(लेखक- श्री स्वामी सत्यभक्त जी, वर्धा)
(1)
लोग यात्रा के लिए रेलगाड़ी का उपयोग करते हैं, पर मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि रेल की सवारी खुद भी एक अच्छी यात्रा है। रेल का एक डिब्बा न जाने कितने समाजों और प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करता है। एक ही डिब्बे के भीतर अजायबघर की तरह सारी दुनिया का संक्षिप्त रूप दिखाई देने लगता है और कभी-कभी तो ऐसी चीजें दिखाई दे जाती हैं कि उन्हें देखने के बाद बाहर की चीजों की इच्छा ही नहीं रह जाती। मुझे ही देखो न, पागलखाना देखने के लिए नागपुर उतरने वाला था, पर पर रास्ते में ही मुझे कुछ पागल मिल गये। भला अब पागलखाना जाकर क्या करता?
(2)
वर्धा से पैसेंजर गाड़ी में रवाना हुआ। मेरे पास ही एक मौलवी साहब बैठे थे, एक दूसरे का ‘दौलतखाना गरीबखाना’ होने के बाद कुछ धार्मिक चर्चा छिड़ पड़ी। मालूम हुआ आप हाजी हैं- हज कर आये हैं।
आप ही से मालूम हुआ कि जब आपने हज का संकल्प किया- अहराम के कपड़े पहने-तभी से आप का माँस खाना बन्द हो गया था और तब तक बन्द रहा जब तक आप घर नहीं लौट आये।
मैंने चौंककर कहा- तब तो इस्लाम भी माँस भक्षण के विरुद्ध मालूम होता है। तब इस देश के मुसलमान माँस खाने पर इतना जोर क्यों देते हैं?
बोले- इस्लाम ने हमेशा के लिए माँस खाना बन्द थोड़े ही किया है, सिर्फ हज के लिये किया है।
मैंने कहा- यह तो सिर्फ इशारा कहलाया। मुहम्मद साहब ने राय बताई-उस पर आगे बढ़ना हमारा काम था। अरब में माँस खाना बन्द नहीं हो सकता था पर हिन्दुस्तान में तो हो सकता था और आज हो सकता है तब क्यों न मुसलमान उस राह में आगे बढ़ें।
मौलवी साहब ने कहा- तब तो मुसलमान हिन्दू हो जायेंगे।
मैंने कहा- अगर इतनी से ही मुसलमान हिन्दु कहलाते हो तब तो कहना चाहिए कि हज के समय मुसलमान हिन्दू ही बन जाते हैं।
मौलवी साहब कुछ झेंप कर बोले- मजहब में इस तरह अक्ल नहीं लड़ानी चाहिये।
मैंने कहा- तो मजहब बेअक्लों के लिए है?
मौलवी आप कुछ भी कहिये, पर कुरान शरीफ ने हमें जहाँ तक बढ़ने का हुक्म दिया है उससे एक इंच आगे बढ़ना कुफ्र समझते हैं।
मैं चुप रहा। सोचा- मौलवी जी हैं तो पागल खाने में भेजने लायक, फिर भी उन्हें कुफ्र से तो बचाना ही चाहिए।
मौलवी साहब सिंडी पर उतर गये।
(3)
मौलवी साहब के उतरने से जो जगह खाली हुई थी वहाँ तक पैर पसार कर एड़ा लेना मैंने जरूरी समझा। मेरी जरूरत पूरी भी न हो पाई थी कि उस जगह पर बैठने के लिए आ गये एक पंडितजी। मैंने तुरन्त पैर सिकोड़े और वे जम गये।
एक-दो मिनट में अपना सामान ठीक ठाक करके उनने जरा सन्तोष की साँस ली और फिर मुझसे पूछा-आप की जाति?
मैंने कहा- आदमी।
पंडित जी- सो तो मुझे भी दिखता है, पर उत्तर देने के पहले मेरे प्रश्न का आशय तो समझ लेना था।
मैंने कहा- आशय कठिन नहीं है, वह जल्दी ही समझ में आ गया, पर मेरे उत्तर का मतलब भी तो आप को समझ लेना चाहिए था।
पंडित जी- आपके उत्तर का क्या मतलब है?
मैं- और आपके प्रश्न का क्या मतलब है?
पंडितजी- मैं जानना चाहता था कि आप ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि में से क्या हैं?
मैं- और में आदमी के सिवाय और कोई जाति नहीं मानता।
पंडित जी- क्यों नहीं मानते?
मैं- क्योंकि भगवान ने ये जाति भेद बनाये ही नहीं।
पंडितजी- तो ये जाति भेद बन क्यों गये?
मैं- जीविका की सुविधा के लिए।
पंडितजी- क्या इनका खान-पान आदि से कोई सम्बन्ध नहीं?
मैं-जी नहीं।
पंडितजी- तब तो सब जगह आप जगन्नाथ जी बना देंगे।
मैं- बुराई क्या है? जाति-पांति न मानने के लिए ही तो यह इशारा है।
पंडितजी- पर इशारे से आगे बढ़ना अधर्म है। मुझे हंसी आ गई, लेकिन मैं चुप रहा। पर मन ही मन कहा- पागल नम्बर-2।
इसके बाद नागपुर तक पंडितजी से कोई बात न हुई।
(4)
नागपुर स्टेशन से जब मैं बाहर निकला तब मेरा ध्यान एक भीड़ की तरफ खिंच गया। भीड़ के बीच में दो आदमी खड़े थे। एक दूसरे अध नंगे आदमी ने दूसरे आदमी की उंगली पकड़ ली थी। दूसरा उसे छुटाने की कोशिश कर रहा था और शब्दों से बिगड़ता भी जाता था।
पूछने पर मालूम हुआ कि इस अध नंगे आदमी ने दूसरे आदमी से इतवारी का रास्ता पूछा था। और जब दूसरे आदमी ने उँगली से रास्ता बताया तब उसने दूसरे आदमी की उँगली पकड़ ली और बोला- बस, अब यह उँगली न छोड़ूंगा। यही तो रास्ता है।
मैंने आश्चर्य से मन ही मन कहा- यह तो उन्हीं मौलवी साहब और पंडितजी का भाई बन्धु मालूम होता है। इतने में पुलिस के दो जवान दौड़ते हुए आये और उनने उस अधं नंगे आदमी को पकड़ लिया और दो तीन तमाचे भी जड़ दिये। उन्हीं से मालूम हुआ कि यह पागल खाने का पागल है किसी तरह पहरेदारों की आँख दबाकर भाग आया है। अब मैं समझा कि उँगली में या उँगली तक ही रास्ता समझने की बेवकूफी वह क्यों कर गया।
सिपाही उस पागल को पागलखाने ले गये। मैं प्लेटफार्म की तरफ मुड़ा। सोचा आज ही तीन पागल देख चुका हूँ, दुनिया में पागल ही पागल भरे पड़े हैं अब पागल खाना देखने और कहाँ जाऊं?