(ले.- महात्मा जेम्स ऐलन)
शुद्ध हृदय तथा दोष रहित जीवन ही सत्य है। सिद्धान्तों तथा मत समूहों में सत्य नहीं। हृदय शुद्धि जीवन की पवित्रता, करुणा, प्रेम तथा पर हितेच्छा के ऊपर ही सब धर्म दीक्षा देते हैं। वे सुकर्म करने का और पाप तथा स्वार्थपरता त्यागने का उपदेश देते हैं। ये बातें, सिद्धान्त ईश्वर शास्त्र तथा मतों से कुछ सम्बंध नहीं रखती। ये क्रियात्मक हैं, अभ्यास करने के लिए हैं और जीवन में व्यवहार के रूप में आचारणीय हैं। लोगों में इन बातों पर मतभेद नहीं होता क्योंकि वे तो प्रत्येक मत द्वारा प्रतिपादित सच्चाइयाँ हैं। तब आखिर मतभेद किस बात के लिए होता है केवल मीमाँसा तथा ईश्वर शास्त्रों के विषय में ही।
सत्य और वास्तविकता सब देश और सब काल में अपने ही रूप में रहती हैं। पवित्र ईसाई और पवित्र बौद्ध में कुछ भी अन्तर नहीं, दोनों में हृदय की शुद्धता, जीवन की पवित्रता, निदान आकाँक्षायें और सत्य प्रेम पाये जाते हैं। बौद्ध धर्मावलम्बी के सुकर्म ईसाई से भिन्न हों। पाप के लिए प्रायश्चित, दुर्विचार तथा दुष्कर्म के लिए चिन्ता केवल ईसाइयों के हृदय में ही नहीं वरन् सब धर्मावलम्बियों के हृदय में उत्पन्न होती है। सहृदयता की बड़ी आवश्यकता है। प्रेम अनिवार्य है। एक ही प्रकार के मौलिक सिद्धान्तों के कारण सब धर्म एक हों किन्तु मनुष्य इन सत्यों में रत नहीं होता। वह उन वस्तुओं के मतों तथा मीमाँसाओं में उलझता है-जो अनुभव तथा ज्ञान की सीमा के परे हैं, जो केवल अपने मन विशेष की इच्छा तथा प्रचार में ही फूटते हैं और परस्पर मुठभेड़ करते हैं।