मैं अमर हूँ (kavita)

August 1946

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(श्री. लक्ष्मी प्रसाद जी मिश्र)

अमर है, इतिहास मेरा!

क्षुद्र हूँ, राई सदृश हूँ, किन्तु गिरि से भी बड़ा हूँ!

फूल से भी हूँ सुकोमल, औ कुलिश से भी कड़ा हूँ!

खटकता है, विश्व-दृग में, इसलिए अधिवास मेरा!

अमर है इतिहास मेरा!

चेतना-हत जड़ कहो, पर, चेतना का ओक हूँ मैं!

ज्योति की गंगा बहाता, नव, मधुर आलोक हूँ मैं!

पवन में, दिक् भू गगन में, तारकों में हास मेरा!

अमर है इतिहास मेरा!

क्या पता दूँ, विश्व तुमको, बिन्दु में ही सिन्धु हूँ मैं!

है, सृजित ब्रह्माण्ड जिसमें, - एक वह परमाणु हूँ मैं!

मैं अनेकों, एक हूँ, नव रूप रस मय रास मेरा!

अमर है इतिहास मेरा!

शिशिर के, शीतल पवन ने, सुमन दल से जब गिराया!,

लिपट तब मानव-चरण में, स्वर्ग का आनन्द पाया!

प्रेम पथ की ठोकरों में, है छिपा मधु मास मेरा!

अमर है इतिहास मेरा!

-’विश्वामित्र’

*समाप्त*


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