चतुर्मुखी ब्रह्मा

August 1946

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भगवान्- ब्रह्म की चौथी शक्ति भगवान है, भगवान भक्तों के वश में होते हैं। भक्त जैसे चाहते हैं उन्हें नचाते हैं, भक्त जिस रूप में उनके दर्शन करना चाहते हैं उसी रूप में प्रकट होते हैं और उनसे जो याचना या कामना करते हैं उसे पूरा करते हैं। भगवान् की कृपा से भक्तों को बड़े-बड़े लाभ होते हैं। परन्तु यह भी स्मरण रखने की बात है कि वे केवल भक्तों को ही लाभ पहुँचाते हैं, जिनमें भक्ति नहीं है उनको भगवान से कुछ भी लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। अनेक देवी देवता भगवान के ही रूप हैं। जिस देवता के रूप में भगवान का भजन किया जाता हैं, उसी रूप में वैसे ही फल उपस्थित करते हुए भगवान प्रकट होते हैं।

भगवान की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। आत्मा के सशक्त क्रिया रूप को भगवान कहते हैं। आत्मा अनन्त शक्तियों का पुँज है उसकी जिस शक्ति को प्रदीप प्रचण्ड एवं प्रस्फुटित बनाया जाय वह शक्ति एक बलवान देवता के रूप में प्रकट होती और कार्य करती है। किसी पक्के गुम्ददार मकान में आवाज करने से वह मकान गूँज उठता है। आवाज की प्रतिध्वनि चारों ओर बोलने लगती है, रबड़ की गेंद को किसी दीवार पर फेंककर मारा जाय तो जितने जोर से उसे फेंका था टक्कर खाने के बाद यह उतने ही जोर से लौट आती है। इसी अन्तराल शक्तियों को विश्वास के आधार पर जब एकीकरण किया जाता है तो उससे आश्चर्यजनक परिणाम उत्पन्न होते हैं।

सूर्य को किरणों को आतिशी शीशे के द्वारा एक केन्द्र बिन्दु पर एकत्रित किया जाय तो इतनी गर्मी उत्पन्न हो जाती है कि उस केन्द्र में अग्नि जलने लगती है। मानसिक शक्तियों को किसी इष्टदेव को केन्द्र मानकर यदि एकत्रित किया जाय तो एक सूक्ष्मदर्शी चेतना उत्पन्न हो जाती है यह श्रद्धा निर्मित सजीव चेतना ही भगवान है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामायण में ‘भवानी शंकरौ बन्दे श्रद्धा विश्वासरुपिणौ’ श्लोक में यही भाव प्रकट किया है। उन्होंने भवानी तथा शंकर को श्रद्धा विश्वास बताया है। श्रद्धा साक्षात भवानी है और विश्वास साक्षात शंकर है। विश्वास मनुष्य को मृत्यु के मुख में से बचा सकता है और जीवित मनुष्य को क्षण भर में रोगी बना कर मृत्यु के मुख में धकेल सकता है। “शंका डायन-मन सा भूत” कहावत किसी बड़े अनुभवी ने प्रचलित की है। चित से उत्पन्न हुई शंका डायन बन जाती है और मन का भय भूत का रूप धारण करके सामने कडुए पानी को जहर बना देने की और मृत्यु का खतरा उत्पन्न करने की शक्ति विश्वास में मौजूद है। केवल घातक ही नहीं निर्माणात्मक शक्ति भी उसमें है। कहते हैं ‘मानो तो देव नहीं तो पत्थर सो है ही।’ पत्थर को देव बना देने वाला विश्वास है। विश्वास की शक्ति अपार है। शास्त्र कहता है “विश्वासो फलदायकः।”

