काया में हमने क्या पाया

April 1945

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हे बहिर्मुखी, अन्तर्मुख हो!

यह वास्तु जगत माया-निर्मित, काया में हमने क्या पाया!

कुछ श्वास, चेतना, स्पन्दन, वैभव ने जिसको ललचाया!!

क्षण भंगुर सिन्धु तरंगों सा, अस्थिर, उच्छ्रवास पुँज, जीवन!

यह समय उधेड़ बुन करता कर्मों से नियति-सुदृढ़-जीवन!!

कर्त्तव्य किया फल मिलने पर- पागल! फिर क्यों दुख हो, सुख हो?

हे बहिर्मुखी, अन्तर्मुख हो! कलिका-संपुट में ओस-बिन्दु,

कुछ क्षण भर का इतिहास लिए! जिसका मिट जाना ही परिचय- है स्निग्ध, मधुर मृदु ह्रास लिये!!

पावस-रजनी, घनघोर घटा, झंझावातों का वेग प्रबल

विद्युत अस्तित्व बता देती, पल में चमका कर छोर सबल!!

स्मिति जैसी यह ज्योति लिए- मानव! जगती के सम्मुख हो!

हे बहिर्मुखी, अन्तर्मुख हो!!

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*समाप्त*


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