पुरुषार्थ पूर्ण प्रार्थना

September 1945

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ईश्वर प्रार्थना से सकाम कामना की सिद्धि होती है या नहीं? यह प्रश्न साधकों के मन को सदा ही उद्विग्न किया करता है। कारण यह है कि दोनों ही प्रकार के प्रमाण सामने आते-रहते हैं। कभी-कभी स्वल्प प्रार्थना करने वालों की ही कामनाएं आश्चर्यजनक ढंग से अनायास पूरी हो जाती है और कभी-कभी दीर्घकाल तक सुनिश्चित ढंग से उपासना-आराधना करने पर भी अभीष्ट वस्तु प्राप्त नहीं होती। इन असमानताओं को देखकर कोई ईश्वर को, कोई साधना विधि को, कोई साधक को, कोई भाग्य को और कोई किसी को दोष देते हैं। जिन्हें सुगमतापूर्वक अधिक समृद्धि मिल गई वे अतिशय विश्वासी हो जाते हैं और जिन्हें कठिन प्रयत्न करने पर भी निराश रहना पड़ा वे अविश्वासी हो जाते हैं।

उपरोक्त अस्थिरता को व्यवस्थित करने के लिए प्रार्थना को ईश्वर पर क्या प्रभाव पड़ता है और उस प्रभाव के द्वारा किस प्रकार सफलता मिलती है इस तथ्य को विधिवत जानने का हमें प्रयत्न करना होगा। तभी इन विकल्पों का कारण ठीक प्रकार समझ में आवेगा।

हमें यह मानकर चलना चाहिए कि समस्त विश्व को नियम और नियंत्रण में कसकर सुस्थिर गति से चलाने वाली ईश्वरीय सत्ता स्वयं अनियमित या अव्यवस्थित नहीं है। सृष्टि के सम्पूर्ण कार्य नियमबद्ध रूप से चलाने वाला परमात्मा स्वयं भी नियम रूप है। उसके समस्त कार्य निश्चित प्रणाली के अनुसार होते हैं। उसकी प्रसन्नता और अप्रसन्नता इस बात के ऊपर निर्भर नहीं है कि कोई व्यक्ति उसकी स्तुति करता है या निन्दा। अग्नि की निन्दा या स्तुति करने से उसकी कृपा या अकृपा प्राप्त नहीं होती है। अग्नि का यदि सदुपयोग किया जाय उसके नियमों के अनुसार काम किया जाय तो बड़ी-बड़ी मशीनें चल सकती हैं, स्वादिष्ट भोजन पक सकते है, शीत का निवारण हो सकता है तथा और भी अनेकों काम हो सकते हैं। पर यदि उसे अनियमित ढंग से काम में लाया जाय हाथ झुलस सकते हैं, घर जल सकता है, भयंकर अग्निकाण्ड उपस्थित हो सकता है। अग्नि की कृपा-अकृपा निन्दा-स्तुति के ऊपर निर्भर नहीं वरन् उसके सदुपयोग पर निर्भर है। इसी प्रकार निष्पक्ष, न्यायकारी, समदर्शी नियंता नियम रूप परमात्मा इस पर ध्यान नहीं देता कि कौन व्यक्ति उसके गुण गाता है या कौन अवगुण बखानता है। उसे तो वह प्रिय है जो उसके नियम पर चलता है। उद्योगी पुरुष सिंहों को लक्ष्मी मिलती है। यह ईश्वरीय सीधा-साधा नियम है। परमात्मा को प्रसन्न करने की सर्वप्रथम प्रक्रिया पूजा विधि यह है कि जिस वस्तु को प्राप्त करने के लिए जिन साधनों, परिस्थितियों और योग्यताओं की आवश्यकता है उन्हें संग्रह किया जाय। उद्योग, प्रयत्न, विवेक एवं नियत व्यवस्था के अनुसार कार्य करना परमात्मा को सबसे अधिक पसंद है। इस पद्धति से जो प्रभु को प्रसन्न करते हैं, उनकी सकाम प्रार्थना बहुत शीघ्र स्वीकार कर ली जाती है और बलवती होती है।

