(श्री पं. दीनानाथ भार्गव ‘दिनेश’)
श्री गीताजी में प्रसंग आता है कि मोह के कारण किसी न किसी प्रकार अर्जुन युद्ध को पाप बतला कर उससे बचना चाहता है। अक्सर ऐसा होता है कि कर्त्तव्य च्युत मनुष्य उल्टा सीधा धर्म शास्त्र-प्रमाण आदि से अपने को समझाता है धर्म में सभी अवस्थाओं के विधान मिलते हैं। गृहस्थ के लिए, योगी के लिए, परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग कर्त्तव्य हैं।
यदि हम संन्यासी के कर्त्तव्य राजा होकर करने लगें या राजा के कर्त्तव्य साधारण पुरुष होकर करने लगें और धर्मशास्त्रों की व्यवस्था देने लगें तो यह हमारी भूल होगी। लोक संग्रह की अथवा आत्म सुरक्षा की कुछ चिंता न करने वाले सर्व कर्म त्यागी संन्यासी पुरुष का व्यवहार और अनासक्त तथा निर्वैर रहकर संसार में अनासक्त बुद्धि से बर्तने वाले कर्मयोगी का व्यवहार कभी एक नहीं हो सकता। गृहस्थधर्म, राजधर्म, पतिधर्म, आदि सब अलग-अलग अवस्थाओं के परस्पर विरोधी सिद्धान्तों को मिला कर चाहें जैसी मनमानी धर्म व्यवस्था बना लेने की चाल चल गई है। उससे हम केवल भ्रम में ही नहीं पड़े, बल्कि हमारा राज धर्म और गृहस्थ धर्म नष्ट प्रायः हो गये।
दुष्टों का प्रतिकार न होगा, तो उनके बुरे आचरण से साधु पुरुषों की जान संकट में पड़ जायगी। दुष्टों का दबदबा हो जाने से पूरे समाज और सारे राष्ट्र पर विपत्ति छा जाती है। हमें दुष्टों के दुष्टकर्मों का साधुता से निवारण करना चाहिए, परन्तु यदि ऐसी साधुता से दुष्कर्मों का निवारण न होता हो और दुष्टजन मेल जोल के साथ उपचार की बात न मानते हों, तो काँटे को सुई या आपरेशन से निकाल फेंकना चाहिए।