आत्मसंयम में स्वर्ग है।

September 1945

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आत्म-नियंत्रण ही स्वर्ग द्वार है। यह प्रकाश तथा शाँति की ओर ले जाता है। उसके बिना मनुष्य नर्कवासी है-वह अशान्ति और अहंकार में विलीन है। आत्मसंयमी न होने से मनुष्य अपने माथे पर घोर दुखों को मढ़ता है। उसके दुःख और संताप उसे तब तक हैरान करते रहेंगे। जब तक वह आत्म-नियंत्रण का कार्य आरम्भ नहीं कर देता। इसकी प्रतिस्पर्धा करने वाली कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो इसकी स्थान पूर्ति कर सके। आत्मसंयम आरम्भ करके कोई आदमी जो अपना उपकार कर सकता है, उससे अधिक उपकार करने वाली संसार की कोई शक्ति नहीं है।

आत्म-नियंत्रण से मनुष्य अपने दैवी गुणों को प्रकाशित करके दैवी ज्ञान तथा शान्ति का भागी होता है। उसका अभ्यास प्रत्येक मनुष्य कर सकता है। निर्बल मनुष्य भी इसी समय से इसका अभ्यास आरम्भ कर सकता है। जब तक वह इस कार्य में प्रवृत्त नहीं होता, वह निर्बल बना रहेगा अथवा संभावना है कि उसकी निर्बलता बढ़ती जाय। जो आत्मा को अपने वश में नहीं करते, अपने हृदय को शुद्ध नहीं बनाते-ईश्वर के प्रति उनकी सब प्रार्थना व्यर्थ है। जो कलह मूलक अज्ञानता तथा कुवृत्तियों में लिपटे रहेंगे, उनका ईश्वर की सर्वज्ञता में विश्वास करना, न करना बराबर है।

जो मनुष्य पर-दोष रत जिह्वा को ठीक नहीं करना चाहता, क्रुद्ध स्वभाव का दास बना रहना चाहता है और अपवित्र विचारों का उत्सर्ग नहीं कर सकता। उसे न तो कोई बाह्य शक्ति सन्मार्ग पर ला सकती है और न उसके किसी धार्मिक बात के समर्थन तथा विरोध ही से उसकी भलाई हो सकती है। मनुष्य अपने अन्तर्हित अंधकार पर विजय पाकर ही सत्य के प्रकाश का दर्शन पा सकता है।

खेद है कि मनुष्य आत्मसंयम के परम गौरव का अनुभव नहीं करता। वह दूसरी निःसीम आवश्यकता को नहीं समझता और फलतः आध्यात्मिक स्वतंत्रता तथा वैभव, जिनकी तरफ यह मनुष्य को प्रेरित करती है। मनुष्य की दृष्टि पथ से छिपे रहते हैं, इसी कारण मनुष्य कुवासनाओं का दास बना रहता है। पृथ्वी मंडल पर फैले हुए बलात्कार, अपवित्रता, रोग तथा दुःखों पर दृष्टि दौड़ाइये और देखिये कि कहाँ तक आत्मसंयम की कमी इन सब का कारण है। तब आप इसका पूर्ण अनुभव करेंगे कि आत्मा-नियंत्रण की कितनी अधिक आवश्यकता है।

मैं इस बात को दोहराना चाहता हूँ कि आत्म-संयम ही स्वर्ग द्वार है, इसके बिना आनन्द, प्रेम या शाँति, इनमें से किसी की न तो प्राप्ति हो सकती है और न कोई स्थायी रूप टिक सकता है।

आत्मसंयम पुण्य की प्रथम सीढ़ी है। इससे प्रत्येक सद्गुण की प्राप्ति छोटी है। सुव्यवस्थित तथा सच्चे धार्मिक जीवन की यह सर्वप्रथम आवश्यकता है। इससे प्रसन्नता, सुख तथा शान्ति मिलती है। ईश्वर विषयक विश्वास आवश्यक होते हुए भी, संयम के बिना सच्चे स्वर्ग की स्थापना नहीं हो सकती। क्योंकि प्रकाशित आचरण का ही दूसरा नाम धर्म है।

आत्मसंयम पुण्य की प्रथम सीढ़ी है। इससे प्रत्येक सद्गुण की प्राप्ति छोटी है। सुव्यवस्थित तथा सच्चे धार्मिक जीवन की यह सर्वप्रथम आवश्यकता है। इससे प्रसन्नता, सुख तथा शान्ति मिलती है। ईश्वर विषयक विश्वास आवश्यक होते हुए भी, संयम के बिना सच्चे स्वर्ग की स्थापना नहीं हो सकती। क्योंकि प्रकाशित आचरण का ही दूसरा नाम धर्म है।

जैसे कि पानी की बूँद केले के पत्ते पर न जाने हवा के द्वारा थोड़ी ही देर ठहरे अथवा हवा न लगने से अधिक देर भी ठहर सकती है। उसी प्रकार यह जीवन भी अधिक देर ठहर सकता है और जल्दी भी नष्ट हो सकता है।

==================================


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118