जप, पूजन, अर्चन, पाठ, हवन, अनुष्ठान यह एक प्रकार के आध्यात्मिक व्यायाम हैं। इनसे मनोबल सुदृढ़ होता है। जैसे शारीरिक व्यायाम से देह के अंग- प्रत्यंग पुष्ट होकर निरोगता, सौंदर्य, परिश्रम की क्षमता, उपार्जन, उत्पादन आदि की समृद्धियाँ मिलती हैं, उसी प्रकार मनोबल की बढ़ोतरी से चित्त की सुखावस्था, मन की एकाग्रता बुद्धि की तीक्ष्णता, विवेक की जागृति में असाधारण उन्नति होती है। इन उन्नतियों के द्वारा कठिन, पेचीदा और दुरूह कार्यों को सरलतापूर्वक सम्पन्न कर लिया जाता है। पूजा अनुष्ठान की कर्मकाण्डमयी प्रक्रियाओं का मनोवैज्ञानिक पद्धति के अनुसार अंतर्मन के ऊपर बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ता है। सफलता में अपेक्षाकृत अधिक विश्वास हो जाता है, देवी कृपा का सहारा मिलने की आशा से पीठ बहुत भारी हो जाती है। साहस, आशा, उत्साह व सफलता के विचार मनोलोक में घनीभूत होकर घुमड़ने लगते हैं। ऐसी मनोभूमि सफलता के लिए बहुत ही उर्वर क्षेत्र है। ऐसी मनोदशा वाले व्यक्ति अपनी उत्तम स्थिति के कारण मोर्चे पर मोर्चा करते जाते हैं।

जप-तप द्वारा सात्विकता की वृद्धि होती है। सद्गुणों का आविर्भाव होता है। सत्प्रवृत्तियाँ जगती हैं। स्वभाव में नम्रता, भलमनसाहत, मधुरता, शिष्टता, स्थिरता, महानता छलकने लगती है। जिसका निकटवर्ती वातावरण पर अद्भुत प्रभाव पड़ता है। जो लोग संपर्क में आते हैं वे प्रभावित होते हैं और सहायता एवं सहानुभूति का हाथ बढ़ाते हैं। समाज की जरा सी सहानुभूति से बड़े दुस्तर कार्य सुगम हो जाते हैं। यह सुगमताएँ और सफलताएं कभी-कभी ऐसे अनूठे ढंग से सामने आ जाती हैं कि उन्हें ईश्वरीय कृपा का फल ही कहा जाता है।

सकाम आराधना से अपनी इच्छित वस्तु के प्रति उत्कट अभिलाषा और उसकी प्राप्ति की अधिक निश्चयपूर्ण आशा जागृत होती है। यह जागरण इष्ट सिद्धि का द्वार है। जहाँ तीव्र चाह होती है वहाँ राह निकल आती है। रामायण का मत है “जेहि कर जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलत न कछु सन्देहू।” गीता ने भी “अनन्यश्चिन्तयन्तो माँ येजना पर्युपासते” श्लोक में इसी भाव की पुष्टि की है। निर्बल इच्छा से नहीं वरन् उत्कट अभिलाषा से अभीष्ट सिद्धि प्राप्त होती है। यह स्थिति सकाम आराधना से प्राप्त होती है और तीव्र इच्छा के आकर्षण से अनुकूल परिस्थितियाँ एकत्रित होकर सफलता को निकट खींच लाती हैं।

इस प्रकार पूजा आराधना द्वारा इष्ट सिद्धि के प्राप्त होने में सहायता मिलती है। प्रार्थना ऐसी होनी चाहिए जिससे उत्कट अभिलाषा, दृढ़ता, सफलता की आशा, प्रयत्नशीलता, अभीष्ट योग्यता, विवेकशीलता एवं सात्विकता की जागृति हो। ऐसी प्रार्थना बड़ी बल- शालिनी होती है, उससे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे अवसर उपस्थित होते हैं जिनमें कठिन दिखाई देने वाले कार्य बड़ी सुगमता से पूरे होते हुए देखे जाते हैं। उसे प्रार्थना का चमत्कार भी कह सकते हैं।

