(लेखिका- राजकुमारी ‘ललन’ मैनपुरी राज)
अक्सर देखने में आता है कि किसी-किसी व्यक्ति को जीवन भर खोज करने पर भी सच्चे मित्र की प्राप्ति नहीं होती। वह आजीवन मित्रता तोड़ता और जोड़ता रहता है अथवा निराश होकर सोच लेता है- सच्ची मित्रता ऐसा मीठा स्वप्न है जिसे सभी आमरण देखते हैं पर कभी भी पूर्ण नहीं होता। किसी विषय पर जब बुद्धि निर्णय करने में असमर्थ हो जाती है तब अपने श्रद्धाभाजन व्यक्तियों से राय लेते हैं। आइये। हम भी जगत बन्द्य तुलसीदास जी की सन्मति लें। सुनिये, तो वे इस कठिन समस्या का क्या उत्तर देते हैं।
“इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले भजन की रीति। तुलसी ऐसे जीव सन, हठि करि कीजै प्रीति॥”
अर्थ जरा व्यापक रूप में लीजिये- इष्ट (जीवन का लक्ष्य अर्थात् जिसे पाने की आपको सर्वाधिक चाह है) मिले, अरु मन मिले (स्वभावतः ही आपके, उसके प्रति सद्भाव हो और उसके आपके प्रति दोनों के हृदय एक दूसरे के प्रति निस्वार्थ भाव से आकर्षित हों। मिले भजन की रीति (चिन्तन करने की रीति भी दोनों की मिलती-जुलती हो) ये हैं मित्रता का निष्कण्टक राजमार्ग। ऐसी मैत्री दिन-2 बढ़ती है, टूटने का डर ही नहीं। इसका यह मतलब नहीं कि इन तीनों गुणों के बिना मैत्री हो ही नहीं सकती, अगर अपने पास सहिष्णुता है, धैर्य है, और हैं विमुख और रुष्ट मित्र के लिए भी हार्दिक सद्भाव और शुभकामनाएं तो एक दिन वह आपके इस सच्चे प्रेम का मूल्य समझेगा और हृदय से पश्चाताप दग्ध होकर आपसे क्षमा प्रार्थना करेगा। संसार की कोई भी शक्ति आपकी मित्रता नष्ट नहीं कर सकती क्योंकि सत्य और न्यायपूर्ण पथ पर जगत पिता सर्वशक्ति केन्द्र जगत नियन्ता मनुष्य का सदैव ही सहायक है।