कुटुम्ब का उत्तरदायित्व

September 1945

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(जोसेफ मेजिनी)

कुटुम्ब हृदय की जन्मभूमि है। कुटुम्ब में एक देवता है जो सहानुभूति, सम्वेदना, मधुरता और प्रेम का गुप्त प्रभाव अपने में रखता है। जिस देवता के प्रताप से हमें अपने कर्त्तव्य बहुत या भारी और अपने कष्ट तीक्ष्ण या कटु मालूम नहीं होते। मनुष्य को इस पृथ्वी पर जो सच्चा और अकृत्रिम सौख्य और दुःख से असंयुक्त सुख प्राप्त हो सकता है, वह कुटुम्ब का सुख है।

कुटुम्ब का देवता स्त्री है, सम्बन्ध में वह चाहे माता हो या पत्नी हो या भगिनी निस्सन्देह स्त्री जीवन का आधार है। यह प्रेम की वह मीठी चाशनी है, जो जीवन के इत्र में सींची गई है और उसको सुस्वादु बनाती है। या उस अमायावी प्रेम का, जो ईश्वरीय प्रेम कहलाता है। स्त्री जाति को परमात्मा ने उन स्निग्ध तत्वों से बनाया है, जिनमें चिन्ता की जलधारा और शोक का प्रलेप ठहर ही नहीं सकते। इसके अतिरिक्त स्त्री जाति के ही प्रताप से हम अपना भविष्य बनाते हैं। बालक प्रेम का पहला पाठ अपनी माता के चुम्बन से सीखता है।

कुटुम्ब की कल्पना मानुषी कल्पना नहीं है, किन्तु ईश्वरीय रचना है और कोई मानुषी शक्ति इसको मिटा नहीं सकती। जन्मभूमि के समान किन्तु इससे भी बढ़ कर कुटुम्ब हमारी सत्ता का एक मुख्य अंग है।

यदि तुम कुटुम्ब को स्वर्ग बनाना चाहते हो तो इसकी अधिष्ठात्री देवता स्त्री जाति का आदर करो और उनको गृहदेवी समझकर पूजा करो। उनको केवल अपने बनावटी सुख और तुच्छ उपासना पूर्ति का उपकरण न समझो, किन्तु वे एक दैवी शक्ति हैं जो ईश्वर की सृष्टि को सुन्दर और मनोरम बनाने वाली और तुम्हारे मस्तिष्क व हृदय को बल पहुँचाने वाली है। स्त्रियों पर विशेषता रखने का यदि कोई कुसंस्कार तुम्हारे मस्तिष्क में बसाया हुआ है, तो उसे निकाल दो, तुम्हें कोई विशेषता उन पर नहीं है।

हम पुरुष स्त्रियों के साथ बड़ा अनुचित और उद्दण्ड बर्ताव करते आयें हैं और इस समय तक कर रहे हैं। हमें इस अपराध की छाया से भी दूर रहना चाहिये क्योंकि ईश्वर के समीप कोई अपराध इससे अधिक उग्र नहीं है, यह मानव जाति के एक कुटुम्ब को दो भागों में विभक्त करके एक भाग पर दूसरे की अधीनता स्वीकार करना है।

परम पिता ईश्वर की दृष्टि में स्त्री पुरुष का कोई भेद नहीं है, इन दोनों से केवल मनुष्य की सत्ता का परिचय मिलता है। जिस प्रकार एक वृक्ष मूल से दो शाखायें पृथक-पृथक फूटती हैं, उसी प्रकार एक मनुष्य जाति की जड़ से स्त्री और पुरुष की दो शाखाएँ उत्पन्न हुई हैं। किसी प्रकार की विषमता इन में नहीं है। रुचि और काम में कुछ भेद है, सो यह पुरुषों में भी प्रायः देखा जाता है। क्या एक ही वाद्य के दो स्वर परस्पर विषम और भिन्न जातीय समझे जावेंगे? स्त्री और पुरुष भी दो स्वर हैं, जिनके बिना मनुष्य का राग नहीं होता।

स्त्री को केवल अपने सुख और दुःख का साथी न समझो, किन्तु अपने मानसिक भावों, हार्दिक अभिलाषाओं, अपने स्वास्थ्य, गृहस्थ और अपने उस पुरुषार्थ में भी जो अपनी सामाजिक उन्नति के लिए तुम करते हो, उसको अपने बराबर का साथी और सहचर समझो। उसको न केवल गृहस्थ जीवन व सामाजिक जीवन में किंतु जातीय जीवन में भी अपनी सदा सहचर और विश्वस्त मंत्रिणी समझो। तुम दोनों मनुष्य रूप पक्षी के दो पर बन जाओ, जिनके द्वारा आत्मा उस निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच सके, जो हमारा भाग्य या प्रारब्ध कहा जाता है।