हम अपनी ‘ईश्वर कौन है? कहाँ है? कैसा है?’ में गायत्री की चमत्कारी साधना में ब्रह्मविद्या के रहस्योद्घाटन पुस्तकों में सविस्तार यह बता चुके हैं कि मन्त्र शक्ति तथा देवशक्ति और कुछ नहीं आत्म शक्ति या इच्छा शक्ति का दूसरा नाम है ध्यान जप, अनुष्ठान आदि की योगमयी साधनाएं एक प्रकार के मानसिक व्यायाम है। जैसे शारीरिक व्यायाम करने से देह पुष्ट होती हैं और निरोगता, सुन्दरता, दीर्घायु, भोग सुख, सहन शक्ति, धन उपार्जन तथा कठिन कष्ट साध्य कामों को पूरा करने की प्रत्यक्ष सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं वैसे ही मानसिक साधनाओं द्वारा, आराधना उपासना द्वारा, मनोबल बढ़ता है और उससे नाना प्रकार की अलौकिक शक्तियों से जो कार्य पूरे होते हैं वे किसी दूसरे के द्वारा प्राप्त नहीं होते वरन् अपने ही पुरुषार्थ द्वारा अपनी ही आत्म शक्तियों द्वारा उपलब्ध होते हैं। साधना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा आत्म शक्तियाँ बलवान होती हैं और मन चाहे परिणाम उपस्थित करती हैं।

भक्त, भगवान का पिता है। अपनी भक्ति द्वारा, साधना द्वारा वह अपने भगवान को उत्पन्न करता और पुष्ट करता है। जो अपने भगवान को जितना भक्ति का, साधना का, दूध पिलाता है उसका भगवान उतना ही बलवान हो जाता है और जितना उसमें बल होता है उतना ही महत्वपूर्ण परिणाम उपस्थित कर देता है। प्रहलाद का भगवान इतना बलवान था कि खम्भा चीर कर नृसिंह रूप में निकल पड़ा और हिरण्यकश्यप का पेट चीर डाला। नरसी भक्त का भगवान हुण्डी बरसा सकता था। परन्तु हमारे भगवानों में वह बल नहीं है। किसी के भगवान स्वप्न में या जागृत अवस्था में दर्शन दे सकते हैं। किसी के भगवान भविष्य का कोई संकेत कर सकते हैं। किसी के भगवान विपत्ति में सहाई हो सकते हैं। तात्पर्य यह कि जिसने अपने भगवान को जिस योग्य बनाया होगा वह वैसे वरदान देने के लिए वैसी सहायता करने के लिए वह तैयार रहेगा।

वस्तुतः मनोबल ही भगवान है। मनोबल को बढ़ाने के तरीके अनेकों हैं। योग साधना का भारतीय तरीका ही एक मात्र उपाय नहीं हैं, संसार में अनेकों साधन और उपाय इसके हैं। विश्वास के आधार पर मनोबल बढ़ता है। कई व्यक्ति बिना योग साधना के भी अपने स्वावलम्बन आत्मविश्वास, अध्यवसाय, साहस, सत्संग एवं पराक्रम द्वारा अपना मनोबल बढ़ा लेते हैं और वही लाभ प्राप्त करते हैं जो भक्तों को भगवान प्रदान करते हैं। अनेक अनीश्वरवादी व्यक्ति भी बड़े सिद्ध हुए हैं, राक्षस लोग देवताओं से अधिक साधन सम्पन्न थे, असुरों को बड़े-बड़े अद्भुत वरदान प्राप्त थे, आज भी वैज्ञानिक लोग बड़े बड़े अद्भुत आविष्कार कर रहे हैं। विद्वान विद्या के और धनी धन के चमत्कार दिखा रहे हैं। इस सब के मूल में उनकी मानसिक विलक्षण शक्तियाँ काम कर रही हैं। यह भगवान की ही कृपा है। भगवान को सुर और असुर सभी बिना भेदभाव के प्रसन्न कर सकते हैं, उनका अनुग्रह और वरदान प्राप्त कर सकते हैं।