किन्तु जो प्रार्थना, प्रयत्न रहित हो, मन के मोदक बाँधने और बिना परिश्रम मुफ्त के माल की तरह एक झटके में सब कुछ मिल जाने की कल्पना हो, तो ऐसे ख्याली पुलाव पूरे नहीं होते। ऐसी प्रार्थनाएं प्रायः निष्फल चली जाती हैं। ईश्वर किसी के गिड़गिड़ाने नाक रगड़ने या भीख माँगने की ओर ध्यान नहीं देता। वह स्वयं कर्मरत है। कर्म फल के अनुसार ही कुछ मिलने का उसके साम्राज्य में सुनिश्चित विधान है। संसार के बाजार में ‘इस हाथ दे, उस हाथ ले’ की नीति ही प्रचलित है। अधिकारी और पात्रों को ही उपहार मिलते हैं। पुरुषार्थी पराक्रमी और जागरुक व्यक्ति जीतते हैं और सुख भोगते हैं। यूरोपियन, स्त्री-पुरुष और बालकों की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक उन्नत अवस्था हम नित्य अपनी आँखों प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं इसके विपरीत प्रयत्न और जागरुकता के अभाव में हममें से अधिकाँश व्यक्ति दुखी एवं दुर्दशामय परिस्थितियों में पड़े सिसकते रहते हैं। प्रयत्न, योग्यता और जागरुकता को बढ़ाने वाली प्रार्थना सफलता के वरदान उपस्थित करती हैं परन्तु मजदूरी से अधिक माँगने के मनसूबे आमतौर से पूरे नहीं होते। परमात्मा भिखमंगों को नहीं परिश्रमी पुत्रों को प्यार करता है।

पूर्व संचित शुभ अशुभ कर्मों का उदय अस्त भी वर्तमान जीवन में सुख और दुख को उत्पन्न करता है। संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण कर्मों के अनुसार कभी-कभी कोई आकस्मिक सम्पत्ति या विपत्ति सामने आ खड़ी होती है। उसकी संगति प्रार्थना के साथ न जोड़नी चाहिए। पानी पीते समय छत पर से ईंट गिरे और सिर फूट जाय तो पानी और ईंट से संगति न जोड़नी चाहिए। यद्यपि पानी पीने और ईंट गिरने के कार्य साथ-साथ ही हुए तो भी इनका आपस में कोई संबंध नहीं है। यह आकस्मिक संयोग है। इस प्रकार प्रार्थना पूजा अनुष्ठान करते हुए भी कोई आकस्मिक विपत्ति आ जाय तो उस सम्पत्ति पूजा और विपत्ति सम्पत्ति का आपस में संबंध न जोड़ना चाहिए।

स्मरण रखिए, ईश्वर प्रार्थना एक आध्यात्मिक व्यायाम है। आत्मिक स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए हर व्यक्ति को नित्य नियमपूर्वक पूजा-उपासना करनी चाहिए। सकाम उपासना का भी बहुत अच्छा प्रभाव होता है और मनोबल की वृद्धि द्वारा इच्छित कामनाएं पूरी होने में आश्चर्यजनक सहायता मिलती है। परन्तु यह भी ध्यान रखना चाहिए कि प्रयत्न और पुरुषार्थ ही सफलता के निर्माता हैं। भाग्य और प्रारब्ध भी कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं, वह भी पुराना पुरुषार्थ ही है। जो कुछ मिलता है पुरुषार्थ से मिलता है। प्रार्थना भी एक प्रकार का पुरुषार्थ ही है। परमात्मा उसी की मदद करता है जो अपनी सहायता आप करता है। भिक्षुओं को यहाँ भी अपमान है और परमात्मा के दरबार में भी। मजूरों को उनके परिश्रम के अनुसार यहाँ भी मिलता है और परमात्मा भी उन्हें देने के लिए नियमबद्ध है। हमारी प्रार्थनाएं पुरुषार्थ का एक अंग होनी चाहिए। भिक्षा का अंग नहीं। प्रत्यन्त पूर्ण प्रार्थना निष्फल नहीं जाती, उनका लोक और परलोक में संतोषजनक परिणाम अवश्य ही उपलब्ध होता है।


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