ईश्वर ने जो संतान तुमको दी हैं, उनसे प्यार करो, पर तुम्हारा वह प्रेम सच्चा और गहरा होना चाहिये। वह अनुचित लाड़ या झूठा स्नेह न हो जो तुम्हारी स्वार्थपरता और मूर्खता से उत्पन्न होता है और उनके जीवन को नष्ट करता है। तुम कभी इस बात को न भूलो कि तुम्हारी इन वर्तमान सन्तानों के रूप में आने वाली प्रजायें तुम्हारी अधीनता में है, इसलिए इनके प्रति अपने उस कर्त्तव्य का जो ईश्वर ने तुमको सौंपा है और जिसके तुम सबसे अधिक उत्तरदाता हो, पालन करो। तुम अपनी सन्तानों को केवल जीवन के सुख और इच्छा पूर्ति की शिक्षा न दो किन्तु उनको धार्मिक जीवन, सदाचार और कर्त्तव्य पालन की भी शिक्षा दो। इस स्वार्थमय समय में ऐसे माता-पिता विशेषतः धनवानों में विरले ही मिलेंगे, जो संतान की शिक्षा के भार को, जो उनके ऊपर है, ठीक-ठीक परिमाण में तौल सके।

तुम जैसे हो, वैसी ही तुम्हारी सन्तानें भी होंगी, वे उतनी ही अच्छी या बुरी होंगी, जितने हम स्वयं अच्छे या बुरे हैं। जब कि तुम आप अपने भाइयों के प्रति दयालु और उदार नहीं हो, तो उनसे क्या आशा कर सकते हो कि वे उनके प्रति दया और उदारता दिखलायेंगे। वे किस प्रकार अपनी विषय वासना और बुरी इच्छाओं को रोक सकेंगे। जबकि रात-दिन तुमको विषयलोलुप और कामुक देखते हैं। वे किस प्रकार अपनी नैसर्गिक पवित्रता को स्थिर रख सकेंगे, जबकि तुम अपने अश्लील और निर्लज्ज व्यवहारों से उनकी लज्जा को तोड़ने में संकोच नहीं करते। तुम कठोर साँचे हो जिनमें उनकी मुलायम प्रकृति ढाली जाती है। निदान यह तुम्हीं पर निर्भर है कि तुम्हारी संतान मनुष्य हों या मनुष्याकृति वाले पशु।

अपने माता-पिता की भक्ति करो और उनका यथा योग्य सम्मान करो। ऐसा कभी न हो कि तुम अपने बाल बच्चों के मोह में पड़कर उन्हें भुला दो, जिनसे तुम उत्पन्न हुये हो। प्रायः नया सम्बन्ध पुराने सम्बंध को निर्बल कर देता है। होना तो यह चाहिये था कि यह सम्बन्ध उस प्रेम की जंजीर की एक और कड़ी बन जाता, जो कुटुम्ब की लीन पीढ़ियों को मिलाकर एक करती है। अपने माता-पिता के श्वेत केशों का उनके अंतिम दिन तक आदर करो और उनके साथ सदा विनय और अधीनता का बर्ताव रखो। याद रखो जो सम्मान तुम अपने माता-पिता का करते हो, वही तुमको अपनी संतान से आदर पाने का अधिकारी बनाता है।

माता-पिता, बहिनें, भाई, पत्नी, और बच्चे ये सब तुम्हारे समीप उन शाखाओं के समान हैं जो एक ही जड़ से उत्पन्न होते हैं। कुटुम्ब में प्रेम की वेदी स्थापन करो और उसको ऐसा मन्दिर बनाओ, जिसमें तुम जाति या देश के लिए अपनी भेंट चढ़ाने को एकत्रित हो।

कठोर समय में भी तुम्हारा मन प्रसन्न और आत्म बल युक्त होगा, जो प्रत्येक परीक्षा में तुम्हें सहारा देगा और अंधेरी से अंधेरी विपत्ति में तुम्हारे आत्माओं को ईश्वरी प्रकाश की एक झलक दिखला कर ढाढ़स देगा।

कठोर समय में भी तुम्हारा मन प्रसन्न और आत्म बल युक्त होगा, जो प्रत्येक परीक्षा में तुम्हें सहारा देगा और अंधेरी से अंधेरी विपत्ति में तुम्हारे आत्माओं को ईश्वरी प्रकाश की एक झलक दिखला कर ढाढ़स देगा।

जो मनुष्य द्वेष करने वालों के साथ द्वेष नहीं करता, जो डंडे का प्रयोग करने वालो के मध्य में भी शाँत रहता है, जो विषयों में फंसे हुए लोगों के मध्य में भी स्वतंत्र है, वही ब्राह्मण है।

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जिस घर में अन्न इकट्ठा रहता है। मूर्खों का निरादर होता है। पति, पत्नी में प्रेम होता है। उस मकान में निश्चय ही लक्ष्मी वास करती है।

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नम्रता कठोरता को निःशस्त्र कर देती है। अधर्मी को पिघला देती है।


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