(राजकुमारी रत्नेश कुमारी ‘ललन’)
सहानुभूति का सहारा पाकर मेरी आहत भावनाएं उस अपरिचित सहृदय साधु के सन्मुख बिखरने को अकुला उठी। मैं करुण कण्ठ हताश भाव से कहने लगा-महात्मन्! मैं बड़ा ही अभागा हूँ सारे संसार से मुझे उपेक्षा, निष्ठुरता, और तिरस्कार ही प्राप्त हुआ है। मैंने अपने समस्त जीवन में अब तक के कडुए अनुभवों से यही सीखा है कि संसार स्वार्थी है। इष्ट मित्र अथवा आत्मीयजन कोई भी किसी का साथ नहीं देता।
एक दयामयी सरल मुस्कान के साथ उन्होंने कहा-”पहली भूल”। जैसे बालकों की अज्ञान भरी बातों पर समझदार व्यक्ति कह उठते हैं। मैंने अचकचा कर पूछा मैं आपके कथन का तात्पर्य नहीं समझा! उन्होंने कहा फिर बतलाऊँगा, तुम अपनी दुःख गाथा पहले कह लो। मैं कहने लगा- मेरा सिद्धान्त है- मलूकदास जी का यह दोहा- “अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका कहि गये सबके दाता राम। अस्तु सब से ठुकराये जाने पर मैंने सोचा, दुर्भाग्यवश मलूकदास तो मुझे मिल नहीं सकते हैं अतएव उनके जो आदर्श हैं उन्हीं के साथ रहूँ और उनसे ही इस प्रकार जीवन व्यतीत करने की शिक्षा लूँ। पर मेरे दुर्भाग्य ने वहाँ भी पीछा न छोड़ा मैंने देखा कोई पंछी तो घोंसला बनाने में कड़ाके की धूप की भी परवाह न करते हुए व्यस्त हैं, कोई शिशुओं के लिए अपना आहार जुटा रहा है, कोई अपनी क्षुधा निवृत्ति में संलग्न है। कोई-कोई डालियों पर झूल-झूल कर गाते हुए भी मिले पर वे भी अपनी थकान मिटा, नवीन स्फूर्ति पा फिर अपने कार्यों में दत्तचित्त हो गये। अजगर को भी मैंने देखा पर वह भी प्राणशक्ति के द्वारा अपना आहार प्राप्त करता है। कहने का तात्पर्य यह कि बड़े जीवों की तो बात ही क्या तितलियाँ, मधु-मक्खियाँ, चींटियाँ, भंवरों तक नन्हें प्राणियों को भी मैंने अकर्मण्य न पाया। थककर निराश हतबुद्धि होकर मैं मूर्छित हो गया फिर तो आपको विदित ही है। वे दयार्द्र पर सहज प्रसन्न भाव से कहने लगे-तुमने दो भूलें की। एक तो तुम्हें यह जानना चाहिये कि देना ही देना तो दैवी प्रकृति का धर्म है और लेना ही लेना दानवी प्रकृति का तथा लेना भी और देना भी मानुषी प्रकृति का गुण है। यदि तुम देव बनोगे तो सब तुम्हारी पूजा करेंगे। (अपनी श्रद्धामयी भावनाओं से) यदि तुम मनुष्य बनोगे तो सब प्रेम और प्रशंसा तथा सम्मान करेंगे पर यदि तुम दानवी प्रकृति को अपनाओगे तो सर्वत्र तुमको निन्दा, उपेक्षा, घृणा और तिरस्कार ही प्राप्त होगा। ये दोष तुम्हारा है जिसे तुम भ्रमवश संसार पर आरोपित कर रहे हो। यह तो हुई पहली भूल।
दूसरी भूल तुमने जो की उसे तुम स्वयं ही जान चुके हो कि पशु, पक्षी, कीट-पतंग कोई भी सदैव निष्कर्म नहीं रहता। अब तुम्हें तुम्हारी तीसरी भूल और बतानी है कि कोई इच्छा करने पर भी अकर्मण्य नहीं रह सकता, यह प्रकृति का अटल नियम है कर्म से योग करने की। सो कैसे? मैंने आश्चर्य की सीमा पर पहुँच कर पूछा। वे हँसते हुए आत्मीयता पूर्ण घनिष्ठता से कहने लगे मान लो मैं तुम्हारे भोजन वस्त्र का भार अपने पर ले लू तो तुम सोचना विचारना, देखना-सुनना, हँसना, बोलना, चलना, फिरना मेरे अनुरोध पर छोड़ सकते हो? फिर सरल मुक्त हास्य के साथ अरे भाई! जब शरीर की नाड़ी-नाड़ी रक्त का बिन्दु-बिन्दु तक गतिशील है तब तुम कैसे निश्चेष्ट रहोगे विश्व का अणु गति युक्त है फिर तुम कैसे बच सकोगे?
मैंने अपनी मूर्खता पर लज्जित होकर मस्तक झुका लिया उन्होंने मेरी पीठ पर प्यार की थपकी देते हुए कहा-जब कर्म किये बिना नहीं रहा जा सकता तब सत्कर्म करो न? मैं श्रद्धापूर्वक उनके चरणों पर झुक गया और गदगद स्वरूप हो बोला “जैसी आज्ञा” ऐसा प्रतीत हुआ सारा गगन मेरे इस सद् संकल्प पर प्रसन्नता प्रकट कर रहा है।
=कोटेशन============================
फल के लिए प्रयत्न करो परन्तु दुविधा में खड़े न रह जाओ। कोई भी कार्य ऐसा नहीं जिसे खोज और प्रयत्न से पूर्ण न कर सको।
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