त्राटक-योग का साधन

September 1945

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(संकीर्तन)

एक प्रकट लक्ष्य रख लेना चाहिए। वह कोई भगवान की मूर्ति हो या मोमबत्ती का प्रकाश। कडुआ या किसी वनस्पति के तेल अथवा घी के दीपक को रख सकते हैं। मिट्टी के तेल के प्रकाश अथवा बिजली बत्ती को काम में नहीं लाना चाहिए। नेत्र दृष्टि को हानि पहुँचेगी। सूर्य भी हानिकारक है और चन्द्रमा नित्य निश्चित समय पर प्राप्त नहीं होते। अतः उपरोक्त वस्तुयें ही ठीक हैं। शालिग्राम की पिण्डी, शिवलिंग या चित्रपट सबसे अच्छे हैं।

अपने कमरे में मूर्ति या प्रकाश को इतने ऊंचे पर रखो कि सामने का स्थान ऐसा होना चाहिए जिसमें मूर्ति अंधेरे में न पड़े या प्रकाश वायु से हिले नहीं। मूर्ति रखना हो तो खिड़की के सामने दूसरी ओर और प्रकाश रखना हो तो किसी कोने में रखना ठीक रहता है। कमरा सर्वथा न भरा हो। स्वच्छ और रिक्त स्थान चाहिये। साधन के स्थान में एक लोटा जल पहले से रख लो। ठीक निश्चित समय पर साधन पर बैठ जाओ। साधन का समय बढ़ाया जा सकता है, परन्तु इतना ही बढ़ाना चाहिए, जिसे कभी घटाना न पड़े।

आवश्यक है कि यह साधन निरोग नेत्रों वाला व्यक्ति ही करें। निर्बल नेत्रों वाले भी कर सकते हैं किन्तु जिनके नेत्रों में दुर्बलता के अतिरिक्त कोई और भी रोग है, वे नहीं कर सकते। साधन से उठते ही मुख में जितना जल भर सके भर लो। मुख के जल को मुख में हिलाते हुये नेत्रों पर जल के छींटे दो। खुले नेत्रों में जल के छींटे लाभकारी होंगे। भली प्रकार नेत्र धोकर तब मुख का पानी थूक दो। जल्दी-जल्दी पलकें मारते हुये दो मिनट टहलो। तदनन्तर कहीं नेत्र बन्द करके दो मिनट बैठे रहो। इसी रीति से नेत्रों को पूरा आराम मिलेगा।

त्राटक की पद्धति से लययोग का जो साधन हम बताने जा रहे है, उससे नेत्रों को कोई हानि पहुँचेगी, इसकी तनिक भी शंका नहीं करनी चाहिये। उपरोक्त विधि से नेत्रों को यदि साधन के अन्त में धोया जाता रहा तो नेत्रों की ज्योति बढ़ जावेगी। नेत्र दौर्बल्य नष्ट हो जावेगा। नेत्र निर्मल हो जावेंगे। यदि किसी प्राकृतिक कारण से, शरीर विकार से अथवा नेत्र में कुछ पड़ जाने से नेत्रों में पीड़ा होने लगे, नेत्र लाल हो रहे हों, सूजे हों, उन पर फुन्सी हुई हो तो जब तक वह रोग दूर न हो जाय नेत्र स्वस्थ न हो जावें, साधन को बन्द रखना चाहिए।

लक्ष्य से दो हाथ दूर आसन पर बैठो। लक्ष्य ठीक नेत्रों की सीध में रहे। शरीर सीधा रहे, कमर झुकी न रहे। एक टक लक्ष्य को देखो। नेत्रों पर जोर या दबाव नहीं डालना चाहिये। उन्हें अधिक फैलाना या संकुचित करना ठीक नहीं। साधारण रीति से वे जैसे खुले रहते हैं, वैसे ही खोले रखो। पलकें न गिरें इसका ध्यान अवश्य रखना पड़ेगा। धीरे-धीरे साधन को बढ़ाना चाहिये। दो मिनट से प्रारम्भ करके एक मिनट नित्य बढ़ा सकते हैं। जब नेत्र थक जावें, उनमें आँसू भर जावें तो साधन समाप्त कर दो। सप्ताह तक साधन करने के पश्चात् जब नेत्रों में पहली बार आँसू भर जावे तो पलकें मार कर आँखों को हाथ से पोंछ दो। फिर लक्ष्य पर दृष्टि स्थिर करो। दूसरी बार आँसू भरने पर साधन तब समाप्त करो जब आँसू टपकने लगे। इसी प्रकार दो हफ्ते के अन्तर से दूसरी बार भी आँसू पोंछकर पुनः दृष्टि स्थिर कर सकते हो। किसी भी दशा में तीन बार से अधिक आँसू पोंछकर कभी भी दृष्टि जमाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये। इससे नेत्रों को हानि पहुँचेगी।

