(श्री स्वामी सत्यदेव जी परिव्राजक)
वह पुरुष धन्य है जिसका मन कलुषित विचारों से शून्य हो। जिसके हृदय में कभी बुरी वासना का प्रवेश नहीं होता, जिसकी वाणी शुद्ध और निर्मल भावों से सदा सनी रहती है।
सचमुच उस पुरुष की कीर्ति महान है। जिसके ओठों से कभी अपवित्र शब्द न निकला हो, जिसकी मानसिक तरंगें सदा दैवीय-ज्योति के समुद्र में लहर मारती रहें, जिसने स्वप्न में भी अश्लील भावना का विचार न किया हो।
आओ, संसार में उस मनुष्य या स्त्री की तलाश करें जो बुराई से बिल्कुल अनभिज्ञ है, जिसके वार्तालाप में पवित्रता का मधुर रस हो, जिसके चेहरे पर दुर्विकारों का एक भी चिह्न न हो, जो सिर से पैर तक पवित्रता की मूर्ति हो। यदि ऐसा पुरुष या स्त्री मिल जाय तो उसके चरणों में सिर धर कर प्रणाम करो। ऐसी ही आत्माओं में ईश्वरीय शक्ति की विभूति है, उन्हीं के विमल प्रकाश से संसार प्रकाशित होता है।
पवित्रता, जीवनादर्श की प्राप्ति का सबसे श्रेष्ठ साधन है। वह मनुष्यत्व का सबसे बड़ा उच्च लक्षण है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के जीवन में यह एक खास बात थी कि वे सच्चरित्रता के उपासक थे। जिस किसी साधु या संन्यासी के जीवन में वे जरा भी अश्लीलता देखते, उससे वे सदा दूर रहते थे। उनमें अपवित्रता सहन करने की आदत न थी। इसी उच्च गुण के कारण वे अपने वीर्य की रक्षा कर सके और उन्होंने बाल ब्रह्मचारी की पुनीत पदवी प्राप्त की।
हमने बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों को अश्लील मजाक करते देखा है। ऐसे लोगों पर उनकी विद्या ने कुछ भी प्रभाव नहीं डाला। वे उद्यान में रहने वाले उस माली की तरह है जो केवल पेट भरने के लिए वृक्षों और पौधों का लालन-पालन करना जानता है।
सर आइजक न्यूटन अपने पवित्र जीवन के लिये प्रसिद्ध थे। उनके एक मित्र ने एक बार उनके सामने गंदी कहानी कह दी। बस वह उसकी मित्रता का अन्तिम दिन था। इसके बाद न्यूटन महोदय ने कभी उसे नहीं अपनाया।
पवित्रता की सुरभि अपने ढंग में न्यारी है। उसकी प्रशंसा करने की जरूरत नहीं, उसके लिए लम्बे-लम्बे व्याख्यानों की आवश्यकता नहीं। पवित्र जीवन वाले पुरुष को आप कोठरियों के अन्दर बन्द करके बिठा दीजिए, उसके जीवन की मीठी-मीठी सुगंधि आप ही आप उन दीवारों को भेदकर बाहर फैलने लगेगी और संसार उस सुरभि स्त्रोत के समीप स्वयं ही पहुँच जायगा।
कभी भी अश्लील, गंदे, अपवित्र विचारों को अपने अन्दर स्थान न देना चाहिये। वे विचार उस विषैले साँप की तरह हैं जो यमराज के दूत हैं। जिसके कान में वे पड़ जाते हैं, जहाँ उनका प्रवेश हो जाता है, वहीं तबाही आ जाती है। इसलिए सदा निरोग, शुद्ध, भावों को अपनाना उचित है।
दुर्व्यसनों की आग से बचने के लिये सर्वोत्तम मार्ग यह है कि मनुष्य का हृदय पवित्र हो। यदि हृदय में अश्लीलता भरी हुई है तो वाणी और कर्म से अश्लीलता दूर हो नहीं सकती। हम अंदर की गंदगी को बाहर सुगंधित पदार्थों द्वारा छिपा नहीं सकते। बाहर से यदि कितनी ही लीपापोती कीजिए तो भी अंदर की दुर्गंध फूट कर निकल ही आएगी। कभी न कभी, आप जब सावधान हों, जब आप अकेले में बैठें हुए हों और समझते हों कि वहाँ कोई आपको नहीं देखता हो, रात को स्वप्न में कभी न कभी वह पाप का भूत अपनी डरावनी सूरत दिखला ही देगा।
अपने जीवन के बही खाते को साफ रखो। जैसे आप अपने कपड़ों को दाग से बचाते हैं, जैसे आप अपनी सफेद पगड़ी पर धब्बा लगाने देना नहीं चाहते, जैसे आप अपने मुँह को साफ सुथरा रखने की चेष्टा रखते हैं, इससे कहीं ज्यादा यत्न अपने चरित्र को पवित्र रखने का कीजिए, आपका गौरव इसी में है कि आपका चरित्र निर्मल हो। आपकी और कोई अंगुली न उठा सके और यदि अंगुली उठे तो वह आपके शुद्ध चरित्र की पताका स्वरूप हो।
ऐसे लोगों से कभी मित्रता न करो जिनकी बातें कहते हुए आप अपनी माता, भगिनी के सम्मुख लजावें। वह लज्जा आपके अंतरात्मा की आवाज है जो आपके उस दुराचारी साथी से दूर हटने का उपदेश देती है।
उस मनुष्य से मिलकर कितनी प्रसन्नता होती है जिसको आप अपने घर में निस्संकोच ले जा सकते हैं, जो यद्यपि विद्वान नहीं परन्तु शुद्ध चरित्र है, जिसके सुपुर्द आप अपना घर-द्वार, बाल-बच्चे आदि कर निश्चिंत घूम सकते हैं। ऐसे पुरुषों का समाज में कितना अभाव है।
हमें ऐसी पवित्रता नहीं चाहिए, जो जंगलों में ही फल-फूल सके, जिसके लिए भस्म रमाने की आवश्यकता हो। हमें उस पवित्रता की जरूरत है जो संसार के प्रलोभनों का सामना करे, जो समाज में अपने उत्तरदायित्व को समझे, जो मनुष्यत्व से रंगी हुई हो, जो संसार की बुराइयों को परास्त कर उन्नतोन्मुख होकर चले। ऐसी पवित्रता से ही जातियों का उत्थान हुआ करता है।
चरित्र की पवित्रता से बढ़कर कोई खजाना नहीं है। इससे बढ़कर कोई शक्ति नहीं है। निर्मल चरित्र वाला पुरुष जिस समय खड़ा होता है, पाप उस समय थर-थर काँपने लगता है। पापी पुरुषों में जो शुद्ध निर्मल भावनाएं सुषुप्ति अवस्था में होती हैं वे चैतन्य हो जाती हैं। उस समय एक अनुपम दृश्य देखने में आता है। पापी पुरुषों की वे निर्मल भावनाएं चैतन्य होकर सच्चरित्र पुरुष की पवित्रता का स्वागत करने के लिये खड़ी हो जाती हैं, उस समय पाप लज्जा के मारे गर्दन नीचे कर लेता है और पवित्रता की जय ध्वनि संसार में गूँजती है।