धर्म, पोथी पत्रों में बन्द रहने की कथा वार्त्ता कहे सुने जाने की या पूजा पाठ करने की वस्तु नहीं वरन् जीवन में व्यावहारिक रूप से उतारने की चीज है। धर्म शब्द ‘धृ-धारण’ धातु से बनता है। इससे स्पष्ट है कि जो वस्तु धारण की हुई हो, काम में लाई जाय, व्यावहारिक रूप से प्रयोग हो वही धर्म है, किन्तु आज कल धर्म का स्वरूप ऐसा आडम्बर पूर्ण झूठा, और डरावना बना दिया गया है कि उसके उपयोग पण्डे, पुजारियों की जीविका चला देना मात्र रह गया है।
धर्म हर मनुष्य के दैनिक जीवन में नित्य-हर घड़ी, उपयोग में आने वाला तत्व है। महात्मा गाँधी का कथन है कि जिस धर्म का हमारे दैनिक आधार व्यवहार पर कुछ असर न पड़े वह एक हवाई खयाल के सिवाय और कुछ नहीं है। मैं तो धर्म को ऐसी ही आवश्यक वस्तु समझता हूँ जैसे अन्न, जल और वायु। नशेबाजों का जैसे अपने नशे की चीजों का ध्यान रहता है, तलब लगती है और उन्हें पाने के लिए सम्भव उपाय को काम में लाता है। उसी प्रकार धर्म कार्यों को ऐसी चाट और मतलब मनुष्य के कलेजे में उठनी चाहिए कि आज के कार्यों में अधिक से अधिक धर्म का समन्वय हो।
मनुष्यता की जिम्मेदारी बड़ी भारी है, इन्सानियत के गौरव की रक्षा करना हर इन्सान का फर्ज होना चाहिए। मानवता की देवी हमें उँगली के इशारे से उन लोगों को दिखाती है जो हमसे छोटे और कमजोर हैं। वह पूछती है कि क्या इन्हें सुखी बनाने और ऊँचा उठाने के लिए तुम कुछ नहीं कर सकते? यदि हम मनुष्यता के कर्त्तव्य को, धर्म को रत्ती भर भी पहचानते हैं तो गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा कि हम अपने से कमजोरों की भलाई के लिए क्या करते हैं? क्या कर सकते हैं? और क्या करेंगे? धर्म काल्पनिक नहीं व्यावहारिक होना चाहिए।