ब्रह्म की मूल सत्ता निर्लिप्त है वह नियम रूप है, व्यक्तिगत रूप से किसी पर प्रसन्न अप्रसन्न नहीं होती। उस पर आराधना, पूजा या निन्दा से कोई प्रभाव नहीं होता। अग्निदेवता को गाली देने वाले या पूजा करने वाले में भेद करने की कोई आवश्यकता नहीं। जो भी उसके नियमों के अनुरूप चलेगा लाभ उठावेगा और जो अग्नि को अनियमित रूप से छुवेगा निश्चयपूर्वक जल जायगा। आत्मा का, ईश्वर का, विष्णु का यही नियम है। पर भगवान की लीला विचित्र है वे भक्त वत्सल हैं। उन्हें जो जिस भाव से भजता है कुएं की आवाज की तरह से उसे वैसे ही भजने लगते हैं। कीर्तन, कथा, जप, तप, पूजा, पाठ, ध्यान, भजन यह भगवान की प्रसन्नता के लिए ही है श्रद्धा और विश्वास भगवत् प्राप्ति का मूल साधन है। यदि श्रद्धा या विश्वास न हो तो सारे अनुष्ठान निष्फल हैं।

भगवान् से आत्मबल से, आस्तिक नास्तिक सभी अपने अपने ढंग से लाभ उठाते हैं। संसार के महापुरुषों की जीवनियाँ पढ़ने का उनके अद्भुत आश्चर्यजनक कार्यों का जो विवरण मिलता है उससे हम आश्चर्यान्वित रह जाते हैं और सोचते हैं कि किसी देवता की कृपा से ही वे इतने बड़े कार्यों को पूरा कर सके होंगे। वह देवता भगवान है जिसे मनोबल भी कहते हैं। प्रयत्न से, साधना से, विश्वास से, श्रद्धा भक्ति से, मनोबल बढ़ता है और फिर उसकी सहायता से बड़े-बड़े कठिन कार्य पूरे हो जाते हैं। मैस्मरेजम विद्या जानने वाले अपने अकिंचन मनोबल से बड़े-2 खेल दिखाते हैं। यह बल अधिक हो जाता है तो जिस दिशा में भी चाहे बढ़ता जाता है। अनायास, अप्रत्याशित सुअवसर भी उसे प्राप्त होते हैं। धन को देखकर धन वैभव को देखकर वैभव और सौभाग्य को देखकर सौभाग्य अपने आप अनायास टपक पड़ते हैं। इन अनायास लाभों में भी सबल की सहायता का ईश्वरीय नियम काम किया करता है।

भगवान् कल्पवृक्ष हैं। उन्हें जो जिस भाव से भजता है, उसकी इच्छा पूर्ण करते हैं। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि मन-तत्व के जिस पहलू को बलवान बना लेता है उसे उसी दिशा में पर्याप्त सफलताएं मिलती हैं।

इस प्रकार चतुर्मुखी ब्रह्म (ब्रह्मा) की क्रिया पद्धति इस सृष्टि में दृष्टिगोचर हो रही है। उपनिषदों में इसे चार वर्ण वाला ब्रह्म भी कहा गया है। सत् प्रधान आत्मा को ब्राह्मण शासनकर्ता स्वामी ईश्वर को क्षत्रिय, लक्ष्मीपति विष्णु को वैश्य एवं भक्त के वश में पड़े हुए, भक्त को इच्छानुसार कार्य करने वाले भगवान को शूद्र कहा है। यह चार भेद उसकी शक्तियों का रूप समझने समझाने के लिए आचार्यों ने उपस्थित किया है। वस्तुतः ब्रह्म एक ही है उसकी चार शक्तियों के आधार पर चार वेद बने हैं परन्तु वस्तुतः उसकी अनन्त शक्तियाँ है और वह मनुष्य की बुद्धि की पहुँच से बहुत अधिक आगे है।


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