यदि लक्ष्य चित्रपट्ट हो तो आराध्य के चरणों के एक अंगुष्ठ के नख पर दृष्टि जमाओ और यदि शिव लिंग या शालिग्राम हों तो ऊपरी भाग पर। प्रदीप में उस स्थान पर दृष्टि स्थिर करनी चाहिये। जहाँ बत्ती ज्योति प्रारम्भ होती है। मन को सब ओर से हटाकर एकत्र करके लक्ष्य पर लगाओ। भावना करो कि मूर्ति से अगर प्रकाश निकल रहा है, अथवा दीपक तुम्हारी दृष्टि के आघात से बुझ जायगा। दीपक यदि बुझ जाय तो भी दृष्टि वैसे ही स्थिर करके भावना करो कि तुम्हारे नेत्रों की ज्योति पुनः दीपक को जला देगी।

जब दीपक पुनः जल जावे तो नेत्रों को बन्द कर लो और भावना के द्वारा दीपक को देखो। मानो तुम्हारी दृष्टि पलकों के आवरण को भेदकर दीपक को देख लेगी। सचमुच ही तुम दीपक को देख लोगे। तुम देखोगे कि दीपक का प्रकाश विस्तीर्ण हो रहा है। उस प्रकाश में ही तुम्हें सम्पूर्ण संसार और सभी देवताओं के दर्शन होंगे। कहीं मत रुको! चुपचाप देखते चलो। प्रकाश महत्तर होता जायगा। सब दृश्य उसी में लीन होने लगेंगे। तुम अपने में एक घबड़ाहट पाओगे। डरो मत, अपने को जागृत रखने का प्रयत्न मत करो। इस निर्विकल्प स्थिति में डूब जाओ। अपने को मिटा दो।

यदि साधन मूर्ति पर किया गया है तो जब मूर्ति से भावना करते-2 प्रकाश प्रकट होने लगे और इतना तीव्र हो जावे कि नेत्र उसे सहन न कर सकें तो नेत्रों को बन्द कर लो। अपने भीतर, नाभि, हृदय, कण्ठ, भूमध्य या सहस्रार में जहाँ सरलता हो, उसी मूर्ति का ध्यान करना चाहिए। मूर्ति स्थिर होते ही उसके उसी भाग पर मन एकाग्र करना होगा, जिस भाग पर बाहर दृष्टि स्थिर की थी। उसी भाग से प्रकाश के प्राकट्य की पुनः भावना करते रहना चाहिये।

उस लक्ष्य से प्रकाश प्रकट होगा। शरीर में इस समय कुछ जलन या पीड़ा हो सकती है। शरीर के किसी विशेष भाग में भी दर्द हो सकता है। बिना भीत एवं व्याकुल हुये स्थिर रहने से वह पीड़ा या जलन कुछ मिनट में ही मिट जायगी। प्रकाश तीव्रतम होता जायगा। दीपक की भाँति उसमें भी समस्त विश्व का दर्शन होगा। यही विराट या विश्वरूप का दर्शन है। तदनन्तर निर्गुण निष्ठा के साधक के प्रसंग में दृश्य लीन हो जायेंगे, केवल प्रकाश रहेगा और अन्त में साधक की त्रिपुटी उसी में लीन हो जायगी। साधक सगुणोंपासक हुआ तो सब दृश्य आराध्य मूर्ति में लीन हो जायेंगे और अंत में आराध्य की हँसी में साधक का स्व पार्थक्य भी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118