों ओर उदासीनता छाई हुई है।
जैसे अच्छे चिकित्सक से ही चिकित्सा कराने वाले, अच्छे वकील से मुकदमा लड़ाने वाले, नफे में रहते हैं उसी प्रकार अच्छे अध्यापकों से, आचार्यों से ही शिक्षा प्राप्त करने से जीवन की सर्वतोमुखी उन्नति हो सकती है। द्रोणाचार्य के पढ़ाये हुए पाण्डव, वशिष्ठ के पढ़ाये हुए दशरथ के चारों पुत्र, संदीपन पढ़ाये हुए कृष्ण और समर्थ गुरु रामदास के पढ़ाये हुए शिवाजी थे। शायद उन लोगों ने बी॰ ए॰ एम॰ ए॰ आदि की डिग्रियाँ प्राप्त न की हों पर उनका जीवन इतना सफल एवं महत्वपूर्ण रहा जिस पर आज के हजारों चश्मा धारी ग्रेजुएट बाबू निछावर किये जा सकते हैं।
शास्त्र कहता है- शिष्य पर केवल मात्र आचार्य का ही अनुशासन रहना चाहिए। हमारे समाज के बालक, तरुण और वृद्धों को केवल मात्र आचार्यों से ही सदशिक्षण प्राप्त होना चाहिए। मनुष्य कोरे कागज के समान है उस पर जैसा रंग डाला जाता है वैसा ही वह बन जाता है कपड़े पर जैसा रंग पड़ता है वैसा ही रंग जाता है। फोटोग्राफी के प्लेट के सामने जैसा दृश्य आता है वैसी ही तस्वीर खिंच जाती है। दर्पण के सामने जो खड़ा होगा उसी का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ेगा। हमारे बालक भी इसी प्रकार पूर्णतया निर्मल होते हैं, वे जैसा देखते हैं, जैसा प्रभाव ग्रहण करते हैं वैसे ही बन जाते हैं। नवजात बालक को कसाई को पालने के लिए दे दिया जाय तो वह कसाई बनेगा, यदि वह ब्राह्मण के संरक्षण में रहे तो ब्राह्मणत्व सीखेगा, अंग्रेज के पालन पोषण में रहे अंग्रेजी बोलेगा और यदि रूसी की गोद में पले तो उसकी मातृभाषा रूसी होगी। बालक अपने अभिभावकों से प्रभाव ग्रहण करते हैं और उसी ढांचे में ढलते हैं इसलिए हमें ध्यान रखना चाहिए कि शिक्षक का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व केवल मात्र आचार्यों को ही दिया जाय।