स्वार्थ को नहीं, परमार्थ को महत्व दीजिए।

September 1945

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अपने दृष्टिकोण को सेवा धर्म से ओत-प्रोत बना लेने से अन्तःकरण को असाधारण शक्ति प्राप्त होती है। जीवन में पग-पग पर उल्लास बढ़ता जाता है। क्रूरता, कुटिलता, छल, पाखंड से जो मानसिक उद्वेग उत्पन्न होता है वह जीवन को बड़ा ही अव्यवस्थित, अशान्त एवं कर्कश बना देता है। मानव जीवन में जो आध्यात्मिक अमृत छिपा हुआ है वह स्वार्थी लोगों को उपलब्ध नहीं हो सकता। जो व्यक्ति अपने ही सुख का ध्यान रखता है, अपनी ही चिन्ता करता है और दूसरों के स्वार्थों की परवाह नहीं करता, वह विषम विपत्ति में फँस जाता है। सब लोग उससे घृणा करते हैं। कोई भी उसे सच्चे दिल से प्यार नहीं करता। स्वार्थी मनुष्य कुछ सम्पदा इकट्ठी भले ही कर ले, परन्तु वह असल बहुत घाटे में रहता है, उसकी सारी मानसिक सुख शान्ति नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है।

परमार्थ, सेवा, त्याग और निस्वार्थ प्रेम-व्यवहार को अपनी प्रमुख नीति बना लेने से अपना जीवन आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है। शत्रु भी उससे घृणा नहीं करते। सेवा से संतुष्ट हुए अनेक लोगों के आशीर्वाद, सद्भाव, शुभ- संकल्प, देवताओं की भाँति पुष्प वृष्टि करते रहते हैं। अदृश्य लोक अपने ऊपर अमृत वृष्टि होती हुई वह सेवा भावी मनुष्य अनुभव करता है। जीवन का अमर फल उसी को प्राप्त होता है जो स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ को अधिक महत्व देता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: