(ले.- ब्रह्मचारी श्री प्रभुदत्त शास्त्री बी. ए.)
मनुष्य शरीर धारण करने मात्र से कोई सच्चा मानव नहीं बनता। अपितु जो जितना ही विचारवान होता है वह अपने मनुष्य नाम को उतना ही सार्थक करता है। विचार करने से ही मनुष्य अपनी सर्वविध उन्नति कर सकता है, बिना विचार के किया हुआ कर्म सफलता का कारण नहीं बनता। अतएव वेद भगवान के आदेश हैं ‘मनुर्भव’ अर्थात् मनन-विचार-शील बन। ‘मनुष्याः कस्मान्? मत्वा कर्माणि सीव्यन्ति,’ विचारपूर्वक कर्म करने से ही मनुष्य कहलाता है। बिना विचार के कोई भी महान कर्म नहीं बन सकता, अपितु हास्य का कारण ही होता है।
अब यह भी विचारना चाहिये कि विचार होता किससे है? हम दिन भर में अनेकों काम बिना विचारे ही करते ही रहते हैं और किसी में सफलता किसी में विफलता होती ही रहती है। परन्तु थोड़ा ध्यान करने से ज्ञात होगा कि उनमें से बिना समझे विचारे किये गये अधिकाँश कर्म व्यर्थ एवं निष्प्रयोजन ही होते हैं। संकल्प और विकल्प करना मन का धर्म है, किन्तु विचार करना अर्थात् कर्म के गुण दोष एवं परिणाम पर ध्यान देकर निश्चय करना यह बुद्धि का काम है। अज्ञ एवं ठीक विचार रखने के लिये बुद्धि शुद्ध एवं तीव्र होनी चाहिये। बुद्धि के निर्मल एवं शान्त होने पर विचार यथार्थ हो सकेगा और ‘विचार परमज्ञानम्’-विचार ही परम ज्ञान है। बुद्धि को शुद्ध करने एवं विचार के योग्य बनाने के लिए ही तो श्रुति भगवती में महामंत्र गायत्री द्वारा ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ की प्रार्थना का विधान किया गया है। जब व्रत पूर्वक शुद्ध हृदय से गायत्री द्वारा प्रभु से सच्ची हार्दिक प्रार्थना की जाती है तभी ‘ददामि बुद्धियोगम्’ की झंकार सुनाई पड़ती है और जिज्ञासु की मनोऽभिलाषा पूर्ण होती है। प्रार्थना से प्राप्त की हुई दैवी प्रसादी-बुद्धि द्वारा जो विचार किया जाएगा वह अभीष्ट की सिद्धि करायेगा यह निश्चित है। श्री वसिष्ठ जी ने मुक्ति के चार द्वारपालों में एक ‘विचार’ की भी गणना की है।
हम कहाँ से आये हैं? क्यों आये हैं? कहाँ जायेंगे? क्या करने से हमारा यथार्थ हित होगा? हम दूसरों का क्या भला, उपकार करते हैं? उन्नति क्या है? अवनति के क्या कारण हैं? सफलता कैसे प्राप्त हो? दुःखों से सर्वथा पीछा कैसे छूट सकता है? इत्यादि अनेक परम आवश्यक प्रश्न हैं जिन पर सदा विचार करते रहना चाहिये, जिनसे मानवता की सफलता प्राप्त हो सके।
यद्यपि सभी मानव कुछ न कुछ सदा ही विचार करते हैं कोई क्षण भी बिना विचार या कर्म के नहीं रहता परन्तु हमारा विचार से तात्पर्य उस चिन्तन से है जो हमारी मुक्ति का कारण हो और हमें हमारी वर्तमान स्थिति से उन्नति की ओर अग्रसर करे। एक गरीब-दीन व्यक्ति निरन्तर अपनी दुःस्थिति का चित्रपट अपनी आँखों के सामने रखे और हाय मैं कितना अभागा हूँ, मेरी कैसी दुर्दशा है, मैं कितना पतित हूँ,’ आदि निराशात्मक विचारों में फँसा है, तो वह विचार नहीं, वह तो प्रलाप-कल्पना है। ऐसी स्थिति में उसे मेरी विपत्ति का क्या कारण है? इस दुर्भाग्य का अन्त शीघ्रता से कैसे करना चाहिये? इस पतित अवस्था से मुझे कौन-2 शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये? निश्चय ही यह मेरे लिये वरदान बन कर आई है, मैं इससे बड़ा उपयोगी पाठ लूँगा, वह मुझे आत्म शक्ति का मान कराने आई है। इस प्रकार के आशात्मक विचार करने चाहिये, ऐसा करने से उस दशा से शीघ्र छुटकारा हो सकता है। फिर आगे के लिये उस अवस्था के कारण का ज्ञान होने पर उससे बचने का सदा विचार रहना चाहिये, तभी दुःख से निवृत्ति हो सकती है। पशु में और मनुष्य में अन्तर यही है कि मनुष्य विचार से काम करता है, किन्तु जो मनुष्य होकर बिना विचारे कार्य कर रहे हैं वे पशु के समान दशा को प्राप्त होते हैं। अतः हमको सर्व कर्मों के पूर्व उचित अनुचित का विचार करना चाहिये। संसार में उन्नति विचारवानों ने ही की है। विचार हमारा परम हितैषी सखा है। इससे हम कभी पृथक न होंगे। हमारे उद्देश्य को विचार ही प्राप्त करायेगा। इसमें सन्देह नहीं है।