डरो मत

September 1945

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(श्री हरिभाऊ जी उपाध्याय)

मनुष्य और भय दोनों परस्पर-विरोधी शब्द हैं। जो नर-नारायण का अंश है-नहीं, स्वयं नारायण ही है-उसके समीप भय कैसे रहता है? भय का अस्तित्व तो अज्ञान में है। अरे अज्ञानी, अपने स्वरूप को पहिचान। देख-सूरज को देख, यह तेरे ही प्रकाश से चमक रहा है। आग की आँच तेरे ही चैतन्य का प्रतिबिम्ब है। चन्द्र तेरी ही शान्ति का प्रतिनिधि है अरे, तू प्रकृति का-चराचर का राजा है, राजा-गुलाम नहीं। दुनिया के बड़े-बड़े बादशाह तेरे हाथ के खिलौने हैं। राम बादशाह की भाषा में तेरी शतरंज की मोहरे हैं। जिन शक्तियों से आज तू डरता है, जिन्हें तू भयंकर और भीषण समझता है, वे तेरी हुँकार के साथ लोप हो जायेंगे। तू अपने को पहचान तो। तू देखेगा सारे संसार में तू ही तू है। सब तेरा है- सबका तू है।

क्या तू इस रहस्य को जानना चाहता है? मनुष्य की करामात, उसकी शक्तियों के अद्भुत चमत्कार को देखना चाहता है तो निर्भयता सीख। भय भूत की तरह है। भूत को जहाँ माना नहीं कि वह पीछे लगा नहीं। भय मनुष्य जाति का अपमान है। भय खाना और भय दिखाना दोनों मनुष्य धर्म के विपरीत हैं। दोनों कायरता के भिन्न-भिन्न रूप हैं। जो दूसरों पर भय का प्रयोग करता है। उन्हें डराता है। वह खुद निर्भय नहीं हो सकता, उसकी आत्मा कभी नहीं उठ सकती। भय दिखाना पशुता है। भय खाना पशु से भी नीचे गिरना है।

पर आश्चर्य तो यह है कि जिसका भय हमें रखना चाहिए उसका भय तो हम रखते नहीं, पर जिसका भय हमारे पतन का, नाश का बीज है उन्हें हमने अपना मित्र बना लिया है। मनुष्य समाज में पाप का और ईश्वर का भय आज कितना है? दूसरे सैकड़ों भयों ने पाप और ईश्वर के भय को भगा दिया है और वहाँ अपना अड्डा जमा लिया है। मनुष्य, चेत! तुझे आज चोरी करने का भय नहीं, भोले-भालों को ठगने का लूटने का डर नहीं, शराब बेचने और पीने का भय नहीं, अपनी बहनों के सतीत्व भंग करने का डर नहीं, गरीबों को सताने का भय नहीं, झूठ बोलने, प्रतिज्ञा, तोड़ने, धोखा देने और बेईमानी करने का डर नहीं, अपने मतलब के लिए उन पर अत्याचार करने का डर नहीं, अरे क्या तुझे अपनी आत्मा के कल्याण का ख्याल नहीं? क्या तुझे सचमुच आँखें नहीं? परन्तु डरता है मिट्टी के पुतले से, लोहे के टुकड़े से, पत्थर की कंकड़ियों से, कमजोर और पापी आत्माओं से! अरे, इनमें दम क्या है? तू फूँक मार फूँक? ये भूसी की तरह उड़ जायेंगे। पर तू पहले अपने अज्ञान को छोड़! मनुष्यत्व को जान, उसका अभिमान रख। भय को घर में से निकाल दे। इससे तू अहिंसा के मर्म को समझेगा। तेरे हृदय में निर्मल ओर दिव्य प्रेम का प्रकाश होगा। संसार तुझे अपना मित्र मानेगा-तेरे चरण चूमेगा। अपनी पाशवीय शक्तियों को मुझ पर न्यौछावर कर देगा।

=कोटेशन============================

उद्योग करते रहो, संसार का सार उद्योग ही है। उद्योग से ही कीर्ति प्राप्त होती है।

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दूसरों की सेवा अपनी ही सेवा करना है। अपने आप को वश में करने से ही पूर्ण मनुष्यत्व मिलता है।

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जो मनुष्य जितेन्द्रिय, निर्विकार तथा अभिमान रहित है। उससे देवता भी ईर्ष्या करते हैं।

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