(ले.-डॉक्टर हीरालाल गुप्त, बेगू सराय)
अधिकाँश लोगों का खयाल है कि जो धनी हैं वही सुखी हैं, निर्धन को तो भगवान ने व्यर्थ ही पैदा किया। वे तो संसार के भार स्वरूप ही हैं। कुछ अंशों में यह बात ठीक है कि धन से बहुत से शुभ कर्म हो सकते हैं। यज्ञ, दान, सदावर्त, धर्मशाला, गौशाला कुआँ, तालाब आदि धन के बिना संभव नहीं। पर इसका दूसरा पहलू घोर अंधकारमय है। धन के कारण पिता-पुत्र, स्त्री-पति और भाई-भाई के झगड़े हुआ करते हैं, यहाँ तक कि एक दूसरे की जान के ग्राहक तक हो जाते हैं। धन मित्र को मित्र से अलग कर देता है। धन के कारण चोर, लुटेरे और डाकुओं के आक्रमण होते हैं और धन के लोभ से ही धनिकों को विष का शिकार होना पड़ता है। अगर संक्षेप में कहा जाये तो धन का तीन चौथाई हिस्सा अंधेरे में और केवल एक चौथाई उजाले में है। अतएव अधिक धन जमा करना भी मूर्खता है।
कंचन में लिपट जाने पर भगवान दूर हो जाते हैं क्योंकि इसका लोभ और इसकी ममता बड़ी ही जबरदस्त होती है। बहुत लोग इसके इकट्ठा करने में बड़प्पन समझते हैं। पर वे यह नहीं समझते, यह नहीं विचारते और यह नहीं सोचते कि यह धन जो विद्युत के समान चंचल है और पारे के समान लुढ़क जाने वाला है, उनके किस काम में आवेगा, अगर मरने के बाद साथ भी जाता तो एक बात थी। यह तो यहीं रह जाता है और मनुष्य हाथ पसारे यहाँ से कूच कर जाता है।
धन का गर्व भी कम नहीं होता है। बड़ा ही प्रबल रूप धारण करता है। पर भगवान गर्वहारी है। वह किसी के गर्व को रहने देना नहीं चाहते। माता की नाइ बच्चे के फोड़े में चीरा लगवा देना ही उचित समझते हैं। गज को जब तक अपने बल का गर्व था, उसकी सहायता नहीं की गई। रावण के गर्व का संहार कर दिया गया। कंस को अपने धन और बल के गर्व का कडुआ फल चखना पड़ा।